बोलचाल की आम भाषा में श्रम करने का अर्थ शारीरिक परिश्रम करने वाले काम से लिया जाता है। आम जनता श्रम के अन्य रूपों पर बहुत कम ध्यान देती है। लूट का अर्थ है–– श्रमिकों से अधिक काम लेना और कम भुगतान करना तथा इस प्रकार लूट का अर्थ अपना मुनाफा कमाने से लिया जाता है। ऐसी परिस्थितियों में हमें लूटने वाले और लुटे जाने वाले के रूप में दो सिरे आमने–सामने खड़े नजर आते हैं। लेकिन पूँजीवादी लूट का ढाँचा इतना जटिल और विशाल है कि हम अक्सर इसके विरोधी ध्रुवों को नहीं देख पाते। ऐसी अदृश्य घटना की पड़ताल करने का हमारा यह एक प्रयास है।

स्मार्टफोन या पॉलीमीडिया ?

आज के इण्टरनेट और मोबाइल फोन की दुनिया में स्मार्टफोन एक आम प्रचलित नाम है। फोन तो ठीक है, लेकिन यह स्मार्टफोन क्या बला है ? स्मार्ट का अर्थ उस फोन से है जिससे हम आम फोन की बातचीत करने के अलावा कई अन्य प्रकार के कार्य भी निपटा सकते हैं। मसलन, इण्टरनेट पर सर्फिंग, कम्प्यूटर जैसी मेमोरी क्षमता वाला, कैमरे की तरह तस्वीरें लेने वाला, तेज और स्पष्ट छवियाँ दिखाने वाली उच्च गुणवत्ता वाली डिस्प्ले टच स्क्रीन से लैस, और विभिन्न अनुप्रयोगों, संगीत, पढ़ाई–लिखाई, वीडियो, समाचार पत्र, बैंकिंग प्रणाली, गेमिंग, शब्दकोश, दुनिया की विभिन्न भाषाओं को सीखने में मदद करने वाला, ऐसे ही कई और उपकरणों से लैस किया जा सकता हो, जिनका उपयोग कम्प्यूटर पर सभी सम्भावित कार्यों को आसानी से करने के लिए किया जा सकता हो।

तकनीक के विकास और विश्व व्यापार में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के परिणामस्वरूप स्मार्टफोन आज दुनिया की बड़ी आबादी तक पहुँच गया है और कोविड महामारी के दौर में ऑनलाइन कक्षाओं के रुझान ने तकरीबन हर मध्यमवर्गीय घर में ऐसे फोन को उपलब्ध करवाया है। यहाँ इस बात पर भी गौर करना जरूरी है कि ऑनलाइन कक्षाओं ने भी वेब सर्विसेज, वेब मीटिंग, जूम मीटिंग आदि के उपयोग को बहुत प्रोत्साहित किया है, यानी जहाँ पहले इसका उपयोग कॉर्पोरेट संस्थाएँ भी कभी–कभार ही करती थीं, अब मध्यमवर्गीय घर में इसका चलन आम है। सोशल मीडिया के उपयोग ने भी, जिनमें ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सएप प्रमुख हैं, इस फोन की संख्या में बढ़ोतरी की है। यहाँ हम स्मार्टफोन की गुणवत्ता और उसके विभिन्न फीचर्स के बारे में बात नहीं करने जा रहे हैं। हम इनसे जुड़ी पूँजीवादी व्यवस्था की लूट को उजागर करने का प्रयास कर रहे हैं।

तुर्की के अंकारा में स्थित हैसेटैपे विश्वविद्यालय में मई 2015 से फरवरी 2016 तक किये गये एक अध्ययन में स्मार्टफोन के रोजाना उपयोग को आज के पूँजीवादी युग के सन्दर्भ में जिंसीकरण और लूट के सन्दर्भ में देखा गया है।

