25 मार्च को प्रधानमंत्री मोदी ने पूरे देश में अचानक लॉकडाउन का एलान कर दिया।

कोरोना वायरस से देश का मध्यमवर्ग, पूँजीपति और मैनेजर, शासन–प्रशासन में बैठे तमाम पार्टियों के नेता और नौकरशाह (डीएम, एसपी, जज, तहसीलदार आदि) सब घबराये हुए हैं। बौखलाहट में वे तुगलकी फरमान जारी कर रहे हैं या किंकर्तव्यविमूढ़ अपने घरों में सुरक्षित बैठे रामायण–महाभारत का आनन्द ले रहे हैं। दूसरी ओर, देश की मेहनतकश आबादी का बड़ा हिस्सा 21 दिन के इस लॉकडाउन का मुकाबला करने के लिए सड़कों पर आ चुका है। बेरोजगार, बेबस, भूखे और लाचार लोग अपने दुधमुंहे बच्चों, गर्भवती औरतों और बूढ़े बुजुर्गों के साथ सैंकड़ों मील चलकर घर जा रहे हैं इस उम्मीद में कि शायद वहाँ जाकर वे भूखे नहीं मरेंगे या मरेंगे भी तो एक लावारिस मौत नहीं, अपनों के बीच।

क्या वाकई हम महाशक्ति बन गये हैं? तो फिर देश के विकास के दावे को खोखला साबित करती, लाखों–करोड़ों की यह पलायन करती भीड़ कौन है? इस बेबस आबादी में कौन लोग हैं जो अपने भूख से बिलबिलाते बच्चों के साथ गाँवों और छोटे कस्बों की ओर भागे चले जा रहे हैं? क्या अब भी उन्हें हिन्दू और मुसलमान की तरह देखा जा सकता है? उनकी कौम के रक्षक कहाँ हैं?

एक अनुमान के मुताबिक देश के शहरों में दिहाड़ी मजदूरों, मौसमी मजदूरों, असंगठित क्षेत्र के मजदूरों और छोटे कारोबारियों की कुल संख्या लगभग 15 करोड़ है। देश में 20 करोड़ जनधन खाते हैं और लगभग 2.8 करोड़ सीजनल मजदूर हैं। सरकार द्वारा घोषित लॉकडाउन कर्फ्यू इनके लिए मौत का फरमान बनकर आया है। आइये इनके सड़क पर आ जाने की वजह और इनकी परेशानी की गम्भीरता को समझने की कशिश करें।

दिहाड़ी मजदूर जो रोज काम की तलाश में निकलता है, रोज पानी पीने के लिए रोज कुँआ खोदने को मजबूर है। इन्हें शहरों में हर सुबह ‘लेबर चैराहों’ पर अपने औजारों के साथ काम की बाट जोहते खड़े देखा जा सकता है। जब कोई कार या स्कूटर चैराहे पर रुकता है तो उनका रेला उसे घेर लेता है। सौभाग्यशाली काम पा जाते हैं, बाकी फिर इन्तजार करने लगते हैं। इन्हें रोजाना काम नहीं मिल पाता। बहुत अच्छे वक्त में भी इन्हें महीने में 15–20 दिन से ज्यादा काम मयस्सर नहीं हो पाता। 200–500 रुपये रोज। ये घर भेजने के लिए तभी कुछ पैसे बचा पाते हैं, जब खुद बेहद खराब परिस्थितियों में रहें। इसीलिए दड़बेनुमा कमरों में ठँुसकर कई मजदूर एकसाथ रहते हैं, सस्ते ढाबों पर खाना खाते हैं और बीमारी की हालत में भी काम करते रहते हैं। बहुतरे मजदूर सड़कों पर भी सोने को मजबूर होते हैं।

