अमरीका के दक्षिणपंथी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने ह्यूस्टन में जैसे ही यह वक्तव्य दिया कि हम इस्लामिक आतंकवाद से मिलकर लड़ेंगे, भारत की भगवा मण्डली गदगद हो उठी। इसी के साथ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने माना कि तालिबान को उनकी जासूसी संस्था आईएसआई और उनकी सेना ने सैन्य प्रशिक्षण दिया। इन दोनों नेताओं के बारे में विस्तार से जानने पर पता चलता है कि किस तरह इन जनविरोधी नेताओं ने आतंकवाद के हौव्वे का इस्तेमाल धार्मिक लोगों को गुमराह करने के लिए किया है।
यह एक खुला रहस्य है कि अफगानिस्तान में 1980 के दशक में सोवियत संघ संरक्षित शासन को हटाने के लिए अमरीका ने एक षड्यंत्र के तहत सऊदी अरब और पाकिस्तान के साथ मिलकर तालिबान नामक मिलिशिया का निर्माण किया। इसके लिए धन की व्यवस्था अमरीका और सऊदी अरब ने मिलकर की। अरब में धार्मिक कट्टरता जिन्हें अब वहाँ बहावी या सल्फी कहा जाता है, फैलाने के लिए मौलवी प्रशिक्षित किये गये। पाकिस्तानी सेना ने चुने गये धार्मिक शिक्षार्थियों को सैन्य प्रशिक्षण दिया। परिणाम अफगानिस्तान में एक प्रगतिशील शासन का अन्त हो गया। धार्मिक कट्टरता और जाहिलों की पुरुषवादी सत्ता स्थापित की गयी। महिलाओं की प्रगति और स्वतंत्रता को हमेशा हमेशा के लिए कालकोठरी में डाल दिया गया। अरब में साउद वंश का शासन स्थायी हुआ और उसे अरब की लोकतांत्रिक क्रान्ति की हवा भी नहीं लगी। पाकिस्तान को अरबों डॉलर की सैन्य मदद मिली। बड़ी मात्रा में भ्रष्टाचार पनपा। उनके नेताओं ने विदेशों में अकूत धन सम्पदा बनायी। लेकिन इसी बीच तालिबान का नेता ओसामा बिन लादेन, जो बहुत शिक्षित व्यक्ति था, उसे लगा कि अमरीका अरब को लूट रहा है, तेल के कुओं का वास्तविक लाभ अमरीका को मिल रहा है। साउद वंश पर उसका पूरा प्रभाव है। परिणाम स्वरूप अमरीका पर 9/11 का हमला हुआ। अमरीका का वर्ल्ड ट्रेड टावर हवाई जहाज की टक्कर से गिरा दिया गया। इसके बाद अमरीका ने अलकायदा के खिलाफ लम्बी जंग की शुरुआत की। अलकायदा एक बेहद गुप्त संगठन है। उसके कारकुन अरब राष्ट्रों में जगह–जगह फैले हुए थे। इराक में सद्दाम के खिलाफ झूठे आरोप लगाकर अमरीका ने तख्तापलट किया। अपनी पक्षधर सरकार बनायी। इसके बाद सद्दाम की सेना के भागे हुए अधिकारियों ने आईएसआईएस का गठन कर लिया। यहाँ हम केवल यह चिन्हित करना चाहते हैं कि आज जिन आईएसआईएस और तालिबान संगठनों की बात होती है, उसे पैदा करने वाला खुद अमरीका है। लेकिन विश्व को भी इसके दुष्परिणाम भोगने पड़े। 
मध्य एशिया में कट्टरता और आतंकवाद के बढ़ने के साथ ही इजराइल में यहूदीवाद और भारत में हिन्दुत्ववाद भी बढ़ा। दुनिया भर के अन्दर ये सभी दक्षिणपंथी विचारधाराएँ हावी होती चली गयीं। दक्षिणपंथी सरकारों ने जनकल्याण के बजट की कटौती करके युद्ध की तैयारी में अपने संसाधनों को झोंक दिया है। इसके साथ ही अपने देश के पूँजीपतियों को पर्दे के पीछे और खुले रूप में भी व्यापक लाभ देना शुरू किया गया। अमरीका, रूस, इजरायल आदि के हथियार मनमानी कीमत पर बिकने लगे। इस व्यापार से मिलने वाले लाभ में भारी वृद्धि हुई। बहुराष्ट्रीय निगमों को तीसरी दुनिया के देशों में अपनी मनमानी शर्तों पर व्यापार करने की सुविधा मिली और जनता के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, पेंशन, न्यूनतम मजदूरी, सबको बीमा जैसी सुविधाएँ धीरे–धीरे ख़त्म कर दी गयीं। भारतीय संदर्भ में हम इसे ज्यादा स्पष्टता से देख रहे हैं। अदानी अम्बानी के लाभों में प्रतिवर्ष भारी वृद्धि हो रही है। आम जनता को धर्म के नाम पर भड़काने का संगठित प्रयास जिन ताकतों ने किया, अन्त में वास्तविक और भरपूर लाभ उन लोगों ने ही उठाया है। जनता इन लोगों के बहकावे में आ गयी। जो बिल्कुल सीधा–साधा धार्मिक आदमी था, वह कट्टर बनकर दूसरे धर्म के लोगों की जान का दुश्मन बन बैठा। धर्म की आड़ में नाकाबिल नेता देश चला रहे हैं। जनता की समस्याएँ बढ़ती जा रही हैं। जातिवादी और साम्प्रदायिक विचार नये–नये रूपों में जनता के बीच फैलायी जा रही है। नेताओं की सम्पत्ति में कई गुना वृद्धि हुई और दूसरी तरफ इन नेताओं के बहकावे में जो लोग आ गये और दंगे–फसाद में शामिल हुए, वे जेल में है, उनके ऊपर मुकदमे चल रहे हैं, उनके भाग्य का निर्णय अदालतों में लम्बित हैं।
जनसाधारण को सावधान रहने की जरूरत है। जनता के बुद्धिजीवियों को यह जिम्मेदारी उठानी होगी कि वह उसे शिक्षित करे ताकि वह इन धार्मिक उन्माद, दंगे–फसाद और आतंकवाद का शिकार न हो और देश को प्रगति की राह पर आगे बढ़ाने में अपना योगदान करें।