हम पूँजीवादी लूट के सिद्धान्त की तीन सन्दर्भों में छानबीन करते है–– सोशल मीडिया, फुरसत (लीजर) और लूट। मास मीडिया का मुख्य उत्पाद इसके दर्शक होते हैं, जो कि इसका ठोस रूप हैं, यहाँ समझने वाली एक बात यह है कि फोन बनाने वाली कम्पनी ने अपने उत्पाद यानी फोन बेचकर पैसा कमा लिया, मतलब एक किस्म की लूट को अंजाम दिया है, लेकिन यह समझना भी जरूरी है कि लूट कहाँ और कैसे की जाती है। जाहिरा तौर पर मास मीडिया–– समाचार, गीत–संगीत, टीवी, आदि श्रोताओं के लिए मुफ्त में दरयाफ्त किया गया लगता है, लेकिन यह सब मीडिया फ्री–फंड में उपलब्ध नहीं है, बल्कि हमें इसकी कीमत चुकानी पड़ती है–– विज्ञापन के जरिये। इस विज्ञापन के धन्धे को तो हर दर्शक सहज ही पहचान लेता है, लेकिन स्वाभाविक लगने वाले हर विज्ञापन में लूट दिखायी नहीं देती, बल्कि यह हमारे रोजमर्रा के जीवन की हड्डी बन चुकी होती है।

संचार व्यवस्था की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले कनाडा के डालस वॉकर समाईथ का कहना था कि पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली समाज की रगों में जितनी ज्यादा समाती जाती है, उतना ही यह मनुष्य के फुरसत (लीजर) के समय को काम के समय में तबदील करती जाती है। पूँजीवादी व्यवस्था, मुट्टी भर लोगों को छोड़कर, आम आदमी को कहती है कि अपना जीवन बसर करने के लिए काम करो। इस खाली समय में मजदूर अपनी श्रम शक्ति का पुनरुत्पादन करता है, इस दौरान वह अपनी अन्य जरूरतों को पूरा करता है और साथ ही वह अन्य जिम्मेदारियों को भी निभाता है। इस प्रकार यह खाली समय भी विभिन्न रूपों में श्रम का ही एक रूप बना रहता है। इस तरह टीवी के सामने बैठकर आराम करते हुए भी लोग पूँजीवादी चक्की की लूट से मुक्त नहीं रह पाते।

वर्तमान पूँजीवादी संरचना क्या है ?

उत्पादन की पिछली सारी आर्थिक संरचनाओं से अधिक पूँजीवादी संरचना की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इस संरचना के भीतर श्रम शक्ति के पुनरुत्पादन की प्रक्रिया जिंसों के उपभोग से बहुत निकटता से जुड़ी हुई है। इस ढाँचे में विचरने वालों के लिए यह जरूरी है कि वे बाजार से सामान खरीदकर अपनी व्यक्तिगत जरूरतों को पूरा करें, न कि अपनी व्यक्तिगत जरूरतों को उन उत्पादों से पूरा करें जो उन्होंने खुद पैदा किये हैं। पूरी प्रक्रिया को फ्रांसीसी दार्शनिक मिशेल डी सरतूय ने खूबसूरत अन्दाज में पेश किया है––

“उपभोग बड़ी टेढ़ी खीर है, बिखरा हुआ रहता है, लेकिन यह चुपचाप और अदृश्य रूप से हर जगह पाया जाता है, क्योंकि यह खुद को अपने उत्पादों द्वारा उपभोग किये जाने के रूप में जाहिर नहीं करता, बल्कि, प्रमुख आर्थिक सरंचना द्वारा थोपी गयी वस्तुओं के उपभोग किये जाने के तौर–तरीके में उजागर करता है।”

आज के युग में उपभोक्ता वस्तुएँ क्या हैं, क्या वे खुद उपभोक्ता द्वारा उत्पादित की जाती हैं या फिर ये उन उपभोक्ताओं पर थोपी गयी हैं ? महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह एक ऐसी घटना है जो हमारे उपयोग करने के तरीके से ही सामने आती है कि वस्तुओं का उपभोग करते हुए उपभोक्ता उनमें से केवल कुछ का ही उत्पादन कर रहा होता है, लेकिन अपनी उत्पादित वस्तुओं समेत सभी वस्तुओं को वह बाजार से खरीदता है।

