देश में 2019 में होने वाले आम चुनाव की तैयारी जोरों पर है। चार राज्यों में हो रहे विधान सभा चुनावों को ‘सेमी फाइनल’ कहा जा रहा है। आम चुनाव से पहले वही सब कुछ दोहाराया जा रहा है जो दशकों से दोहराया जाता रहा है। फर्क इतना ही है कि इस बार यह खेल कुछ ज्यादा ही भद्दे ढंग से, अतिरेक के साथ और शर्म–हया की सारी सीमाओं को तोड़ कर खेला जा रहा है।

भाजपा नरेन्द्र मोदी को पुन: जिताने के लिए राम मन्दिर के मुद्दे पर खून खराबा को फिर से तैयार दिख रही है। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने एकबार फिर स्पष्ट कर दिया है कि उसके लक्ष्य (हिन्दू राष्ट्र) के आगे संविधान, कानून और सर्वोच्च न्यायालय कोई मायने नहीं रखते। अयोध्या मसले पर सर्वोच्च न्यायालय के रवैये से खफा होकर संघ “निर्णायक लड़ाई” छेड़ने का ऐलान कर चुका है। अयोध्या में आयोजित “धर्म संसद” के माध्यम से संघ ने बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना को याद दिलाते हुए संकेत दे दिया है कि “राम जन्मभूमि मुद्दे पर नौजवान किसी भी हद तक जा सकते हैं”।

इधर विपक्षी पार्टियों के पास मोदी शासन की असफलता गिनाने के अलावा और कोई मुद्दा नहीं रह गया है। इस मामले में यह चुनाव सबसे अनोखा होगा जब जनता की नजरों में सरकार और विपक्ष की साख इतनी नीचे चली गयी है कि उनके किसी वायदे को आम जनता गम्भीरता से ले सके ऐसी स्थिति अब नहीं रही। यह भी गौर तलब है कि पिछले साढ़े चार साल से विकास–विकास का रट लगाने वाली भाजपा ने चुनाव से ऐन पहले मन्दिर मुद्दे पर हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण करने पर उतर आयी और मुख्य विपक्षी कांग्रेस ने विकास के फेंके हुए झण्डे को उठाने के बजाय “नरम हिन्दुत्व” का झण्डा उठा लिया है।

वर्ष 1990 में जब देश घोर आर्थिक संकट में फँसा था, तब कांग्रेस पार्टी और मनमोहन सिंह ने देश की जनता को ‘विकास’ का सपना दिखाया था। उसके बाद के दो दशकों के तथाकथित विकास ने जनता की समस्याओं को चरम तक पहुँचा दिया। आर्थिक असमानता को इस हद तक बढ़ा दिया गया कि यह दुनियाभर में चर्चा का विषय बन गयी। लोगों ने भी देखा कि पार्टियों के “विकास” के नारे का अर्थ मुट्ठी भर अमीरों का विकास ही है। कांग्रेस नीत यूपीए की नवउदारवादी नीतियाँ लागू करने वाले लगातार दो कार्यकालों ने कांग्रेस और वामपन्थी पार्टियों को जब आम जनता के आगे पूरी तरह नंगा कर दिया तो भाजपा ने उसी ‘विकास’ के झण्डे को मुस्लिम विरोध के गाढ़े रंग में डूबोकर खूब ऊँचा लहराया। संघ और कारपोरेट मीडिया ने भी प्रचार की बमवर्षा कर देश के माहौल को पूरी तरह ध्रुविकृत कर दिया जिससे मोदी की 2014 के आम चुनाव में भारी जीत सुनिश्चित हो गयी। लेकिन मोदी सरकार के साढ़े चार साल के शासन के बाद और 2019 के चुनाव से पहले भाजपा और विपक्ष द्वारा “विकास” के मुद्दे पर अगर चुप्पी साधी जा रही है तो क्या इसे महज चुनावी तिकड़म माना जाय या “विकास” का मुद्दा इनके गले का काँटा बन चुका है?

