राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) की रिपोर्ट के अनुसार देश में 2017–18 में बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी पहुँच गयी, जिसका खुलासा 31 जनवरी 2019 को ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ अखबार ने किया। बेरोजगारी की यह दर पिछले 45 सालों में सबसे ऊँची है, जिसे सरकार ने छिपाने का भरपूर प्रयास किया।

यह आँकड़ा वास्तविक तस्वीर नहीं बताता। स्थिति और भी भयानक है, क्योंकि सांख्यिकी विभाग अपने सर्वे में बेरोजगारों की श्रेणी में उन्हीं लोगों को शामिल करता है, जो सक्रिय रूप से रोजगार खोज रहे हैं। जो लोग निराश होकर नौकरी खोजना बन्द कर देते हैं, उनको बेरोजगार की श्रेणी में नहीं रखा जाता है।

एनएसएसओ भारत के सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय का एक विभाग है, जिसके कर्मचारी घर–घर जाकर पूछताछ करके रिपोर्ट पेश करते हैं। यह विभाग सरकार के अधीन है। कोई भी सत्ताधारी पार्टी इसके आँकड़ों में फेरबदल कर सकती है। इसको रोकने के लिए 2005 में एक स्वतंत्र विभाग, राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग (एनएससी) बनाया गया, जिसका काम एनएसएसओ के आँकड़ों की पुष्टि करना है।

बात खुलकर सामने तब आयी, जब सरकारी दबाव के विरोध में एनएससी के अध्यक्ष पी सी मोहनन और जे वी मीनाक्षी ने इस्तीफा दे दिया। जीडीपी और श्रम शक्ति के आँकड़ों को लेकर सरकार से इन दोनों सदस्यों के काफी मतभेद थे। एनएससी में सात सदस्य होते हैं। घटना के समय इसके तीन पद खाली थे। चार सदस्यों में से दो ने इस्तीफा दे दिया, बाकी बचे दो लोग सरकार के ही लोग थे। प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबराय ने कहा कि ‘सरकार नयी रिपोर्ट जारी करेगी, जिसमें बताया जायेगा कि रोजगार में कितनी बढ़ोतरी हुई है।’ यह सम्भव है, क्योंकि सरकार द्वारा आँकड़ों के साथ बाजीगरी करना कोई मुश्किल काम नहीं है। दूसरी तरफ सुधार के नाम पर ज्यादातर मंत्रालयों की कार्यप्रणाली में फेरबदल कर दिया गया है।

टीसीए अनन्त की अध्यक्षता में एक नया पैनल बना, जिसको रोजगार की विश्वसनीयता के आँकड़ों को जमा करने की जिम्मेदारी दी गयी। जुलाई 2018 में पैनल को रिपोर्ट देनी थी। लेकिन उसने छह महीने का अतिरिक्त समय माँग लिया। इससे पहले जो लेबर रिपोर्ट आती थी, उसे बन्द कर दिया गया। इससे सरकार की मन्शा पर सवाल उठ रहे हैं।

सेन्टर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के अनुसार, 2018 में ही एक करोड़ दस लाख नौकरियाँ खत्म हुर्इं। वर्ल्ड इकॉनमी फोरम द्वारा 2018 में जारी रिपोर्ट के अनुसार देश के 15 से 30 साल की उम्र के आधे नौजवान न तो रोजगार कर रहे हैं और न ही पढ़ाई कर रहे हैं। आज ज्यादातर व्यावसायिक संस्थान बेरोजगार पैदा करने की मशीन बन चुके हैं। देश में हर साल एक करोड़ बीस लाख लोग बेरोजगारों की भीड़ में शामिल होते हैं। इन बेरोजगारों से सरकार आवेदन फॉर्म का दाम बढ़ाकर पैसा लूटती है। आज सरकार का कोई भी विभाग ऐसा नहीं है, जहाँ पर पद खाली न हों, लेकिन उनको भरने के लिए सरकार कोई कदम नहीं उठा रही है। संसद में सरकार ने बताया कि केन्द्र सरकार के विभागों में 4,12,752 पद खाली हैं। देश के 363 विश्वविद्यालयों में 63 हजार पद खाली हैं, और 36 हजार सरकारी अस्पतालों में 2 लाख से ज्यादा पद खाली हैं। पंजाब के सरकारी कालेजों में करीब 70 फीसदी पद खाली हैं। वहाँ 200 से ज्यादा शिक्षक संविदा पर रखे गये हैं।

श्रीकृष्ण महिला कॉलेज, बेगुसराय में 10,500 छात्राओं के लिए सिर्फ नौ शिक्षक हैं। यानी एक शिक्षक लगभग 1200 छात्रों को पढ़ाता है। सरकार इन सीटों को भरने के लिए कोई जहमत उठाना नहीं चाहती। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, त्रिपुरा में वर्तमान सरकार ने नयी सरकारी नौकरियों पर रोक लगा दी। मुख्य सचिव का बयान आया था कि सरकार का खर्च बढ़ गया है, इसलिए यह कदम उठाया गया है।

देश में बेरोजगारी किस तरह पैर पसारे हुए है, इसका अन्दाजा नौकरी के पदों के लिए छात्रों द्वारा किये गये आवेदनों से लगया जा सकता है। पिछले साल रेलवे के ग्रुप सी और डी के 90 हजार पदों के लिए करीब तीन करोड़ युवाओं ने आवेदन किया था। यूपी पुलिस सन्देशवाहक के 62 पदों के लिए जिसकी योग्यता पाँचवीं पास थी, 93 हजार आवेदन किये गये, जिसमें 50 हजार स्नातक, 28 हजार स्नातकोत्तर, सात सौ पीएचडी और सात हजार आवेदन उन छात्रों के थे, जो पाँचवीं से बारहवीं पास थे। ये मामूली पद करोड़ों छात्रों के लिए मृगमरीचिका समान हैं, जिसको सालों तक कड़ी मेहनत के बाद भी पाना असम्भव है।

बेरोजगारों की बढ़ती तादाद को देखकर व्यवस्था द्वारा कुछ ऐसे कदम भी उठाये जाते हैं, जो बेरोजगारी पर पर्दा डाल सकें। इन्हीं में से एक है ‘रोजगार मेला’, जिसका आयोजन समय–समय कराया जाता है। इससे लग सकता है कि सरकार बेरोजगारी को लेकर गम्भीर है। लेकिन सच्चाई कुछ और है। जनवरी 2019 में दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम में रोजगार मेला लगाया गया। वहाँ अलग–अलग कम्पनियों के 75 स्टाल लगे थे, जिन्होंने करीब बारह हजार नौकरियाँ देने का दावा किया था। साक्षात्कार के बाद ज्यादातर नौजवान निराश हो गये, क्योंकि बहुत कम नौजवानों को नौकरी मिली और जिन्हें मिली भी उनकी तनख्वाह बहुत कम थी। इस तरह के मेले वास्तव में कम्पनियों की स्वार्थपूर्ति का साधन होते हैं। कम्पनियों के पास सस्ते श्रम के लिए नौजवानों से मोल– भाव करने का ज्यादा विकल्प होता है। यहाँ चयनित लोगों के आँकड़े दिखाकर सरकार वाहवाही लूट लेती है।