इनमें से बहुत सारे मौसमी मजदूर होते हैं जो अक्सर फसल की बुवाई और कटाई के बीच तीन–चार महीने के लिए शहर में कमाने आ जाते हैं। क्योंकि छोटी खेती या खेत मजदूरी से इनका साल भर का खर्च नहीं चल पाता। छोटी खेती को गायों और सांडों के आवारा झुण्डों द्वारा तबाह कर दिये जाने के चलते भी शहर आकर मौसमी मजदूरी करना इनकी मजबूरी बन गयी है। ये लोग रिक्शा चलाने से लेकर रंगाई, पुताई, चिनाई जैसे तमाम काम करते हैं। इनमें से अधिकांश मजदूरों के परिवार गाँव में रहते हैं इसलिए शहर में इनके स्थायी ठिकाने नहीं होते हैं। इनके राशन कार्ड, जन–धन खाते सभी गाँव के पते पर होते हैं। शहरों में इनकी कोई जमीन, कोई आधार, कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं होती है।

लॉकडाउन ने इनके रोजगार की सम्भावना को खत्म कर दिया है। होली के वक्त ये अपनी सारी बचत गाँव–घर पर दे चुके थे, इसलिए लॉकडाउन के समय संकट का सामना करने के लिए इनके पास कुछ भी नहीं है। हर दिन वे भुखमरी के और करीब चले जा रहे हैं। सरकारी नुमाइन्दे, मंत्री और पूरा अमला इनकी इन औचक परेशानियों को समझ पाने में अक्षम है या समझना नहीं चाहता है। सरकारी सहायता अगर उन्हें राशनकार्ड या जन–धन खाते के जरिये मिलेगी भी तो गाँव के पते पर। शहर में उनकी खैर–खबर लेने वाला कोई नहीं है। ये सभी शहरों में किराये के मकान में बहुत खराब परिस्थिति में रहते हैं और बहुतों को मकान मालिकों ने निकाल दिया है।

आखिर उन्होंने तय कर लिया कि उन्हें भूख से नहीं मरना है, लावारिस मौत नहीं मरना है भले ही वे कोरोना से मर जायें नतीजतन वे सड़कों पर उतर आये।

असंगठित क्षेत्र के मजदूर छोटे–छोटे बिखरे हुए धंधों में लगे मजदूर हैं। पीस रेट पर काम करने वाले, ठेके पर काम करने वाले, दुकानों के मजदूर आदि इसी श्रेणी में आते हैं। इनकी स्थिति भी दिहाड़ी मजदूरों से बेहतर नहीं होती है लेकिन ये दिहाड़ी मजदूर जैसी अनिश्चितता के शिकार नहीं होते। इनके पास कुछ दिनों की जरूरत पूरी करने लायक बचत होती है लेकिन लॉकडाउन की अनिश्चित स्थिति में इनके ऊपर भी संकट के बादल मंडराने लगे।

केवल वही दुकाने खुली हैं जो आवश्यक सेवाओं और वस्तुओं से जुडी हैं। जैसे–– मेडिकल स्टोर, अस्पताल, सब्जी–राशन की दुकानें आदि। बाकी सब बन्द हैं। लेकिन पुलिस की बदसलूकी और संवेदनहीनता के कारण आवश्यक वस्तुओं से जुड़ी दुकानों और कारखानों में काम करने वाले भी काम पर नहीं जा पा रहे हैं–– उन्हें रास्ते में रोककर अपराधी की तरह पीटा जा रहा है। इसके अलावा लॉकडाउन का समय बढ़ने की भी सम्भावना हैं–– सरकारी राहत पैकेज का तीन महीने का एलान होने से ये आशंकाएँ और गहरी हो गयी हैं। परिणामस्वरूप अंसगठित क्षेत्र के मजदूर भी पलायन को मजबूर हैं। इसका सीधा असर शहरों में आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन पर पड़ेगा और संकट का दायरा सुरक्षित बैठे मध्यम वर्ग तक पहुँच सकता है।