मोदी सरकार के साढ़े चार साल पर अगर एक सरसरी नजर दौड़ायी जाय तो देश की गम्भीर समस्याओं की एक झलक मिल जायेगी। भ्रष्टाचार दूर करने, कालाधन वापस लाने और 2 करोड़ रोजगार पैदा करने जैसे चुनावी वायदे को पूरा करने की बात तो दूर, इस सरकार ने ढोल बाजे के साथ जनहित के नाम पर जो भी नीतियाँए जैसे नोटबन्दी, जीएसटी, फसल बीमा योजना या स्वास्थ्य बीमा योजना आदि लागू की, वे सभी जनता को और अधिक गरीब बनाने वाली और देशी–विदेशी कारपोरेट घरानों, विदेशी पूँजी और कुख्यात बीमा कम्पनियों को फायदा पहुँचाने वाली नीतियाँ थी। इसने केवल अरबपतियों की संख्या बढ़ाने और गरीब को और गरीब बनाने का काम किया। क्रेडिट स्वीस बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत की 1 प्रतिशत आबादी की सम्पत्ति जो 2014 में देश की कुल सम्पत्ति की 49 प्रतिशत थी, 2018 में बढ़कर 51.5 प्रतिशत हो गयी। जबकि शेष 99 प्रतिशत की सम्पत्ति 51 से घटकर 48.5 प्रतिशत रह गयी।

असल में, मोदी सरकार की नीतियाँ भारत में 1991 से जारी उदारीकरण–वैश्वीकरण की नवउदारवादी नीतियों की ही निरंतरता थी। इन्हीं नीतियों पर चलकर जब अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली दो सरकारें जनता की नजरों में बुरी तरह बदनाम हो गयी तब इन कुख्यात नीतियों को बचाने के लिए कारपोरेट घरानों और उनकी मीडिया संस्थानों ने मध्यम वर्ग की मदद से संघ के एक ऐसे प्रचारक को देश की कमान सौंपी जिसने पूँजीपतियों के पक्ष में पहले ही गुजरात में एक क्रूर शासन चलाने में उनकी वाहवाही लूटी जा  थी।

देश का नौजवान, मजदूर–किसान और आम जनता 2014 के पहले ही कांग्रेसी हुकूमत में तबाह हो चुकी थी, उन्हें और अधिक जहर पिलाना इतना आसान नहीं था। इसलिए मोदी की महानायक वाली छवि बनायी गयी और उसके शासन के पहले ही दिन से विरोधियों के प्रति हमलावर रूख अख्तियार किया गया। “राष्ट्रवाद”, “गोरक्षा” और “अर्बन नक्सल” जैसे विभाजनकारी एजेन्डों को लगातार इसी उद्देश्य से समाज पर थोपकर एक हिंसक अराजकता और घृणा का माहौल तैयार किया गया। लेकिन सब कुछ करने के बावजूद नरेन्द्र मोदी के सरपरस्तों– कारपोरेट घरानों, देशी–विदेशी पूँजीपतियों का संकट टला नहीं।

भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न अंगों का अगर जायजा लिया जाय तो समझने में देर नहीं लगेगी कि यह गम्भीर संकट का शिकार है। इसमें सबसे प्रमुख है बैंकों का संकट। खुद बैंकों के आँकड़ों के मुताबिक वे जितना उधार बाँट रहे हैं उसका एक बड़ा हिस्साए कहीं–कहीं 11 प्रतिशत तक, बैंकों को लौट नहीं रहा है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में बैंक ही इसकी धुरी होती हैं। इसका बीमार होना पूरी व्यवस्था पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देता है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक हो या निजी क्षेत्र के, आज सभी गले तक संकट में डूबे हुए हैं, कोई कम और कोई ज्यादा।

प्रधानमंत्री द्वारा ढोल–नगाड़ों के साथ शुरू किये गये “मेक इन इंडिया” का कुल परिणाम भी चंद करोड़पतियों को पैदा करने तक सीमित रहा। अर्थव्यवस्था पर यह वैसा कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं छोड़ पाया जैसा कि दावा किया गया था। छोटे और मध्यम दर्जे के उद्योग (एमएसएमई–माइक्रोए स्मॉल एण्ड मीडियम एन्टरप्राईजेज) क्षेत्र भी बहुत गहरे संकट में है। अब तक इस क्षेत्र की हजारों फैक्ट्रियाँ बन्द हो चुकी हैं। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि एमएसएमई देश का बहुत महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। इसका अर्थव्यवस्था के मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में 45 प्रतिशतए निर्यात में 40 प्रतिशत और रोजगार देने में 69 प्रतिशत हिस्सा है। उधर इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एण्ड फाइनैन्स सर्विसेज कम्पनी का अपने कर्जदाताओं के पैसे लौटाने में हाथ खड़ी कर देने से इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में भी पसरा व्यापक संकट जग जाहिर हो गया। सरकार ने संकट के संक्रमण को रोकने के लिए इसका अधिग्रहित कर लियाए अन्यथा यह अपने साथ दर्जनों कम्पनियों और वित्तीय संस्थानों को भी साथ ले डूबती।

