भारतीय रेल प्रतिदिन ऑस्ट्रेलिया की पूरी आबादी के बराबर यानी ढाई करोड़ लोगों को एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचाती है। 34 लाख मीट्रिक टन माल की प्रतिदिन ढुलाई करती है। यह पर्यावरण के लिए भी सुरक्षित है और कम खर्चीली सेवा है। इसके पास 76 हजार किलोमीटर की ट्रैक, 7,350 स्टेशन, 13 लाख नियमित कर्मचारी तथा लगभग इतने ही अनियमित कर्मचारी हैं। इसके अलावा विशाल श्रमिक क्षमता, इलेक्ट्रिक तथा डीजल लोकोमोटिव के विशाल जखीरे की बदौलत यह भारतीय अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण स्तम्भ है।

निजीकरण का चक्र

इतने विशाल नेटवर्क और आधारभूत ढाँचे के बावजूद विगत आम बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संकेत दिये हैं कि आने वाले दिनों में रेलवे को अपनी अहम परियोजनाओं को पूरा करने के लिए पीपीपी (प्राइवेट–पब्लिक पार्टनरशिप) की राह पकड़नी होगी। उन्होंने यह भी बताया कि 2030 तक भारतीय रेल को अपनी विभिन्न योजनाओं को पूरा करने के लिए 50 लाख करोड़ रुपये के निवेश की दरकार होगी जो मौजूदा संसाधनों की गति से सम्भव नहीं हो पाएगा। इसके तत्काल बाद रेलवे जो पहले से ही निर्माण, चिकित्सा, साफ–सफाई, नये ट्रैक बिछाने, कारखानों, रनिंग रूमों आदि विभागों में निजी भागीदारी को ला चुकी थी, यात्री गाड़ियों के परिचालन जैसे संरक्षा–सुरक्षा से जुड़े क्षेत्र में भी निजी भागीदार की उपस्थिति सुनिश्चित करते हुए पीपीपी मॉडल अपनाकर मई 2019 में 100 डेज एक्शन प्लान को बिना देरी किये लागू कर दिया। इसमें लखनऊ से नयी दिल्ली के बीच पहली निजी भागीदारी वाली तेजस ट्रेन चली।

100 डेज एक्शन प्लान क्या है ?

कोई यह सोच रहा है कि डिब्बों में भेड़–बकरियों की तरह ठुँसकर, अत्यन्त दारुण अवस्था में यात्रा करने वाले गरीब–प्रवासी मजदूरों का भला होने वाला है, रेलवे की यात्रा सुरक्षित, दुर्घटना मुक्त होने वाली है, रेलवे के संरक्षा श्रेणी समेत विभिन्न श्रेणियों के 2–6 लाख खाली पड़े पद भरे जाने वाले हैं तो उन्हें यह भ्रम त्याग देना चाहिए। मौजूदा सरकार इन छोटे–मोटे कामों के लिए नहीं आयी है।

–– पिछले दिनों अप्रत्याशित तीव्रता (जो शायद ही किसी अन्य सरकारी योजना में दिखती हो) दिखलाते हुए रेलवे ने मई 2017 में निजी क्षेत्र की भागीदारी वाली पहली तेजस ट्रेन (लखनऊ–नयी दिल्ली) को हरी झंडी दिखायी जो आज अन्य तीन महत्त्वपूर्ण मार्गों–– मुम्बई–अहमदाबाद, मदुरई–चेन्नई, मुम्बई–गोवा के बीच परिचालित है।

–– देश के 150 यात्री ट्रेनों के परिचालन के लिए निजी ऑपरेटरों से बोली लगाने वाली ईओआई (एक्सप्रेसन ऑफ इण्टरेस्ट) की माँग की गयी है।