लॉकडाउन ने छोटे और कुटीर उद्योगों की कमर तोड़ दी है। लॉकडाउन के कारण न उनके मजदूर काम पर पहुँच पा रहे हैं, न कच्चा माल मिल पा रहा है और न तैयार माल का उठान है। यातयात बन्द है। पुलिस ड्राइवरों को पीट रही है। सड़क किनारे के ढाबे बन्द होने से उन्हें खाने के लाले पड़ गये हैं। रास्ते में खराब हुए ट्रकों की मरम्मत नहीं हो पा रही है। इस क्षेत्र में काम करने वाले लाखों मजदूरों के सामने संकट की स्थिति है। प्रधानमंत्री की अपील के बाद मालिक उन्हें कोई पैसा नहीं दे रहे हैं, न ही मकान मालिक बिना किराया लिए उन्हें रखने को तैयार हंै।

बड़े उद्योगों में भी लॉकडाउन का ज्यादा असर ठेका मजदूर पर पड़ा है। पलायन करते लोगों में ठेका मजदूरी पर मारुति जैसे उद्योग में काम करने वाले भी देखे गये हैं। इनके पास कोई रजिस्ट्रेशन कार्ड नहीं है। संकट की इस घड़ी में ठेकेदार गायब हैं। इन मजदूरों कीे कई महीनें की मजदूरी ठेकदारों पर बकाया है। पर लॉकडाउन का फायदा उठाकर वे गायब हैं और बेबस मजदूर सड़कों पर धक्के खाने के लिए मजबूर हैं।

तो यह है सड़कों पर पलायन करती भीड़, शहरों के सबसे गरीब मजदूर। बेरोजगारी, भूख और बेबसी ने उनके लिए पलायन के अलावा कोई रास्ता नहीं छोडा। अचानक अपने देश में ही उन्हें हासिये पर फेंक दिया गया है। लॉकडाउन ने रातों–रात उन्हें अपने ही देश में शरणार्थी बना दिया है, रेन बसेरे और सड़कें उनसे भर गयी हैं। मकान–मालिक उन्हें मकानों से खदेड़ रहे हैं क्योंकि वे किराया नहीं भर सकते। पुलिस उन्हें कैम्पों और सड़कों से खदेड़ रही है। देश के रहनुमा उनके साथ खिलवाड़ कर रहे हैं कभी घर पहुँचाने का आदेश देते हैं, कभी रास्ते में रोककर खड़ा कर लेते हैं तो कभी वापस लौटने के लिए कहते हैं। उन्हें इनके जीवन की कोई चिन्ता नहीं है। कमाल है, अपने घरों में ‘वर्क फ्रॉम होम’ करता, नेटफ्लिक्स के रोमांच का मजा लेता मध्यम वर्ग उल्टा उन्हें ‘खतरा’ समझ रहा है।

इन गरीबों के दिल टूट चुके हैं, कलेजे चाक हैं, आने वाले कल के नाम पर केवल अंधेरा है उनकी हताशा और निराशा चरम पर है। दूसरी ओर देश का अमीर वर्ग अपने घरों में छुट्टी मना रहा है, गुलछर्रे उड़ा रहा है।

होली जा चुकी है और रबी की फसल मण्डी में आ गयी है। अतिरिक्त श्रम आ जाने से गेहूँ की फसल काटने, उसकी निकासी, मण्डी में बिक्री के लिए लोड–अनलोड करने के लिए मजदूरी में भारी गिरावट आयी। जो भूमिहीन खेत मजदूर खेत की कटाई करके साल भर का अनाज जमा करते थे। वे आस लगाये खेतों की ओर ताकते रह गये बहुतों को अनाज नहीं मिला। शहरों से बड़ी संख्या में मजदूरों का गाँव की ओर पलायन अपने साथ कोरोना के वायरस को भी गाँव में ला सकता हैं। गाँव बारूद के ढेर पर बैठे हैं। गाँव में पहुँचने वाले इन लाखों लोगों के साथ क्या होगा? उन्हें कैसे दूसरों से अलग–थलग रखा जायेगा? उनके खाने–रहने की क्या व्यवस्था होगी? सरकार की इसको लेकर कोई तैयारी नहीं है। उन्हें स्कूलों में कैद कर देने, गाँव में घुसने से जबरन रोकने और उनके ऊपर कीटनाशक के छिड़काव करने जैसी दिल दहला देने वाली खबरें ही आती रही हैं, किसी इन्तजाम की नहीं।