लेकिन आज सबसे ज्वलंत समस्या कृषि क्षेत्र की है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक देश में 82 करोड़ लोग किसी न किसी रूप से आज भी खेती पर निर्भर हैं। नवउदारवादी नीतियों ने कृषि की पुरानी व्यवस्था यानी नेहरू मॉडल को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया है जिससे यह क्षेत्र कारपोरेट घरानों और बिल्डरों के लिए लूट का अखाड़ा बन गया है। सरकार पिछले 27 साल से जारी नीतियों के साथ पूरी तरह खड़ी है और किसानों के लिए घड़ियाली आँसू बहाने वाली विपक्षी पार्टियाँ भी उन्हीं नवउदारवादी नीतियों के साथ है। इसलिए वर्तमान दायरे में इस समस्या कोई समाधान सम्भव नहीं है।

सिर्फ कृषि क्षेत्र की बात नहीं, पिछले 27 सालों से नवउदारवादी नीतियों पर चलते हुए यह देश आज उस मुकाम पर पहुँच गया है जहाँ यह व्यवस्था अगर ठीक से काम कर रही है तो महज अमीरों और खाते–पीते लोगों के लिए ही, 100 करोड़ जनता के लिए व्यवस्था काम करना बन्द कर चुकी है। इसलिए आम जनता के बीच हाहाकार मचा हुए है। खेती, मजदूरी और रोजगार के अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे आम जनता के लिए महत्त्वपूर्ण सभी क्षेत्र आज पंगु बना हुआ है। आज जो भी पूँजी निवेश हो रहा है उसका लाभ 1 प्रतिशत की जेब में जा रहा है। सरकारी योजनाओं से भी यही तबका मालामाल हो रहा है। पी साईनाथ ने आकलन किया है कि विभिन्न सरकारों ने अपनी बजट घोषणाओं में पूँजीपतियों को वर्ष 2005–6 से लेकर 2015–16 तक 42 लाख 8 हजार 3 सौ सैंतालिस रूपये की राजस्व छूट दी है। यह नवउदारवादी ढाँचे का ही तकाजा है कि भारत समेत दुनिया की 1 प्रतिशत आबादी हर साल 200 अरब डालर की टैक्स चोरी करती है और इसी आबादी के कारण विकासशील देशों को हर साल 170 अरब डालर के राजस्व का नुकसान होता है।

लेकिन क्या भारत जैसे विकासशील देशों के आम लोगों को नवउदारवाद इससे बेहतर व्यवस्था दे सकता है?

नवउदारवाद पूँजीवाद का सबसे प्रतिक्रियावादी और घातक रूप है। यह मुट्ठीभर अमीर लोगों के लिए लूट का तंत्र होता है जबकि आम जनता के लिए भयानक शोषण और दमन की व्यवस्था है। इसका आविर्भाव 1980 में अमरीका और ब्रिटेन में उस परिस्थिति में हुआ था जिस समय अपनी सारी सकारात्मकता खो चुके पूँजीवाद को इस धरती से विदा हो जाना चाहिए था लेकिन दुनिया में समाजवादी धारा के विलोप हो जाने से इसको हटाकर इसकी जगह लेने  वाली शक्ति मजबूत नहीं थी। विश्व पूँजीवाद के इस नये अवतार ने अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक की अगुवाई में वैश्वीकरण के नाम पर आक्रामक हथकन्डे अपनाते हुए दुनिया के ज्यादातर देशों को वैश्वीकरण उदारीकरण की आड़ में नवउदारवाद का हिस्सा बना लिया।