–– रेलवे की सात महत्त्वपूर्ण उत्पादन इकाइयों–– चितरंजन लोकोमोटिव वर्क्स (बंगाल), डीजल रेल कारखाना (वाराणसी), मॉडर्न कोच फैक्ट्री (रायबरेली), रेल कोच फैक्ट्री (कपूरथला), डीजल मॉडर्नाइजेशन वर्कशॉप (पटियाला), इण्टीग्रल कोच फैक्ट्री (चेन्नई) और व्हील एंड एक्सल प्लाण्ट (बेंगलुरु) का निगमीकरण करते हुए उन्हें ‘इंडियन रौलिंग स्टाक कम्पनी’ के नाम से निजी क्षेत्र में दे देने का मार्ग प्रशस्त किया जाना है।

–– रेलवे को कोर और नॉन–कोर सेक्टर में बाँटकर अस्पतालों, स्कूलों, कारखानों, रेलवे पुलिस आदि महकमों को अगले 100 वर्षों के लिए निजी क्षेत्र के हवाले कर दिये जाने की ‘विवेक देवराय कमेटी’ की सिफारिशों को अमलीजामा पहनाना है।

–– देश के लगभग 23 महत्त्वपूर्ण रेलवे स्टेशन जिनमें दिल्ली, मुम्बई, बेंगलुरू, इलाहाबाद, कानपुर, चेन्नई, भोपाल, हावड़ा जैसे बड़े शहरों के स्टेशन जो बेहद कमाई वाले हैं, आदि को शामिल करते हुए उन्हें पूरी तरह से निजी उद्योगपतियों को सौंप देने की योजना पर अमल शुरू भी हो गया है, जिनमें सिर्फ परिचालन से सीधे जुड़े कर्मी ही रेल के रहेंगे।

–– देश के लगभग 600 रेलवे स्टेशनों के आसपास की जमीन 100 वर्षों के लिए निजी उद्योगपतियों को औने–पौने दामों में दिये जाने की कार्य योजना पर अमल शुरू हो गया है, जहाँ वे अपने निजी व्यवसायिक प्रतिष्ठान विकसित करेंगे। इसके लिए रेल मंत्री द्वारा लैंड डेवलपमेण्ट प्राधिकरण को 2020–21 का समय दे दिया गया है जिसमें कमर्शियल साइट्स के 21 स्थानों के लिए 2,400 करोड़, 25 रेलवे कॉलोनियों की बिक्री के लिए 3,300 करोड़ और 22 स्टेशनों की रिडेवलपमेण्ट के लिए 12,000 करोड़ रुपये ‘अप फ्रण्ट प्रीमियम’ रखा गया है। यह वित्त मंत्रालय की 9 जुलाई 2020 की बैठक में तय कर दिया गया था।

–– रेलवे बोर्ड का पुनर्गठन कर एक स्वतंत्र नियामक संस्था (आरआरएआई) का गठन प्रस्तावित है।

सरकार की असली मंशा

इन सबके पीछे सरकार की मंशा आखिर क्या है ? इसे समझने के लिए हमें देश में 1991 के बाद अपनायी गयी ‘नयी आर्थिक नीति’ तथा इसके मूल सूत्रों–– उदारीकरण, निजीकरण तथा भूमंडलीकरण के पीछे की ताकतों की मंशा को समझना जरूरी है। हालाँकि जहाँ से इन नीतियों की शुरुआत हुई, आज लगभग तीस बरसों बाद वही देश अब इन नीतियों के घातक परिणामों को भुगत रहे हैं और इनके गुब्बारे की हवा निकल जाने के बाद घोंघे की तरह फिर से नेशन फर्स्ट, ब्रेक्जिट का जाप करते हुए पीछे लौटने की चर्चा कर रहे हैं। बावजूद इसके भारत के नीति–निर्माता इन सब आर्थिक नीतियों का हश्र देखते हुए भी रतन टाटा की अगुवाई में “कायाकल्प कमेटी” बनाकर उसकी सिफारिश पर, रेलवे, बीमा, विमानन, बैंकिंग, चिकित्सा जैसी संरक्षा–सुरक्षा से जुड़ी तथा राष्ट्रीय महत्त्व की सामाजिक संस्थाओं को निजी हाथों में सौंपकर उनके मूल स्वरूप को ही समाप्त करने पर तुले हुए हैं।