कस्टमाईजेशन बनाम डिजिटल श्रम

कस्टमाईजेशन एक ऐसा तरीका है जिसके माध्यम से मास मीडिया लूट से बाहर रह गये व्यक्तियों को अपने में समाहित करता है। कस्टमाईजेशन के तहत उपयोगकर्ता की जरूरतों, रुचियों और प्रवृत्तियों आदि के अनुरूप प्रोग्राम और सामग्री तैयार करके परोसी जाती है। यह व्यक्तिगत तो होती ही है, सर्वव्यापी भी होती है। वैयक्तिकरण की इस परिघटना के माध्यम से किये जाने वाले ऐसे श्रम को डिजिटल श्रम कहा जाता है। हाल के दिनों में डिजिटल श्रम सर्वव्यापी हो गया है। इस श्रम को ही फ्री श्रम के रूप में देखा जाता है। हालाँकि डिजिटल श्रम केवल सोशल मीडिया या वेब यूजर्स तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि उन सभी को अपने में समाहित कर लेता है–– जैसे डिजिटल श्रम ऐसा श्रम है, जिसमें हर तरह का पेड (भुगतान किया हुआ) और अनपेड (भुगतान न किया हुआ) श्रम शामिल है, जिसके आधार पर डिजिटल तकनीक, सामग्री और डेटा का निर्माण किया जाता है और बाजार में जिंस के रूप में बेचा जाता है। पैदावार और खपत के ऐसे संयोजन को डू इट योरसेल्फ संस्कृति, यानी अपने हाथों अपना काम सँवारना कहा जाता है। ऐसी संस्कृति में मुख्य श्रमिक गैर–पेशेवर आम यूजर्स ही होते हैं, जो अपने काम के घण्टों में भी और अपने आराम के समय भी उत्पादन में व्यस्त रहते हैं और यह पूरे समाज को अपने घेरे में ले लेता है। यही कारण है कि आज पूरा समाज ही एक कारखाना बन चुका है। ऐसे उपभोक्ताओं को सम्बोधित करने के लिए एक उपनाम प्रोज्यूमर्स का इस्तेमाल किया जाता है, जिसका अर्थ है कि प्रोडक्शन (उत्पादन) और कंजम्पशन (खपत) साथ–साथ चलते हैं।

फोन यूजर्स क्या बनाते हैं ?

ऐसे प्रोज्यूमर्स स्मार्टफोन का उपयोग करने और अपना डेटा साझा करने में बहुत सक्रिय भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए, फेसबुक की आमदनी का मुख्य स्रोत इस प्लेटफॉर्म के यूजर्स द्वारा साझा की गयी मोटी जानकारी, जिसमें उनके लाइक्स (अपनी पसन्द का इजहार करना) और अपनी मित्र–मण्डली का विवरण शामिल होते हैं, उनके द्वारा वेबसाइटों की छानी गयी खाक, उनके द्वारा देखी गयी वस्तुओं की सूची, खरीदी गयी वस्तुएँ, और यह विवरण भी शामिल होता है कि वे इन कामों में कितने समय मशरूफ रहते हैं। इसके साथ–साथ सूचना का उत्पादन भी हो रहा होता है और जब इस तरह की सम्भावित घटना एक सामाजिक गतिविधि बन जाती है, तो उत्पादन सम्बन्धों की लूट और भी अधिक अदृश्य हो जाती है, क्योंकि ये उत्पाद स्पष्ट रूप से भौतिक रूप में मौजूद नहीं होते। तो यह घटना स्वाभाविक ही लगने लगती है। इनमें से अधिकांश वस्तुएँ बिखरी हुई होती हैं और अल्पकालिक होती हैं, न कि स्थायी। इन सभी गुणों के कारण, ये उत्पाद अदृश्य हैं, लेकिन वे एक जिंस के रूप में कभी भी गायब नहीं होतीं। इस प्रकार, प्रोजम्पशन (प्रोडक्शन और कंजम्पशन, यानी उत्पादन करना और खपत करना) उत्पादन के इन सम्बन्धों को बरकरार रखने और उपयोग करने के साधन के रूप में सामने आता है। यह हर घड़ी, हर दिन नया उत्पादन करता रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि यह फोन यूजर्स के श्रम की लूट है जिसका भुगतान नहीं किया गया होता है और बदले में उनके डेटा का जिंसीकरण भी हो रहा होता है।