भारत का बड़ा पूँजीपति वर्ग जो 1991 में गहरे संकट में फँसा हुआ थाए उसने अधिक मुनाफे के अपने संकीर्ण स्वार्थ के कारण नवउदारवाद को अपना लिया। यहाँ के शासक वर्ग को एक उम्मीद थी कि विकसित देशों की अर्थव्यवस्था से नत्थी होकर मुनाफे के संकट का समाधान हो सकता है। लेकिन अमरीका में 2008 में लेहमन ब्रदर्स के धराशायी हो जाने के बाद यह पक्का हो गया कि विश्व पूँजीवाद का सूरज अब डूब चुका है। वह आज भी मन्दी की गहरी खाई में गिरा हुआ है और संकटग्रस्त पूँजी की हिफाजत के लिए दुनियाभर में दक्षिणपन्थी और फासीवादी ताकतें सत्ता तक पहुँच रही है।

दरअसलए 1991 में लागू की गयी नवउदारवादी नीतियाँ देश पर कभी भी सकारात्मक प्रभाव नहीं छोड़ पायी। दिल्ली की कुर्सी पर बैठने वाले हर शासक ने अपने निहित स्वार्थ के लिए जनता से उसकी वास्तविकता को छुपाया और नवउदारवादी नीतियों को रामबाण के रूप में प्रस्तुत किया। आज ढाई दशक बीत जाने के बाद वही नीतियाँ जड़ जमाकर अर्थव्यवस्था को अपने नागपाश में बुरी तरह जकड़ चुकी है। इसी कारण अर्थव्यवस्था आज एक गम्भीर और स्थायी ठहराव का शिकार हो चुकी है। यह व्यवस्था कायम रहते हुए इस ठहराव से आज न धनी वर्ग इससे निकल सकता है और न ही आम जनता। यही वह अन्तरविरोध है जिसका हमारा देश आज सामना कर रहा है।

आज जनता के एक बड़े हिस्से की पहलकदमी के बिना नवउदारवाद से मुक्ति नहीं मिल सकती। इसके सबसे बड़े प्रवर्तक, विदेशी वित्त पूँजी के पास पर्याप्त हथकन्डे हैं जिससे वह उसके चंगुल से छूटने की कोशिश करने वाले देशों में अव्यवस्था फैला सके। लातिन अमरीकी देश अर्जेटिना इसका सबसे ताजा उदाहरण है। अब से 15 साल पहले वहाँ की सरकार ने आईएमएफ पर अपनी निर्भरता को यह कहकर खत्म कर दिया था कि यह संस्था अर्जेन्टिना को अपने हित की नीति विकसित करने नहीं देती। चूँकि सरकार ने अन्तरराष्ट्रीय पूँजी के चक्रव्यूह के अन्दर ही राहत पाने की कोशिश की थी इसलिए एक समय के बाद अर्थव्यवस्था में ठहराव आना लाजिमी था। अभी हाल ही में जब वहाँ की मुद्रा का 100 प्रतिशत अवमूल्यन करना पड़ा और मुद्रस्फिति 50 प्रतिशत तक पहुँच गयी तो सरकार को फिर से आईएमएफ की शरण में जाना पड़ा और नवउदारवादी नीतियों को एकबार फिर कड़ाई से लागू करने के लिए मजबूर होना पड़ा।

हमारा देश भी विश्व पूँजीवादी व्यवस्था और उसकी नवउदारवादी नीतियों के चंगुल में पूरी तरह फँसा हुआ है। हमारे शेयर बाजार पर विदेशी वित्तीय कम्पनियों का कब्जा है। सेंसेक्स को धूल में मिलाकर, रूपये के विनिमय दर में उथलपुथल लाकर और रेटिंग एजेन्सियों के माध्यम से यहाँ की कम्पनियों के लिए क्रेडिट बाजार में सूखा लाकर वे यहाँ की वर्तमान व्यवस्था को नाक रगड़ने पर मजबूर कर सकती हैं। यही वह सीमा है जिसे दक्षिण और वाम समेत यहाँ की मुख्यधारा की सभी राजनीतिक पार्टियाँ स्वीकार कर चुकी हैं।