हालाँकि वाराणसी की एक रैली में डीजल रेल कारखाना के मजदूरों को सम्बोधित करते हुए प्रधान सेवक ने बड़े स्वाभिमानी तरीके से स्वयं को रेल से जोड़ते हुए इसके निजीकरण की किसी भी सम्भावना से दूर–दूर तक इनकार किया था और ऐसी चर्चाओं को देशवासियों को गुमराह करने वाला बताया था।

निजीकरण–निगमीकरण के पीछे सरकार की दलील

रेलवे के निगमीकरण–निजीकरण के पीछे सरकार कई दलीलें देती है। पहली, रेलवे की भावी परियोजनाओं को पूरा करने के लिए सरकार के पास पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं है। यदि भावी परियोजनाओं समेत वर्तमान उपक्रमों (ट्रेनों, रेल–पथों, अस्पतालों, स्टेशनों, स्कूलों, कारखानों, उत्पादन इकाइयों) का निजीकरण या निगमीकरण किया जाता है तो उन परियोजनाओं, उपक्रमों के विकास की जिम्मेदारी निगम या निजी भागीदार की होगी जो स्वयं धन जुटाएँगे तथा खर्च उठाएँगे और सरकार की ज्यादा जिम्मेदारी नहीं होगी। (मिनिमम गवर्नमेण्ट मैक्सिमम गवर्नेंस) दूसरी, कुशल, निष्ठावान, समर्पित रेलकर्मियों का अभाव है। तीसरी, रेलवे का परिचालन अनुपात (ऑपरेटिंग रेसियो) काफी ज्यादा हो गया है। चैथी, दबी जुबान से रेलवे की बदतर हालत के लिए अफसरशाही को भी जिम्मेदार ठहराया जाता है।

ये सभी दलीलें खोखली तथा भ्रामक हैं। रेलवे की सबसे प्रमुख आय का स्रोत (64 प्रतिशत) माल ढुलाई है। दूसरा स्रोत (28 प्रतिशत) लम्बी दूरी की मेल एक्सप्रेस ट्रेनों से आय है। साथ ही स्टेशन परिसरों से आय (8 प्रतिशत) है। विगत वित्त वर्ष 2019–2020 में रेलवे ने एक अरब मीट्रिक टन से ज्यादा माल ढुलाई की, जिसमें औसतन 9,000 गुड्स ट्रेनों ने प्रतिदिन 30 लाख मीट्रिक टन माल ढुलाई की जो एक रिकॉर्ड ही है। उसी प्रकार वर्ष 2019–2020 में रेलवे की मेल और सवारी गाड़ियों ने 8–44 अरब यात्रियों को देश के विभिन्न कोनों से उठाकर एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचाया। इस प्रकार 2019–2020 में गुड्स ट्रेनों से रेलवे ने 1,29,750 करोड़ तथा यात्री ट्रेनों से 53,399 करोड़ रुपये किराये से कमाये। यह आय सारी रेल परियोजनाओं जैसे विद्युतीकरण, गेज कन्वर्जन, दोहरीकरण, तिहरीकरण, नयी रेल लाइन बिछाने के बावजूद हुई है। बजटीय आँकड़े के अनुसार रेलवे का 2019–20 का परिचालन अनुपात 96–2 प्रतिशत का रहा, जिसे आगे और कम करने का लक्ष्य रखा गया है। यह आय रेलवे के लगभग 12–5 लाख कर्मचारियों को वेतन तथा इतनी ही संख्या में पेंशनर्स को पेंशन देने के बाद हुई। यहाँ पर रेलवे द्वारा परिचालन अनुपात की बात करना बेमानी है क्योंकि जब रेलवे को अपना भाड़ा तय करने की अनुमति नहीं है, तो रेलवे पर आपरेटिंग रेसियो बढ़ाने का आरोप नहीं मढ़ा जा सकता है।