स्मार्टफोन द्वारा रोजमर्रा के जीवन में लाये गये बदलाव

स्मार्टफोन का इस्तेमाल करने वालों की दुनिया आमतौर पर सुबह उठते ही शुरू हो जाती है। जब वे अपने फोन अलार्म को बन्द करने के लिए उठते हैं, तो सबसे पहले वे सोशल साइट्स पर जाते हैं। उसके बाद फिर सारा दिन, स्कूल क्या, घर क्या, ऑफिस क्या, गली–मोहल्ला, बस–ट्राम, मेट्रो–ट्रेन, यहाँ तक कि शौचालय में भी, यानी हर जगह स्मार्टफोन उनका एक अभिन्न अंग बना रहता है। उपरोक्त अध्ययन में शामिल फार्मा कम्पनी में काम करने वाले 35 वर्षीय सोनर ने कहा, “मुझे अपनी सीट छोड़े बिना सभी प्रकार के बिलों का भुगतान करने की सुविधा प्राप्त है। ऐसा बैंकिंग एप्प की बदौलत है। इसने मेरे जीवन को आसान बना दिया है।” उसने आगे कहा कि, “हम अब और अधिक सामाजिक हो गये हैं, हम अधिक आदान–प्रदान करते हैं। किसी ने अपना नाश्ता साझा किया है, तो किसी ने आज टर्किश आमलेट के बारे में पोस्ट किया है।”

इसी तरह एक 27 वर्षीय अंग्रेजी शिक्षिका शीयडा का कहना है कि, “मैं सुबह उठते ही अपना मेल चेक करती हूँ, शायद कोई जॉब ऑफर ही आया पड़ा हो। इसके बाद मैं ट्विटर पर और बाद में फेसबुक पर क्लिक करती हूँ। भले ही मैं कुछ न कर रही होऊँ, फिर भी मैं फेसबुक और ट्विटर तो देख ही लेती हूँ।”

तीस वर्षीय सरकारी कर्मचारी बानू का कहना है कि, “मैंने कभी अपने डेस्कटॉप कम्प्यूटर का इस्तेमाल ही नहीं किया। वह अपनी जगह पर पड़ा है। स्मार्टफोन इस्तेमाल करना मुझे ज्यादा आसान लगता है। मैं इसे जहाँ चाहूँ ले जा सकती हूँ। यहाँ तक  कि बाथरूम, टॉयलेट, आदि तक भी। अब टॉयलेट में बैठकर पढ़ने के लिए अखबार ले जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती।”

इन सभी उदाहरणों से पता चलता है कि स्मार्टफोन यूजर्स जब कुछ नहीं भी कर रहे होते, तब भी सोशल मीडिया पर मौजूद होते हैं। इसके साथ ही वे अपने रोजमर्रा के काम, मसलन बिलों का भुगतान करने, अपने दोस्तों की खोज–खबर लेने, और अपने मोबाइल पर पत्रिकाओं के पन्ने पलटने का काम भी कर रहे होते हैं। उनके बारे में उनकी सकारात्मक या नकारात्मक टिप्पणियाँ उनके द्वारा किये गये उपयोग पर निर्भर करती हैं। इस तरह के उपयोग ने काम और अवकाश के बीच, और पेड और अनपेड के बीच की खाई को पाट दिया है। इन सभी सीमाओं को तोड़ने का ही परिणाम प्रोज्यूमिंग है। जैसे–जैसे यह सब सामान्य काम चलता रहता है, यूजर्स की सारी व्यक्तिगत जानकारी एक जिंस में तबदील कर दी जाती है और उसका बँटवारा कर लिया जाता है।

