15 फरवरी 2022 को ‘मेडिकल प्रेस’ की रिपोर्ट के अनुसार, अक्टूबर 2021 तक बनायी गयी कुल वैक्सीन का सिर्फ 0–7 प्रतिशत ही गरीब और कम आय वाले देश के लोगों को दिया गया। दूसरी तरफ, ज्यादा आय वाले देशों को इसका 47 गुना दिया गया। यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि वैक्सीन को निजी मालिकाने वाली कम्पनियों ने बनाया। इस तथ्य से एक बात साफ–साफ समझी जा सकती है कि मौत के सौदागरों के सामने गरीब और अमीर की जान की कीमत अलग–अलग है।

सरकारों का रवैया

अमरीकी राष्ट्रपति ने पेटेण्ट में छूट की बात को मीडिया के सामने कहा और वाह–वाही लूटी। उन्होंने इसे लागू करने के लिए अभी तक कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया। युरोपियन यूनियन ने पेटेण्ट में छूट की बात को सिरे से नकार दिया। भारत ने भी वैक्सीन के पेटेण्ट में छूट नहीं दी।

पेटेण्ट में छूट का मतलब है कि वैक्सीन बनाने और उसे वितरित करने की छूट। यह किसी एक कम्पनी के एकाधिकार को खत्म करता है। ऐसा करने से पहले की तुलना में ज्यादा वैक्सीन बनायी जा सकेंगी और जरूरतमन्द बीमार को लगायी जा सकंेगी। जब पूरी दुनिया किसी महामारी से त्राही–त्राही कर रही हो तो उससे जल्द से जल्द बाहर निकालने की जिम्मेदारी सरकारों की होती है। ऐसी स्थिति में पेटेण्ट को खत्म करना एक जरूरी कदम है।

कोरोना वैक्सीन को सिर्फ निजी अनुभव से बनाया गया हो, ऐसा नहीं है। उदाहरण के लिए भारत में कोविशील्ड नाम की वैक्सीन को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय और स्वीडेन की कम्पनी एस्ट्राजेनेका से लाइसेन्स पर लिया गया है। कोवैक्सीन को नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी, पुणे में विकसित किया गया था जो कि आईसीएमआर के अधीन है। ये दोनों सार्वजनिक क्षेत्र के विश्वविद्यालय हैं। ये करोड़ों नागरिकों की मेहनत से कमाये हुए पैसों से चलते हैं। इसमें मेहनतकश वर्ग बहुसंख्या में शामिल है। पूरी दुनिया के लोगों से अर्जित सामूहिक ज्ञान और विज्ञान से नये–नये आविष्कार और खोजें होती हैं। वहीं वैक्सीन के परीक्षण में हजारों लोगों के जान को जोखिम में डाला जाता है। ऐसे में बहुसंख्य लोगों की मदद से तैयार वैक्सीन को चन्द मुनाफाखोरों को सौंप देना पूरी मानवता के खिलाफ है।

एक–दो मामलों को छोड़ दें, तो वैक्सीन बनाने वाली का काम अलग–अलग देशों के सार्वजनिक क्षेत्र के विश्वविद्यालयों ने ही किया है।

कोवैक्स (सीओवीएएक्स), निजी कम्पनियाँ और हुक्मरान

वैक्सीन को पूरी दुनिया में वितरित करनेवाला ‘कोवैक्स’ एक ऐसा एक संगठन है जिसे जीएवीआई, सीईपीआई, विश्व स्वास्थ्य संगठन(डबल्यूएचओ), यूनिसेफ(यूएनआईसीईएफ), निजी संस्थाओं, संगठनों और अलग–अलग सरकारों ने मिलाकर बनाया है। यह निजी कम्पनियों और सरकारों द्वारा बनायी गयी कुल  वैक्सीन की पहले से तय और निश्चित मात्रा को दूसरे गरीब और वैक्सीन की कमी वाले देशों में भेजने की जानकारी देता है। कोवैक्स के बार–बार जानकारी देने और माँगने के बावजूद भी फाएजर, मोडेरना और जॉन्सन एंड जॉन्सन सहित अन्य बड़ी कम्पनियों ने पहले से निर्धारित वैक्सीन का बहुत कम भाग (0 से 40 प्रतिशत) ही दिया। ऐसे में सरकारों का मुनाफाखोर (मौत के सौदागर कहना अनुचित नहीं होगा) कम्पनियों के खिलाफ कोई कार्रवाई न करना कई सवाल छोड़ता है।

