मन्दी की आहट के बीच बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कर्मचारियों की छँटनी
समाचार-विचार आशुतोष कुमार दुबेदुनियाभर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ तेजी से कर्मचारियों की छँटनी कर रही हैं। पिछले साल जुलाई से लेकर दिसम्बर तक अमेजन ने लगभग 18,000 कर्मचारियों की छँटनी की। माइक्रोसॉफ्ट ने सिर्फ 18 जनवरी 2023 को 10,000 कर्मचारियों को काम से निकाला, मेटा ने जनवरी 2023 को 10,000 कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाया। टेस्ला, गूगल, जैसी तकनीकी कम्पनियों से लेकर, फैशन से जुड़ी कम्पनियाँ, उत्पादन से लेकर रियल इस्टेट, आदि, हजारों कम्पनियों में ये सिलसिला अब तक बदस्तूर जारी है। विशेषज्ञों की राय में यह समुद्र में तैरते बर्फ के चट्टान के दिखायी दे रहे छोटे हिस्से के समान है। भयावह मंजर तो अभी आने बाकी हैं।
यह ध्यान रहे कि इन कम्पनियों में सफेदपोश कर्मचारी काम करते हैं जिनकी तनख्वाहें बहुत ऊँची होती हैं। ये विलासितापूर्ण जिन्दगी जीते हैं और महँगे सामानों का इस्तेमाल करते हैं। ये शोषण पर टिके पूँजीवादी व्यवस्था के पक्के समर्थक होते हैं। ये कम्पनियाँ अन्य छोटी कम्पनियों से जुड़ी होती हैं जो मजदूरों से ठेके पर काम कराती हैं जिनकी आमदनी बहुत कम होती है और जो बहुत कठिन जिन्दगी जीते हैं। संकट के समय ठेका मजदूरों की रोजी–रोटी सबसे पहले चली जाती है।
पेशेवर नेटवर्किंग प्लेटफॉर्म लिंक्डइन, जिसके वैश्विक स्तर पर 88 करोड़ उपयोगकर्ता हैं, उस पर छँटनी किये गये कर्मचारियों की शिकायतों की भरमार हो गयी है। ऐसा पहली बार हुआ है कि शर्म और झिझक छोड़कर लोग अपनी शिकायतों को सामने रख रहे हैं। चेन्नई स्थित एक स्टार्ट–अप के एक पूर्व कर्मचारी ने भी नौकरी से निकाले जाने के एक दिन बाद लिंक्डइन पर इसके बारे में पोस्ट किया। उसने बताया कि रोजगार की स्थिति इतनी भयावह हो गयी है कि पिंक स्लिप मिलने के बाद पहले हफ्ते में ही उसे अपने पूर्व नियोक्ता की मदद से चार जगह इंटरव्यू देना पड़ा।
एक साल से कुछ अधिक समय में, कर्मचारियों के लिए स्थिति ‘महान इस्तीफे’ से ‘महान अनिश्चितता’ में बदल गयी है। जैसे–जैसे छँटनी अधिक आम होती जा रही है, काम पर रखने की गति धीमी होती जा रही है, कोर्पाेरेट संस्कृति के कम–आकर्षक पहलू सामने आ रहे हैं। यही स्थिति रही तो बड़ी संख्या में बेरोजगार हुये नौजवानों का कार्पाेरेट से मोहभंग होगा।
एक तरफ देश–दुनिया के देशी–विदेशी पूँजीपति, राजनेता, अर्थशास्त्री, आदि गला फाड़ रहे हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है, मुनाफा पिछले साल से ज्यादा हो रहा है, वगैरह–वगैरह। वहीं दूसरी तरफ वे मेहनतकशों को रोज काम से जबरदस्ती निकाल रहे हैं, छँटनी कर रहे हैं। यहाँ छँटनी से मतलब है, कम्पनी का अपने कर्मचारियों को बिना किसी गलती के निकाल देना।
किसी उत्पाद को बनाने के लिए मुख्यत: तीन चीजे लगती हैं, कच्चा माल, तकनीक और श्रम शक्ति। इनमें कर्मचारियों को दिया जाने वाला वेतन हमेशा घटाया जाता है। अब ये ही मिल कर कुल लागत होते हैं। किसी माल के उत्पादन के लिए लगने वाले कच्चे माल में कमी से उत्पाद की गुणवत्ता खराब होती है। ठीक इसी तरह तकनीक में कमी उसके गुणवत्ता को कम और लागत को बढ़ा देती है। इसका मतलब है इन्हें कम नहीं किया जा सकता है। अब अगर लागत कम से कम रखना है तो तीसरे कारक–– मजदूर या कर्मचारी को दिये जाने वाले वेतन और सुविधाओं में कमी की जाती है। इसके कई तरीके हो सकते हैं, जैसे–– कम मजदूरों से ज्यादा काम, काम के घण्टे बढ़ा देना और वेतन कम कर देना, उनकी सुविधाओं पर कम से कम खर्च करना, सस्ता से सस्ता श्रम खरीदना, अमानवीय स्थिति में काम करवाना, मजदूरों की छँटनी, कम्पनी में तालाबन्दी, आदि।
एक आर्थिक रूप से मजबूत मजदूर या कर्मचारी बाजार से खरीददारी भी करता है। वह घूमने भी जाता है। कुछ खर्चा मनोरंजन पर भी करता है और थोड़ा बहुत निवेश भी करता है। इन सभी को जोड़कर उसकी ‘क्रय शक्ति’ बनती है। इस आर्थिक मजबूती का आधार है–– रोजगार और आय के साधन। क्रय शक्ति बढ़ने से लोगों की भीड़ इस बाजार में बनी रहती है। जब लोगों को नौकरी से निकाल दिया जाता है तो उनकी क्रय शक्ति बहुत कम हो जाती है। इसके फलस्वरूप वे खर्चा को बहुत कम करते हैं और बाजार में उत्पादों और सुविधाओं की बिक्री में कमी आ जाती है। इससे मन्दी का दुष्चक्र और गहरा जाता है।
पूँजीवादी व्यवस्था की प्रेरक शक्ति मुनाफा है। मुनाफे तभी सम्भव है, जब माल बिके और सेवाओं का इस्तेमाल हो। इन दोनों के लिए लोगों की क्रय शक्ति का होना बहुत जरूरी है। छँटनी से क्रय शक्ति कम हो जाती है जिसके फलस्वरूप उस मजदूर या कर्मचारी की बाजार में भागीदारी पहले से भी कम हो जाती है। वहीं बाजार पहले से भी ज्यादा सिकुड़ जाता है। पूँजीपतियों नें अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए जिन्हें नौकरी से निकाला, वे उसके लिए उपभोक्ता भी थे। नौकरी से निकालकर उसने अपने ही उत्पादों के खरीददारों और सुविधाओं के उपभोक्ताओं को भी पहले से कम कर दिया। इस तरह मुनाफे की लालच में अंधे पूँजीपति अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं और समाज को अराजकता, बेरोजगारी, गरीबी और बीमारी के दलदल में धकेल रहे हैं।
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