लेकिन भारत की 100 करोड़ जनता अगर वास्तविकता से वाकिफ हो जाय तो वह उस सीमा को स्वीकार नहीं कर सकती और उसके अन्दर एक वैकल्पिक व्यवस्था तलाशने की जरूरत पैदा होगी। उनको समझने में देर नहीं लगेगी कि नवउदारवाद अगर जारी रहता है तो वह पूँजीपतियों और खाते–पीते लोगों के लूटतंत्र को ही कायम रखेगाए जिससे इनकी समृद्धि बढ़ती रहेगीए वहीं मजदूरों, किसानों और मध्यम वर्ग के बड़े हिस्से की समस्याओं का हल होना तो दूर, उन्हें अधिकाधिक दमन और निरंकुशता के अधीन जीने को बाध्य होना पड़ेगा।

भारत में आज ऐसी ढेरों प्रगतिशील शक्तियाँ मौजूद हैं जो नवदारवाद का विरोध तो करती हैं लेकिन इसके विकल्प के मुद्दे पर वे ढुलमुल हैं। इसमें सबसे बड़ी समस्या आज प्रगतिशील आन्दोलन में सामाजिक जनवादी विचारों का प्रभाव है। दुनिया से समाजवादी धारा के अवसान और हाल के दिनों में कई लातिन अमरीकी देशों में आम चुनाव द्वारा वामपन्थी सरकारों का आना और उनके द्वारा कई जनपरक कामों को अन्जाम देने की घटनाओं ने इस पिटी हुई विचारधारा को फिर से पैर जमाने का मौका दे दिया है। सामाजिक जनवादी विचारों को सबसे स्पष्टता के साथ सीपीएम पार्टी रखती है। इनकी नवउदारवाद की आलोचना का अर्थ अर्थव्यवस्था के नेहरू मॉडल को वापस लाना है। इसलिए ऐसी राजनीति संसद की चैहद्दी में ही दम घुट कर रह जाती है। जिस कृषि व्यवस्था को यहाँ के पूँजीपति वर्ग ने अपने हित में पैदा किया और नवउदारवादी दौर में उसी ने उस व्यवस्था को कूड़े के ढेर में फेंक दिया और जिसके फिर से बनने की अब कोई सम्भावना भी नहीं बची हैए इसके बावजूद आज सीपीएम उसी के सहारे किसानों को सरकारी मदद से कृषि व्यवस्था को जिलाये रखने का झूठा सपना दिखा रही है। अपने वर्गीय हित के कारण यह पार्टी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाती कि जिस विशिष्ट वैश्विक परिवेश में नेहरू मॉडल पैदा हुआ था दुनिया अब फिर से वहाँ नहीं लौट सकती।

वेनेजुएला और बोलिविया जैसे लातिन अमरीकी देशों का मॉडल भी भारत के लिए किसी काम का नहीं है। क्योंकि एक तो वहाँ कोई भी वामपन्थी सरकार अब तक अपना पैर जमा नहीं पायी। दूसरा, सम्पत्ति का बड़ा हिस्सा अभी तक 1 प्रतिशत लोगों के कब्जे में है और वे देश भारत के मुकाबले बेहद छोटे होने के साथ–साथ इतने गरीब भी नहीं हैं। उनमें से सबसे गरीब देश बोलिविया का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 3394 डालर है जबकि भारत का 1940 डालर है। भारत के भूखे–नंगे लोगों की संख्या वहाँ की कुल आबादी से कई गुना ज्यादा है। इसके अलावा विश्व पूँजी और ताकतवर देशों के लिए भारत का महत्त्व आज कहीं ज्यादा है। उनके निवेश और संचय के संकट को कम करने के लिए भारत सबसे अनुकूल देश बन सकता है। भारत का धनी तबका भी उन्हीं की नाव पर सवार है। इसलिए उनके हितों को नुकसान पहुँचाने वाले किसी भी मॉडल को वे संसद द्वारा पास नहीं होने देंगे। केवल भारत की 100 करोड़ जनता के पास ही वह ताकत है जिससे वह अपने लिए एक वैकल्पिक रास्ते का निर्माण कर सके।

इसलिए आज देश के सामने यही चुनौती है कि कैसे उसकी 100 करोड़ जनता इस वर्तमान नवउदारवादी व्यवस्था की हर कारगुजारियों को समझने में सक्षम हो सके, यह समझ सके कि नवउदारवाद ने उसके लिए भविष्य का कैसा खाका तैयार कर रखा है और जान सके कि एक नया वैकल्पिक आर्थिक ढाँचा ही उसकी वास्तविक समस्याओं का हल कर सकता है।