दुनिया विश्व युद्ध, महामारी, मन्दियों और आपदाओं का सामना करते हुए और सबक लेते हुए आगे बढ़ती रही है। राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय आपातकाल में कुछ सरकारों ने निजी मालिकाने की खस्ताहाल कम्पनियों को अपने अधीन लेकर उसमें फिर से जान डाली है। कभी–कभी लोगों की भलाई के लिए भी ऐसा किया गया है। ऐसे में जब पूरी दुनिया चिकित्सा के आपातकाल की स्थिति में हो तो ऐसा करना जरूरी हो जाता है। कोरोना महामारी में ऐसा करके लाखों लोगों की जान बचायी जा सकती थी। अफसोस, ऐसा नहीं हुआ। आखिर देशों की सरकारों ने ऐसा क्यों नहीं किया ? आखिर, उन्हें ऐसा करने से कौन रोकता है ?

कीमत कौन चुकाता है ? किस कीमत पर ?

जुलाई 2021 के ‘पीपल्स वैक्सीन अलायन्स’ ने एक विश्लेषण में बताया कि फाएजर/ बायोएनटेक और मोडेरना ने अमरीकी सरकार से और यूरोपियन यूनियन के देशों से वैक्सीन की लागत से क्रमश: 41 अरब डॉलर और 31 अरब यूरो ज्यादा वसूले। यह वहाँ के लोगों की सामूहिक जमा पूँजी थी। जिस पर इन दैत्याकार कम्पनियों ने अप्रत्यक्ष रूप से डाका डाला। बहरहाल यही हालत भारत की भी है। यहाँ भी निजी कम्पनियों ने लागत से ज्यादा पैसे वसूले। यहाँ एक बात गौरतलब है कि पहले सार्वजनिक विश्वविद्यालयों और सरकारी संस्थाओं ने वैक्सीन को बनाकर और परीक्षण करके इन निजी कम्पनियों को दिया। और फिर इन्हें मुनाफे के लिए निरंकुश छोड़ दिया। दवाओं का उत्पादन सरकार के नियंत्रण में होने से वैक्सीन किफायती होती, और जनता की गाढ़ी कमाई बर्बाद न होती। लोगों के जरूरत के हिसाब से वैक्सीन के वितरण की सम्भावना बढ़ जाती। ऑक्सफैम, अमरीका की रिपोर्ट के अनुसार 18 दिसम्बर 2021 तक सिर्फ अमरीका में मारे गये(लगभग आठ लाख) लोगों की संख्या, द्वितीय विश्वयुद्ध (1939–1945) में मारे गये सैनिकों की संख्या (लगभग चार लाख सात हजार) का लगभग दुगुना है।

निजी कम्पनियों का मुनाफा

फाईजर कम्पनी ने अनुमान लगाया कि 2022 में कम्पनी का राजस्व 98 से 102 अरब डॉलर तक रहेगा। यह इस कम्पनी के 173 साल के इतिहास में सबसे ज्यादा है। 2021 में फाएजर/ बायोएनटेक ने 36–7 अरब डॉलर मुनाफा कमाया। यह किसी भी कम्पनी का वैक्सीन से कमाया गया अब तक का सबसे ज्यादा मुनाफा है। फाएजर का 2021 का कुल राजस्व, भारत के इस बार के स्वास्थ्य बजट का सात गुना है। ऐसा ही हाल भारत में कोविशील्ड बनाने वाली कम्पनी के मालिक पूनावाला का है जो भारत के पाँचवे सबसे अमीर व्यक्ति बन गये हैं।

न्यूजक्लिक की एक गणना के अनुसार प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से 50 सबसे गरीब देश– जहाँ पूरी दुनिया की कुल आबादी का 20–6 प्रतिशत लोग रहते हैं। उन्हें पूरी दुनिया में बनाये गये कुल वैक्सीन का सिर्फ 7–2 प्रतिशत ही मिला। मतलब इन देशों की पूरी आबादी के सिर्फ एक तिहाई हिस्से को ही वैक्सीन मिल सकी।

ग्लोबल कमीशन फॉर पोस्ट पेंडेमिक पॉलिसी के अनुमान के अनुसार यूरोप और एशिया के 80 प्रतिशत लोगों को मार्च 2022 तक, उत्तरी अमरीका के 80 प्रतिशत लोगों को मई 2022 तक पूरी तरह वैक्सीन लग जाएगी। वैक्सीनेशन की मौजूदा रफ्तार से अफ्रीका के 80 प्रतिशत लोगों को अप्रैल 2025 तक वैक्सीन लग पाएगी।

 कोरोना महामारी में एक तरफ मेहनतकश रोटी–रोटी के लिए मोहताज रहा तो दूसरी तरफ चन्द निजी मालिकाने वाली कम्पनियों ने दिन दूना और रात चैगुना मुनाफा कमाया।