राष्ट्रवाद या देश प्रेम एक ऐसा विमर्श है जो आजकल सार्वजनिक चर्चा में है। केन्द्र में सरकार चला रही भाजपा के नेता और कार्यकर्ता अपने को सर्वाधिक राष्ट्रभक्त बताने में हमेशा आगे रहते हैं। सर्वप्रथम हम एक बात स्पष्ट कर दें कि राष्ट्र की पहचान अगर सीमाओं से होती है तो दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्व उन सीमाओं के भीतर रहने वाले नागरिकों से बनता है। उन नागरिकों की एक पहचान भारतीय है तो दूसरी पहचान भी हो सकती है जो उनकी बोली रहन–सहन, खान–पान या संस्कृति से होती है। जैसे मलयाली, तमिल, बंगाली, कश्मीरी, पंजाबी, मराठी आदि। 
क्या भारतीय पहचान और दूसरी पहचान में कोई अन्तर्विरोध है? कोई टकराहट है? यदि ऐसा है तो उसका समाधान संघवाद है। देश प्रेम क्या है? मेरे आसपास रहने वालों के हित और मेरे कुछ हित साझा हैं एक जैसे हैं उन हितों की रक्षा देश प्रेम है। इतिहास में इसी भावना से प्रेरित होकर महापुरुषों ने इसे समझा और अलग–अलग तरह से ब्रिटिश साम्राज्यवाद से संघर्ष किया क्योंकि ब्रिटिश साम्राज्यवाद हमारे सामूहिक हितों के खिलाफ काम कर रहा था। आज जिस राष्ट्रवाद की चर्चा हो रही है, हम देखें कि सबसे पहले वह हमारे सामने कैसे आता है?
क्या उसमें बलिदानी तत्व है? है, लेकिन ज्यादातर वहाँ जबानी जमा खर्च से आगे नहीं बढ़ पाता है। वन्दे मातरम बोलकर, भारत माता की जय बोलकर कुछ लोग इसे व्यक्त करते हैं। कभी–कभी तिरंगा लहरा कर, यात्राएँ निकालकर संस्थाएँ या व्यक्ति इसको व्यक्त करते हैं। पाकिस्तान को चार गाली देना, उससे घृणा करना, उसका इजहार करना भी लोग राष्ट्रभक्ति का परिचय मान लेते हैं। हमारा मानना है कि उपरोक्त व्यवहार दिखावटी हैं क्योंकि उक्त व्यवहार करने वाले लोग देश के लिए कोई बलिदान नहीं करते हैं। देशभक्ति का प्रदर्शन करने वाले ज्यादातर ठेकेदार हैं, व्यापारी हैं, या नये–नये राजनीति में आये नेता हैं। उपरोक्त समुदायों के 95 प्रतिशत लोगों की बात हम करेंगे 5 प्रतिशत लोगों को इसलिए छोड़ रहे हैं कि अपवाद हर जगह पर होते हैं। सबसे पहले बात करें ठेकेदारों की। आजकल यह सबसे ज्यादा राजनीतिक लोगों के नजदीक रहते हैं। उनके कार्यकर्ताओं के तौर पर काम करते हैं–– ताकि सड़क, नाली बनाने का ठेका मिले। इनका ज्यादातर निर्माण त्रुटिपूर्ण है। भ्रष्टाचार की एक नदी वहाँ बहती रहती है। व्यापारी वर्ग दोहरे खाते रखता है। वह आयकर, सेवा कर, जीएसटी बचाने के लिए तरह–तरह के छल प्रपंच करता है। राजनेता तो भ्रष्टाचार के स्रोत हैं उनका पहला कदम चुनाव लड़ना ही काले धन से सम्भव हो पाता है। देशभक्ति के इस मॉडर्न शो में छात्रों और नौजवानों की भी एक बड़ी संख्या है। इनकी भी अधिकांश संख्या का यदि जाँच करें तो क्या यह अपने माता–पिता परिवार और पड़ोस के लिए, मोहल्ले के लिए कोई अच्छा काम करते हैं? यदि वह पड़ोस और मोहल्ले के लिए अच्छे हैं, तभी हम यह मान सकते हैं कि वह भविष्य में देशभक्त बन सकते हैं। एक और नये तरीके से देशभक्ति का विमर्श सामने आ रहा है। वह है