18 जुलाई 2018 को गुजरात के भरूच जिले के किसानों ने जापान के प्रधानमंत्री को एक पत्र भेजा। उस पत्र में बुलेट ट्रेन परियोजना को बन्द करने के लिए कहा गया था। इस परियोजना को बन्द करके ही किसानों को तबाही से बचाया जा सकता है। सरकार ने किसानों के भारी विरोध के बावजूद परियोजना को हरी झंडी दे दी। भरूच जिले के 27 गाँवों के किसान सरकार के इस कदम से भारी आक्रोश में हैं। इस जिले में 140 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण होना है। जिसे किसानों ने देने से मना कर दिया है। बुलेट ट्रेन परियोजना अहमदाबाद से मुम्बई तक 509 किलोमीटर लम्बी है। दोनों राज्यों से कुल 1200 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण होना है। अधिग्रहण शुरू कर दिया गया है। इसमें कुछ जमीन गोदरेज समूह की भी जायेगी और कुछ मार्ग समुद के अन्दर से होकर गुजेरेगा। इस परियोजना से गुजरात के 195 और महाराष्ट्र के 104 गाँवों की जमीनें छीनी जाएँगी।

भरूच जिले की घटना से लगभग 15 दिन पहले खेड़ा जिले के किसानों ने राज्य के किसानों को गोलबन्द करने के लिए ‘खेडुत सम्पर्क अभियान’ की शुरुआत की थी। लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए गुजरात के 192 गाँवों के किसानों को संगठित करना इसका लक्ष्य है। इस अभियान में शामिल किसानों ने इस परियोजना के खिलाफ कोर्ट में याचिका दायर की है। खेड़ा जिले के ज्यादातर किसान सब्जी की खेती करते हैं। इनकी जमीन बेहद उपजाऊ है। इसलिए किसान अपनी जमीन को बचाने के लिए उग्र अभियान चला रहे हैं।

18 जून 2018 को गुजरात के सूरत जिले के किसानों ने सियाल गाँव से कलेक्ट्रेट कार्यालय तक पैदल जुलूस निकाला। जुलूस के दौरान कार्यालय की तरफ जाने वाली सड़कें किसानों से भर गयी थीं। जुलूस के दौरान किसानों ने “बुलेट ट्रेन नहीं चलने देंगे” जैसे नारे लगाये। किसानों के हाथों में ऐसे ही नारों से लिखे हुए बैनर भी थे। इस जुलूस में 27 गाँवों के सैंकड़ों किसान शामिल हुए। महाराष्ट्र के आम और चीकू की खेती करने वाले किसानों ने भी जमीन देने से मना कर दिया है। किसान इस परियोजना के खिलाफ हैं, क्योंकि उन्हें उपजाऊ जमीन छिन जाने का डर है।

14 सितम्बर, 2017 को अहमदाबाद में बुलेट ट्रेन परियोजना का उद्घाटन किया गया था। उद्घाटन के दूसरे दिन ही किसान और आदिवासी संगठनों ने मुम्बई के पालघर जिले के बोईसर रेलवे स्टेशन पर प्रदर्शन शुरू कर दिया। थोड़ी देर में किसानों और आदिवासियों की भीड़ से पूरा स्टेशन खचाखच भर गया। उसके बाद प्लेटफार्म से किसान और आदिवासी संगठनों ने एकजुट होकर स्टेशन से गुजरने वाली ट्रेनों को काले झंडे दिखाये। पूरा स्टेशन किसानों के “बुलेट ट्रेन हटाओ” और “लोकल ट्रेन लाओ” जैसे नारों से गूँजने लगा और ऐसे नारों के बैनरों से पट गया।

कई गाँवों में किसानों ने परियोजना के लिए सर्वे करने आयी टीमों को भगा दिया। किसानों ने वलसाड जिले के वाघलधरा क्षेत्र से एक सर्वेक्षण टीम को दो बार वापस लौटाया। सरकार ने किसानों को सर्वेक्षण के काम के बारे में कोई पूर्व सूचना नहीं दी जाती। उसके बावजूद सर्वेक्षण टीमों को गाँवों में भेजा जा रहा है। भूमि अधिग्रहण कानून के अनुसार किसानों को  60 दिन पहले ही सूचना दे देनी चाहिए थी। लेकिन सरकार अपनी मनमानी कर रही है।

