हाल ही में ‘कमिटी अगेंस्ट असाल्ट ऑन जर्नलिस्ट’ (सीएएजे) नामक संस्था ने पूरी दुनिया में पत्रकारों की बढ़ती हत्याओं पर एक रिपोर्ट सार्वजनिक की है। सीएएजे स्वतंत्र पत्रकारों का एक समूह है जो लम्बे समय से पत्रकारों पर सत्ता पक्ष की तरफ से हो रहे हमलों के खिलाफ आवाज उठा रहा है। यह समूह दुनियाभर में व्यापक सर्वे के आधार पर पत्रकारिता से सम्बन्धित अपनी सालाना रिपोर्ट भी प्रकाशित करता है। दिसम्बर 2022 में आयी इसकी रिपोर्ट चैकाने वाली है। इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल की तुलना में इस साल पत्रकारों की हत्या में 19 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है। इस साल काम के दौरान 67 पत्रकारों की हत्या हुई। साथ ही 65 पत्रकारों के अपहरण हुए और 49 पत्रकारों को लापता घोषित किया गया जिनकी जानकारी किसी को भी नहीं मिल पायी।

भारत में पत्रकारिता के सिकुड़ते दायरे को समझने के लिए इस रिपोर्ट पर गौर करना जरूरी है। इस रिपोर्ट के अनुसार पत्रकारों के लिए सबसे खराब देशों की सूची में चीन के बाद दूसरा स्थान भारत का है। भारत में सत्ता पक्ष के खिलाफ लिखने या बोलने की आजादी पर पिछले कुछ सालों में तेजी से अंकुश लगाया गया है। इसका एक पहलू यह है कि पिछले साल लगभग 363 पत्रकारों पर फर्जी मुकदमा लगाकर जेल में डाल दिया गया। इनमें से कुछ पत्रकारों पर तो ‘यूएपीए’ जैसे देशद्रोह तक के मुकदमे भी लगाए गये। ये पत्रकार बेहद कम संसाधनों के साथ किसी क्षेत्र विशेष में पत्रकारिता करते थे। नेताओं के भ्रष्टाचार और सरकार की गलत नीतियों पर लिखने की वजह से इन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है।

उत्तर प्रदेश के योगी राज में स्वतंत्र पत्रकारिता पर सबसे ज्यादा हमले हुए हैं। सीएएजे की रिपोर्ट के अनुसार योगी के मुख्यमंत्री बनने से अब तक लगभग 12 पत्रकारों की हत्याएँ हो चुकी हैं और 138 पत्रकारों पर हमले हुए हैं। इन हत्याओं के पीछे रेत माफियाओं, सरकार के साथ जुड़े लठैत और पुलिस प्रशासन की मिलीभगत है। इन हमलों में तेजी मुख्यत: ‘सीएए’ और ‘एनआरसी’ कानून के खिलाफ चले आन्दोलन में देखने को मिली। यूपी में आन्दोलन के दौरान रिपोर्टिंग करते हुए कितने ही पत्रकारों को केवल उनके मुस्लिम होने के चलते गिरफ्तार किया गया। यूपी में पुलिस प्रशासन के कामों को कट्टर हिन्दुत्व मानसिकता किस तरह नियन्त्रित कर रही है यह इसका एक जीता–जागता उदहारण है। कोरोना महामारी के समय प्रशासन ने कितने ही पत्रकारों को जेलों में बन्द कर दिया था। यूपी में केवल 2020 में ही 7 पत्रकारों की हत्या की गयी। इनमें उन्नाव में अंग्रेजी के पत्रकार सूरज पाण्डे की हत्या शामिल है जिसे शुरुआत में पुलिस प्रशासन ने आत्महत्या साबित करने का पूरा प्रयास किया था। लेकिन बाद में इसके पीछे पुलिस विभाग के ही एक आदमी का हाथ पाया गया। देश की राजधानी से सटे गाजियाबाद में पत्रकार विक्रम जोशी की भी दिन–दहाड़े गोली मारकर इसी तरह हत्या कर दी गयी।

केवल यूपी ही नहीं देश के अन्य हिस्सों में भी कमोबेश यही स्थिति नजर आ रही है। मध्य प्रदेश के सीधी जिले में बीजेपी विधायक केदारनाथ शुक्ला के भ्रष्टाचार के खिलाफ खबर छापने पर पत्रकार को गिरफ्तार कर लिया गया। थाने में उन्हें निर्वस्त्र करके उनकी बेइज्जती की गयी। इसी तरह मध्य प्रदेश के ही भिण्ड जिले में स्वास्थ्य विभाग की सच्चाई दिखाने पर तीन पत्रकारों पर आपराधिक मुकदमे लगाये गये। ये तो महज कुछ उदाहरण हैं पूरे देश में पत्रकारों पर हमलों की घटनाओं की बाढ़ आयी हुई है। वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इण्डेक्स 2020 के अनुसार प्रेस स्वतंत्रता के मामले में भारत 142वंे नम्बर पर है। यह भारत मंे पत्रकारिता की दयनीय स्थिति को दर्शाता है।

आज सरकार आर्थिक संकट के दौर में पूँजीपतियों के मुनाफे की दर को बरकरार रखने के लिए तेजी से जन विरोधी नीतियों को लागू कर रही है। जाहिर है इनके खिलाफ जनता का आक्रोश भी समय–समय पर फूट रहा है। सरकार किसी भी तरह इन जन–आन्दोलनों को कुचलना चाहती है। जन–आन्दोलनों में जन–पक्षीय पत्रकारिता का बड़ा महत्त्व होता है। आज बहुत बड़े मीडिया घरानों पर मुट्ठी–भर पूँजीपतियों का दबदबा हो गया है जिससे आज वह आम जनता के किसी भी सरोकार से बहुत दूरी बना चुकी है। लेकिन सरकार के हजारों प्रलोभनों को त्यागकर आज भी छोटे–छोटे समूहों में पत्रकारिता के मूल्यों पर चलने वाले लोग काम कर रहे है। सरकार को सबसे ज्यादा खतरा इन्हीं से है। इसी कारण चाहे वह किसान आन्दोलन रहा हो या फिर ‘एंटी–सीएए’ आन्दोलन इस दौरान ही पत्रकारों पर सबसे ज्यादा बन्दिशें लगायी गयी हैं। पत्रकारों पर बढ़ते हमले लोकतंत्र के कम होते स्पेस को दिखाते हैं। किसी समाज में लोकतंत्र तभी स्वस्थ तरीके से काम कर सकता है, जब पत्रकारों को खुलकर बोलने–लिखने की और खासतौर से सरकारों के जन विरोधी कामों को उजागर करने की आजादी दी जाये।

–– आकाश