यदि रेलवे के व्यय का लेखा–जोखा किया जाये तो इस ऑपरेटिंग रेसियो के बढ़ने में सबसे ज्यादा हिस्सा फिजूलखर्ची का है। अनावश्यक योजनाओं तथा रेलवे स्टेशनों, कार्यालयों के सौन्दर्यीकरण पर राजनीतिक लाभ के लिए देश भर में रेलवे पानी की तरह पैसा खर्च कर रही है। स्टेशनों को विश्वस्तरीय बनाने के नाम पर अच्छे–खासे भवनों, परिसरों, रोड्स को तोड़कर उनकी जगह नया निर्माण किया जा रहा है। देश में हजारों समपार फाटकों को मानवरहित कर उनकी जगह अंडरपास बनाये जा रहे हैं। हालाँकि एक सर्वे के अनुसार अनुमानित 14 करोड़ (एक अंडरपास का) खर्च करने के बाद भी देश के सैकड़ों अंडरपास वर्ष के अधिकांश दिनों में जल भराव के चलते किसी काम के नहीं रहते। इसी तरह करोड़ों का खर्च गैर योजनागत मदों में भी प्रतिवर्ष होता है। यदि इन फिजूलखर्ची पर रोक लगे तो परिचालन अनुपात सुधारा जा सकता है, लेकिन सरकार इन पर रोक लगाने से हमेशा कतराती है तथा राजस्व कमी का बहाना बनाकर निजीकरण, पीपीपी, निगमीकरण का मार्ग प्रशस्त करती रही है।

सच्चाई यह है कि आज निजी तथा कॉर्पोरेट पूँजी का संकट राष्ट्रीय–अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उस मुकाम तक पहुँच चुका है और सरकार के बाहर और भीतर इन धनकुबेरों, कॉर्पोरेट्स की दखल इस हद तक हो चुकी है कि सरकार उनके आर्थिक संकट को, उनके मुनाफे के प्रतिशत के संकट को रेल का संकट बताकर देश की जीवनरेखा को उनके व्यक्तिगत हितों की रक्षा के लिए बलि चढ़ाने पर उतारू हो चुकी है।

निजीकरण–निगमीकरण कोई समाधान नहीं

सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण संकट का कोई स्थायी समाधान है ही नहीं क्योंकि कॉर्पोरेट देश के प्रति अपनी जवाबदेही के लिए निवेश नहीं करता, बल्कि सिर्फ मुनाफा कमाने की अपनी चिरन्तन भूख के लिए निवेश करता है। मुनाफे की हवस पालने के कारण उनके द्वारा नियंत्रित, संचालित उपक्रमों के सर्वसुलभ सस्ता होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। हाल के घटनाक्रम में लखनऊ–नयी दिल्ली के बीच संचालित प्रथम निजी रेलगाड़ी ‘तेजस एक्सप्रेस’ का किराया उसी दूरी तथा इतने ही समय (सिर्फ 25 मिनट का अन्तर) का इस प्रकरण को समझने के लिए पर्याप्त है। यात्रा किराया रुपये में––

                               शताब्दी एक्सप्रेस    तेजस एक्सप्रेस

एसी चेयर कार          970/– (फिक्स्ड)      1280/–

एसी प्रथम श्रेणी         1935/– (फिक्स्ड)    *2450/–

डायनेमिक प्राइसिंग   कोई योजना नहीं     **4325/–

*एक्जीक्यूटिव क्लास

**अब तक अधिकतम

बड़ी बात यह है कि बगैर आधारभूत ढाँचा (पटरी, सिग्नल, स्टेशन, डिब्बे रेलवे के ही हैं) खड़ा किये सिर्फ थोड़ी पूँजी लगाकर अकूत मुनाफा कमाने का इससे सरल जरिया और क्या हो सकता है ? जनता की सालों की मेेहनत और देश के संसाधनों से खड़े किये सार्वजनिक उपक्रम के मजबूत ढाँचे का प्रयोग तो वे मुनाफे के लिए निर्बाध रूप से कर रहे हैं और जब उपक्रम घाटे में आ जाते हैं तो सरकार की सहायता से ही वे उनसे पिंड भी छुड़ा लेते हैं, यानी मुनाफे का निजीकरण और घाटे का सार्वजनिकरण।