इसके अलावा गाँव के गरीबों का बड़ा हिस्सा भूमिहीन खेत मजदूर हंै जिनके पास शायद ही कोई अतिरिक्त सरकारी मदद पहुँची हो। भूखे लोगों द्वारा खेतों में से आलू की फसल निकाल लेने के बाद बच गये आलू बीनकर खाने की खबरें आ रही हैं। बिहार की मुसहर जाति के लोग भुखमरी के शिकार हैं। शहरों से भी लोगों के गाँव पहुँचने पर खाने का संकट और बढ़ गया है। गाँव के लुहार, बढ़ई, राजमिस्त्री, जुलाहे, मण्डी के मजदूर, गाँव के र्इंट–भट्टे के मजदूरों पर इसका असर जानलेवा होगा।

सरकार की निश्चिन्तता

सरकार निश्चिन्त है। लॉकडाउन का एलान करने से पहले कोई तैयारी नहीं की गयी थी, फिर भी सरकार निश्चिन्त रही। नोटबन्दी की तरह सरकारी विभागों, केन्द्र और राज्य की सरकारों के बीच कोई तालमेल नहीं था। हमारे ‘आत्ममुग्ध’ प्रधानमंत्री ने अपने मन्त्रियों, प्रदेशों के मुख्यमन्त्रियों, प्रशासनिक अधिकारियों और स्थानीय लोगों के साथ कोई गम्भीर चर्चा करना जरूरी नहीं समझा है। बादशाह ‘तुगलक’ की तरह कोरोना के फैलाव पर केवल ‘लॉकडाउन’ का फरमान जारी कर निश्चिन्त हो गये।

30 जनवरी तक पूरी दुनिया कोरोना वायरस के फैलाव और महामारी की गम्भीरता को समझ गयी थी। लेकिन हमारे देश में पहले तो इसे लेकर सरकार बिलकुल भी गम्भीर नहीं दिखी। उलटे वाट्सअप यूनिवर्सिटी पर यह दावे किये जाते रहे कि भारतीयों पर इसका कोई असर नहीं होगा, कि हमारी इम्युनिटी बहुत अच्छी है कि हम पवित्र गौमूत्र और विभिन्न देशी नुस्खों से तथा थाली पीटकर और मोमबत्ती जलाकर इसे मार भगायेंगे। इस महामारी से निपटने की तैयारी करने के बजाय हमारी सरकार ट्रम्प, का स्वागत करने सीएए, एनआरसी, एनपीआर जैसे मुद्दों पर अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने, मध्यप्रदेश में एमएलए खरीदने और सरकार गिराने में लगी रही।

सरकार ने विदेश यात्राओं पर कोई रोक नहीं लगायी और विदेशों से आने वालों की कोई मुकम्मल जाँच–पडताल नहीं की। कोरोना बीमारी हवाई जहाजों से आती रही और सरकारी अधिकारी मुसाफिरों को आइसोलेट (अलग–थलग रखने) करने और उनकी जाँच करने के बजाय उनके हाथों पर ठप्पे लगाकर उन्हें बाहर का रास्ता दिखाते रहे। फिर एसी ट्रेनों और कारों के जरिये इन लोगों के साथ यह बीमारी देश के विभिन्न इलाकों में पहुँचती रही। इस दौरान पंजाब में ही 70–80 हजार लोग विदेश से आये और उनमें से बहुतों के बारे में सरकार को अभी तक कुछ नहीं पता है। गायिका कनिका कपूर जैसी कहानी सामने आने पर इस बात का एहसास होता है कि सरकार शुरू से ही कितनी निश्चिन्त थी, जो कोरोना बीमारी के बावजूद विदेश से लौटकर लखनऊ में भाजपा नेताओं और मंत्रियों के साथ पार्टी करती रही। जब चारों ओर उच्च वर्ग के लोगों और देश के बड़े नेताओं के गैर–जिम्मेदाराना व्यवहार पर थू–थू होने लगी, तब सरकार के चेहरे पर कुछ चिन्ता दिखी।