भारतीय सेना की आँख मूँदकर तरफदारी व सराहना करना। परन्तु इस शोऑफ में सबसे बड़ा झोल यह है कि यह काम वह लोग कर रहे हैं जिनका पिछले तीन पीढ़ियों से सेना से कोई लेना–देना नहीं है और उनकी अगली पीढ़ी से भी कोई सेना में जाने की तैयारी नहीं कर रहा। मात्र जुबानी जमा खर्च का राष्ट्रवाद आजकल उफान पर है और आज जनता ने जिन राजनेताओं को देश की महत्त्वपूर्ण पदों की जिम्मेदारी दे रखी है वह हमारे आर्थिक और सामरिक हितों की रक्षा कर रहे हैं या नहीं, उनके निर्णयों को यदि आप सन्देह का विषय बनाएँ या जाँच पड़ताल करें तो फिर आपके सामने बहुत अधिक भारत माता की जय या वन्दे मातरम कहने वालों की सच्चाई सामने आ सकती है। इस दिशा में आगे बढ़ने से पहले हमें एक बात जान लेना चाहिए कि भारतीय पूँजीवाद एक भ्रष्ट पूँजीवाद है। जो पूँजीपति अपने एंटरप्रेन्योरशिप से किसी नये विचार से, टेक्नोलॉजी से व्यापार प्रारम्भ करते हैं उनकी इज्जत की जानी चाहिए। परन्तु अधिकांशत: भारत के बड़े उद्योगपतियों ने ऐसा नहीं करके केवल भारतीय राज्य के साथ साँठगाँठ करके प्राकृतिक सम्पदा को हथिया लिया है। हमें गम्भीरता से सोचना होगा कि चाहे वह सरकार कांग्रेस पार्टी की हो या भाजपा की, चन्द पूँजीपतियों के लिए उनके दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं। क्यों भारत की माइंस बिना उचित दाम दिये 50–50 सालों के लिए राजनेताओं के करीबी पूँजीपतियों को मिल जाते हैं? क्या यह बिना काले धन की लेनदेन किये हो सकता है? भारत सरकार फ्रांस की जिस कम्पनी से हवाई जहाज राफेल खरीदती है, वह कम्पनी अनिल अम्बानी की एक बेनाम–बेदम कम्पनी के शेयर 284 करोड़ रुपये में खरीदी है। भारत सरकार एचएएल जैसी सरकारी संस्था के होते हुए राफेल के मेंटेनेंस का सौदा बिना अनुभव वाली अम्बानी की डिफेंस कम्पनी को दे देती है! ध्यान रहे कि एचएएल ने तेजस जैसा जहाज बनाया है जिसकी आज सर्वत्र तारीफ हो रही है। भक्तों को इन सवालों से भारी परेशानी हो सकती है परन्तु अपना दिमाग गिरवी रखने वाले कभी देश और समाज के हित में नहीं हो सकते हैं। आपके मन में सवाल उठने चाहिए और उनकी पड़ताल करनी चाहिए। यह सवाल भी आपके मन में उठना चाहिए कि सरकार सार्वजनिक शिक्षा व सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च लगातार क्यों कम कर रही है। और दूसरी तरफ बड़े पूँजीपतियों को दिया गया ऋण वसूलने में इस सरकार की कोई दिलचस्पी क्यों नहीं है, उल्टा केन्द्र सरकार राष्ट्रीयकृत बैंकों को बजट से धन आवंटित कर रही है जिससे वे एनपीए से हो रहे घाटे को पूरा करें। पिछले 5 साल में 5,00,000 करोड़ रुपये से ज्यादा का एनपीए माफ किया जा चुका है। अध्ययन का विषय है कि क्या पिछले 5 साल में सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा पर 5,00,000 करोड़ खर्च किया? उपरोक्त तथ्यों की कसौटी पर कसकर के ही बोला जा सकता है कि कौन देशभक्त है। 
जनता और सेना दोनों को नुकसान देकर अपने मित्र पूँजीपतियों की धन–सम्पत्ति बढ़ाना कौन सा देश प्रेम है?