आखिर इन इलाकों के किसान जमीन अधिग्रहण के खिलाफ क्यों हैं? क्या वे बुलेट ट्रेन के खिलाफ हैं? दरअसल किसानों और आदिवासियों के पास सम्पति के नाम पर केवल खेत–खलिहान ही हैं। खेती से वे अपने लगभग सभी खर्चे चलाते हैं। सरकार और किसानों के बीच में दूरी बहुत अधिक बढ़ गयी है, क्योंकि सरकार ने इस परियोजना से प्रभावित होने वाले किसानों से कोई बात नहीं की है। किसानों की पहली माँग यह है कि 2013 के जमीन अधिग्रहण कानून को लागू किया जाये। इस कानून के मुताबिक उपजाऊ जमीन अधिग्रहण के लिए 70 फीसदी किसानों की सहमति होनी चाहिए। अधिग्रहण से पहले किसानों के पुनर्वास की व्यवस्था होनी चाहिए। उपजाऊ जमीन के बजाय बंजर जमीन का अधिग्रहण किया जाये। जमीन का अधिग्रहण तभी किया जाये, जब सरकार अधिग्रहण करने वाली जमीन पर जनकल्याण सम्बन्धी कामकाज जैसे स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, बैंक, आदि बनाना चाहती हो। जमीन की कीमत किसानों से बात करके तय की जाये। किसानों को जमीन की कीमत का 4 गुना मुआवजा दिया जाये। उनकी एक माँग यह भी है कि जहाँ परियोजना बनेगी उन इलाकों में किसानों को नौकरी देने की गारन्टी हो, जिससे उनका भविष्य सुरक्षित हो सके। लेकिन सरकार की मंशा कुछ और ही है।

बुलेट ट्रेन परियोजना में कुछ जमीन गोदरेज समूह की भी ली जायेगी। गोदरेज समूह अपनी जमीन देने से मना कर रहा है। गोदरेज समूह का कहना है कि उस जमीन की कीमत  800 करोड़ रुपये है। अगर सरकार को जमीन चाहिए तो उसे इतनी कीमत अदा करनी होगी। इससे साफ जाहिर होता है कि गोदरेज समूह अपनी शर्तों पर जमीन बेचना चाहता है, सरकार की शर्तों पर नहीं। जबकि सरकार किसानों की जमीन अपनी शर्तों पर खरीदना चाहती है।

सरकार बुलेट ट्रेन परियोजना के लिए 1,10,000 करोड़ रुपये खर्च कर रही है। इसमें से 88,000 करोड़ रुपये का कर्ज जापान सरकार से लिया गया है। यह खर्च हमारे शिक्षा बजट से भी ज्यादा है। किराया बेहद महँगा होने के चलते किसान–मजदूर बुलेट ट्रेन में यात्रा के बारे में सोच भी नहीं सकते। इस ट्रेन का किराया 3000 रुपये या इससे ज्यादा हो सकता है। इसका मतलब है कि इस ट्रेन से केवल अमीर ही यात्रा करेंगे। दरअसल यह परियोजना पूँजीपतियों, व्यापारियों और उच्च मध्यम वर्गीय लोगों के लिए है। सरकार लोकल ट्रेनों की खस्ता हालत पर भी ध्यान नहीं दे रही है। आये दिन ट्रेन हादसे हो रहे हैं। कभी ट्रेन पटरी से उतर रही है तो कहीं ट्रेन का डिब्बा पलट रहा है। ट्रेनें 10–15 घंटे देरी से चल रही हैं। उनमें लोग बहुत बुरी हालत में लटक कर सफर करते हैं। कोई गेट से लटकता मिलेगा तो कोई ट्रेन के डब्बे की छत पर बैठा मिलेगा। एक्सप्रेस ट्रेनों के जनरल डिब्बों में तो कई लोगों को शौचालय तक में घुसकर यात्रा करनी पड़ती है। किसानों से यह बात छिपी हुई नहीं है कि सरकार जनता को इन्सान ही नहीं मानती। सिर्फ मुट्ठीभर धनी लोगों के हित में काम करती है। अभी कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री का बयान भी आया था कि मुझे उद्योगपतियों के साथ खड़े होने में डर नहीं लगता। मतलब प्रधानमंत्री जी जनता के साथ नहीं हैं, जो देशी–विदेशी पूँजीपति कहेंगे, वही वे करेंगे।

राजनीतिक पार्टी शिवसेना ने किसान आन्दोलन को समर्थन देने की बात कही है, जबकि यही शिवसेना महाराष्ट्र में बीजेपी सरकार को समर्थन भी दे रही है और पूरी तरह जमीन कब्जाने वाली बीजेपी सरकार के साथ है। अगर इसे किसानों की इतनी चिन्ता होती तो अब तक सरकार का दामन छोड़ चुके होते। बुलेट ट्रेन परियोजना को लेकर सरकार और किसान आमने–सामने आ गये हैं। किसानों का विरोध सरकार पर भारी पड़ रहा है क्योंकि सरकार अभी तक बहुत कम जमीन का अधिग्रहण कर पायी है। एक तरफ सरकार जमीन का अधिग्रहण करने के लिए एड़ी–चोटी का जोर लगा रही है तो दूसरी तरफ किसान भी अधिग्रहण के खिलाफ लामबन्द हो रहे हैं। किसानों के पास अब एक ही रास्ता है कि वे आपस में संगठित हों और सरकार के किसान विरोधी फैसले का डटकर मुकाबला करंे।