जिंस की क्लासिक परिभाषा

जिंस के बारे में बात करते हुए, मार्क्स ने कहा था कि, “सबसे पहले, जिंस एक बाहरी उत्पाद है, एक ऐसा उत्पाद जो अपनी विशेषताओं के माध्यम से मनुष्य की सभी जरूरतों की तस्सली करवाता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आवश्यकता की प्रकृति क्या है या यह कहाँ से आती है। उदाहरण के लिए, चाहे वह पेट से उठी भूख है या फिर मन से उठी कोई उमंग।” जब इन प्रयोगों को विनिमय मूल्य के रूप में देखा जाता है, तो अर्थशास्त्र की भाषा में यह प्रत्येक वस्तु के उपयोग मूल्य (यूज वैल्यू) के रूप में हमारे सामने आता है। यह अलग बात है कि हमें अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में इसका इल्म होता है या नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि लोग स्मार्टफोन का इस्तेमाल किसी विशिष्ट उपयोग (मूल्य) के लिए करते हैं, लेकिन उनके यूजर्स डेटा का जिंसीकरण करना, आमतौर पर उत्पादन की पूँजीवादी संरचना के मौजूदा कामकाज से जुड़ा होता है।

स्मार्टफोन, एक मुक्ति उपकरण के रूप में

स्मार्टफोन की महत्ता की बात चल रही है, तो विज्ञान के तमाम आविष्कारों और छलांगों की तरह स्मार्टफोन को भी मुक्ति मशीन के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। जून 2013 में तुर्की में और 2018 में हाँगकांग में हुए विरोध प्रदर्शनों में इसके इस्तेमाल के उदाहरण हमारे सामने हैं। आज के किसान आन्दोलन के दौरान भी, तत्काल सन्देश पहुँचाने और तथ्यात्मक जानकारी देने के लिए इनके इस्तेमाल के उदाहरण हमारे सामने हैं। ऐसे उदाहरणों से पता चलता है कि प्रत्येक यूजर्स के लिए इसके मायने अलग–अलग होते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इसकी राजनीतिक अर्थव्यवस्था के मुताबिक परिभाषा अब मान्य नहीं है। वह उतनी ही यथोचित और उचित है।

लूट के उपकरण के रूप में स्मार्टफोन

विभिन्न प्रकार के गैजेट्स से लैस स्मार्टफोन और स्मार्टफोन के माध्यम से प्राप्त विभिन्न प्रकार के एप्स की उपलब्धता पूँजी का संचय (कैपिटल एक्यूमुलेशन) करती है।

इसमें डिजिटल लेबर (श्रम) की लूट का एक हिस्सा इस रूप में मौजूद रहता है––

1. यूजर्स के लिए व्यापारिक सोशल प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करना लाजमी है।

2. इन प्लेटफॉर्मों पर की गयी गतिविधियों से होने वाले मुनाफे और उससे उत्पन्न डेटा का स्वामित्व सोशल मीडिया कम्पनियों के पास है, न कि यूजर्स के पास। यानी पैदा की गयी वस्तु और मुनाफे के स्वामित्व से अलगहदगी।

3. और यूजर्स इन तरकीबों के जरिये अपनी व्यक्तिगत जानकारी सोशल मीडिया कम्पनियों के हवाले कर देता है, जिसका अर्थ है पैदा की गयी उपज को कम्पनियों द्वारा हड़प लिया जाता है।

इस तरह, यूजर्स अपने–अपने घर बैठेे स्मार्टफोन के साथ ‘कुछ भी न करते हुए’ भी पूँजी के संचय में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे होते हैं। पूँजी द्वारा लूटे जाने के लिए उनकी ये बेकार की गतिविधियाँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हंै।

यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि कुछ लोग यह प्रचार करते हैं कि मार्क्स की और मार्क्सवाद की अब कोई प्रासंगिकता नहीं रह गयी है, क्योंकि अब क्लासिक रूप वाले कारखानों में क्लासिक मजदूर वर्ग नहीं रहा। अब हर कोई सोशल मीडिया पर अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन यह परिघटना मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धान्तों का निषेध नहीं करती, बल्कि यह दर्शाती है कि पूँजीवादी लूट का दायरा अब इतना विशाल, व्यापक और सूक्ष्म तौर पर घर कर चुका है कि अब इस पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता हमारे कन्धों पर आन पड़ी है।