दूरसंचार के क्षेत्र में बीएसएनल, एमटीएनएल और निजी क्षेत्र के भी नामचीन किंगफिशर, जेट एयरवेज, बैंकिंग में यस बैंक के हश्र इनके ज्वलन्त उदाहरण हैं। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि वर्तमान दौर के आर्थिक सुधार, ढाँचागत समायोजन, राष्ट्रीय–अन्तरराष्ट्रीय पूँजी और हुकूमत के गठजोड़ के गम्भीर संकट का सामना करने की प्रतिक्रिया के तौर पर ही हैं।

बहुप्रचारित, रेलवे की महात्वाकांक्षी योजना, डेडिकेटेड फ्रेट कोरिडोर जिसके अन्तर्गत पाँच मालगाड़ी रूट–– ईस्टर्न डेडीकेटेड फ्रेट कोरिडोर (लुधियाना से कोलकाता, 1800 किमी), वेस्टर्न डेडीकेटेड फ्रेट कोरिडोर (दादरी से जेएनपीटी, 1500 किमी), ईस्ट कोस्ट कोरिडोर (खड़गपुर से विजयवाड़ा, 1000 किमी), साउथ ईस्ट–वेस्ट कोरिडोर (भुसावल से धानकुनी, 1500 किमी), नार्थ–साउथ सब कोरिडोर (विजयवाड़ा से इटारसी, 1500 किमी) बनाये जा रहे हैं, जो आगामी 150 निजी ट्रेनों को चलाने के लिए मार्ग प्रशस्त करने का ही एक उपक्रम है, क्योंकि वर्तमान समय में मालगाड़ियों के परिचालन में ये यात्री सवारी गाड़ियाँ ट्रैफिक कंजेशन (तथाकथित) पैदा कर रही हैं। इस प्रकार एक साथ दो लक्ष्य साधे जा रहे हैं, डेडिकेटेड फ्रेट कोरिडोर पूरी तरह से रेल राजस्व (माल ढुलाई से प्राप्त राजस्व) पर प्रभाव डालेगा तथा मालगाड़ी स्लाट निजी सवारी गाड़ियों के परिचालन के लिए उपलब्ध हो जाएगा।

बड़ी संख्या में नौकरियों में कटौती

रेलवे में ‘राइट साइजिंग’ के नाम पर निजीकरण, निगमीकरण की योजना पर अमल आज से ढाई दशक पूर्व 1995 में आये पाँचवे केन्द्रीय वेतन आयोग की रिपोर्ट के बाद ही शुरू हो गया था जिसके खिलाफ रेलवे के मान्यता–प्राप्त और गैर मान्यता–प्राप्त यूनियन सब जानते हुए भी कोई मजबूत विरोध का स्वरूप तैयार करने में सफल नहीं हो पाये। रेलवे को 9 जोनों से 16 जोनों में पुनर्विभाजित करना, 10 नये मंडल बनाना, उसी का हिस्सा था, जिससे छोटे–बड़े देशी–विदेशी खरीदार, निवेशक आसानी से रेलवे में अपनी पैठ बना सकें। वर्ल्ड बैंक के ऋण के दबाव में रेलवे बोर्ड पहले ही यह फैसला ले चुका था कि रेल कर्मचारियों की संख्या 18 लाख से धीरे–धीरे 9 लाख पर लानी है। आज इसे लगभग 13 लाख के नीचे लाया जा चुका है। वह भी तब, जब रेलवे का परिचालन बहुत अधिक बढ़ चुका है। आज रेलवे में संरक्षा श्रेणी समेत लगभग 2–6 लाख पद खाली पड़े हैं, लेकिन नयी भर्तियाँ लगभग बन्द हैं। वर्तमान सरकार के 30 मई 2019 के शपथ ग्रहण के दिन ही उत्तर रेलवे के 13 विभागों के लगभग 26,000 पदों को समाप्त करने की घोषणा की गयी जिसकी मुनादी वर्तमान सरकार के पिछले कार्यकाल के अन्तिम दिनों में की जा चुकी थी। ऐसा नहीं है कि रेलवे के इन विभागों के पास काम नहीं रह गया है। दरअसल ये पद इसलिए खत्म किये जा रहे हैं क्योंकि बहुत सारे विभागों में रेलवे ने कार्यों को आउटसोर्स कर दिया है जिससे कर्मचारियों के पास कोई काम नहीं बचा है। इन आउटसोर्स कर्मचारियों से काफी कम वेतन पर, बिना किसी श्रम कानून का अनुपालन किये, कार्य कराये जा रहे हैं तथा रेलवे इसी तरह से अपने सभी काम कराना चाह रही है जिससे उसे न्यूनतम वेतन के साथ ही वे सारी सुविधाएँ भी न देनी पड़े जो रेलकर्मियों ने लम्बे संघर्ष के बाद हासिल की हैं। 2014 में प्रधानमंत्री ने वाराणसी की अपनी विजय सभा में कहा था कि रेलवे को बेचने से पहले वे मर जाना पसन्द करेंगे, पता नहीं उन्हें यह वक्तव्य आज भी याद है या नहीं। निजीकरण देश की पहले से ही वर्गीय, वर्णीय, श्रेणीगत आधार पर विभाजित गैर बराबरी वाली सामाजिक व्यवस्था को फिर से और मजबूत स्थिति में ले जाने का गम्भीर षड्यंत्र है। आज भी रेल मंत्री लगातार यह बयान दे रहे हैं कि रेलवे में नौकरियों का समाप्त होना देश की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छे संकेत हैं।