चारों ओर घबराहट फैली थी। सरकार के पास इस इमरजेंसी के लिए कोई तैयारी नहीं थी–– न टेस्ट की सुविधा, न अस्पताल में बेड, न वेंटिलेटर, न मास्क––—फिर भी सरकार फ्रिकमन्द नहीं थी।

हर फैसला लेते वक्त केवल उस अमीर वर्ग के बारे में ही सोचा गया जिसने इस बीमारी को विदेश से लाया और फैलाया। उनके पास घर थे उन्हें “वर्क फ्रॉम होम” करना था। पर जिनके पास घर नहीं थे, जो रोज कमाकर रोज खाते थे, जिनकी आमदनी का कोई निश्चित जरिया नहीं था, को कम्पनीयों और ठेकेदारों के गुमनाम मजदूर थे, जो पराधीन और निर्बल थे उनके बारे में सरकार निश्चिन्त रही और यही वर्ग इस त्रासदी का सबसे बड़ा शिकार बना है। इस वर्ग की तबाही इस बात की गवाह है कि हमारे देश के हुक्मरान इस आजाद मुल्क में भी मजदूर वर्ग के लिए विदेशी शासकों जैसे हैं।

लाखों लोगों को सड़कों पर देखकर भी सरकार पर कोई असर नहीं है। रोज नयी घोषणाएँ और नये फरमान आ रहे हैं। एक दिन उन्हें घर पहुँचाने का एलान होता है, दूसरे दिन जहाँ हैं वहीं रोकने का। दिल्ली से चली बसें बुलन्दशहर के बाहर रोक दी जाती हैं। केन्द्र और राज्य सरकारें कह रही हैं कि आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं, आपके भोजन का इन्तजाम हो रहा है, राशन फ्री दिया जायेगा, पर लोगों को उन पर भरोसा नहीं रहा है। उनके पास भरोसा करने का कोई आधार भी नहीं है। उन्हें भी पता है कि कोरोना की कीमत किसे चुकानी है।

पहला सरकारी पैकेज

केन्द्र सरकार ने बड़े गाजे–बाजे के साथ 1 लाख 70 हजार करोड़ रूपये के पहले कोरोना राहत पैकेज का ऐलान किया। जब अगले दिन इसका विश्लेषण सामने आया तो पता चला कि इसमें से 70 हजार करोड़ तो पहले ही खर्च हो चुका है। बाकी 1 लाख करोड़ में बहुत सारा सार्वजानिक वितरण प्रणाली केे राशन का कुछ किसान सम्मान निधी का रूटीन खर्च का पैसा है। यानी वास्तविक रकम नाममात्र की थी। लेकिन यह ऊँट के मुँह में जीरा जैसी रकम भी वास्तविक जरूरतमन्दों तक नहीं पहुँची।

इस संकट के समय गरीबों के साथ दूसरा सबसे भद्दा मजाक खुद वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने किया है, उन्होंने मनरेगा मजदूरी की दरें 182 से बढ़ाकर 202 करने की घोषणा की है। अगर देश के कानून का थोड़ा भी सम्मान करने वाली सरकार सत्ता में होती तो इस बढोतरी की धोषणा के बाद शायद वित्तमंत्री जेल जाती क्योंकि यह मजदूरी न्यूनतम मजदूरी से भी कम है। दूसरे मनरेगा के तहत वही काम आते हैं जिनमें एक साईट पर 15 मजदूर काम करें। लॉकडाउन में धारा 144 लागू होने के चलते यह सम्भव नहीं है। ऐसी बेबसी और लाचारी की स्थिति में कोई ठोस मदद करने के बजाय गरीबों को एक झूठी उम्मीद देना उनके साथ फरेब है, निर्दयता है।

गरीब लोग आज भगवान के रहमो–करम पर छोड़ दिये गये हैं। उनके लिए कोई सरकार नहीं रह गयी है। लोग शायद इसीलिए खामोश रहे कि उन्हें उम्मीद है कि 21 दिनों के बाद लॉकडाउन का अन्त हो जायेगा और फिर सब ठीक हो जायेगा। लेकिन लॉकडाउन बढ़ते–बढ़ते जून तक चला गया। अगर महामारी नियंत्रित नहीं होती और गाँवों में फैल जाती है, जहाँ सरकारी या निजी अस्पतालों की कोई व्यवस्था नहीं है तो वहाँ क्या होगा?

घर लौटते मजदूरों की भूख बीमारी से तथा सड़क दुर्घटना में मौतों की रोज खबरें आ रही हैं। मेरठ में एक बेबस मजदूर, एक बाप जब अपने भूख से बिलखते बच्चों का दु:ख नहीं देख सका तो उसने आत्महत्या कर ली। ऐसी घटनाएँ हर रोज हो रही हैं लेकिन ये कभी भी कोरोना के नाम पर दर्ज नहीं होगी। जिस तबाही का हमने जिक्र किया है यह तो उस ‘विकास’ की देन हैं जिसका बीज आज से 20–30 साल पहले बोया गया था। जिसने एक तरफ अरबपति पैदा किये ओर दूसरी तरफ वंचितों की भारी आबादी, जो आज सडकों पर सबके सामने है! हमारा समाज आज एक अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहा है– कोरोना महामारी और भुखमरी–– दोनों आज वास्तविक संकट बनकर हमारे सामने मुँह बाये खड़े हैं। आज गरीब दिहाड़ी मजदूर, असंगठित क्षेत्र के मजदूर, भूमिहीन और छोटे किसान, भूमिहीन बटाईदार किसान और खेत मजदूर, प्रवासी मजदूरों, बेघर और बेकार लोगों और छोटे उद्योग–धन्धों पर यह कहर टूट रहा है लेकिन इसकी लपटें अपने बिलों में छिपे बैठे मध्यमवर्ग और उच्चवर्ग के लोगों तक को अपनी चपेट में लेने के लिए बेचैन हैं। वे लोग कब तक चैन से रह पायेंगे, अभी कहना मुश्किल है। सताये हुए निर्बलों के दिलों में अन्दर ही अन्दर सुलग रही आग कल किस–किस को भस्म करेगी–कौन जानता है। लेकिन कितने आश्चर्य की बात है संकट के इस दौर में भी निजी सम्पत्ति की व्यवस्था का हमारे देश में कितना सम्मान किया जा रहा है। निजी अस्पताल अपनी लूट जारी रखे हुए हैं, राजमार्गों के किनारे खाली पड़े बहुमंजिला फ्लैटों में बेघरों को बसाने के बारे में नहीं सोचा जा रहा है। गोदामों में 8 करोड़ टन अनाज भरा पड़ा है और जून के शुरुआत में खबर आयी कि पिछले चार महीने में 65 लाख टन अनाज भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के गोदामों में सड़ा दिया गया, लेकिन उसे जरूरतमन्द लोगों तक पहुँचाया नहीं गया। लोगों को भूखा मारने का जिम्मेदार कौन है? अपने फैसले से आयी तबाही पर प्रधानमंत्री ‘माफी’ माँगता है, पर इस संकट से निकलने का कोई ठोस उपाय नहीं सोच पाता।

क्या ऐसी क्रूर व्यवस्था को कायम रहने का हक है?