निजीकरण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए आकर्षक सेवानिवृत्ति का प्रस्ताव

विगत वर्षों रेलवे संरक्षा और श्रमसाध्य विभागों से जुड़े परिचालन (लोको पायलट्स, गार्ड्स, ट्रैकमैन) कर्मचारियों के लिए एक सेवानिवृत्ति योजना लारजेस–– (लिबरलाइज्ड एक्टिव रिटायरमेण्ट गारण्टेड इम्प्लायमेण्ट फार सेफ्टी स्टाफ) लाया था। इसमें ऐसे लोकोपायलट जिनकी उम्र 55–57 के बीच तथा सेवा अवधि 33 वर्ष पूरी हो चुकी थी, अन्य श्रेणियों के लिए (उम्र सीमा 50–57 के बीच तथा सेवा अवधि 20 वर्ष) हो चुकी थी, उनके शरीरिक फिटनेस के मापदंडों को देखते हुए, उनके आवेदन पर उन्हें सेवानिवृत्ति देने का प्रस्ताव था। इस तरह सेवानिवृत्ति लेने पर, अन्य योग्यताओं के पूरा करने पर, कर्मचारी के एक आश्रित पुत्र–पुत्री को 1900 के ग्रेड पे पर नियुक्ति देने का प्रस्ताव था। एक अच्छी खासी संख्या में लोको पायलटों द्वारा उस योजना का लाभ उठाया गया क्योंकि उनकी नजर में कम से कम एक सरकारी नौकरी की गारण्टी काफी मायने रखती थी। बाद में रेलवे द्वारा, न्यायालय के फैसले के आलोक में इस योजना को बन्द कर दिया गया। हालाँकि न्यायालय के काफी सारे फैसले सरकार अपनी सुविधानुसार ही लागू करती है।

अब जब वर्तमान समय में रेलवे ने अपने हर विभाग के स्थायी कर्मचारियों को हर हालत में कम करने की योजना बना ली है, फिर से एक नयी सेवानिवृत्ति योजना “सैल्यूट”–– (स्कीम फार एडवांस्ड एंड लिबरलाइज्ड अनबर्डेनिंग आफ ट्रैक मेण्टेनर्स/इंजिन पायलट्स) लायी गयी है। इसमें भी इन्हीं दोनों कैटेगेरी ( ट्रैकमैन, लोकोपायलट्स) को लक्ष्य किया गया है, क्योंकि अन्य श्रेणियों के रेलवे कर्मचारियों को हटाने (उनके काम संविदा पर कराने) की योजना पर अमल पहले ही हो चुका है। गुड्स एवं यात्री गाड़ियों के परिचालन में भी आनेवाले समय में निजी कर्मचारियों को नियुक्त किये जाने के खतरनाक संकेत विभिन्न माध्यमों से मिल रहे हैं। उसी के परिप्रेक्ष्य में इस सेवानिवृत्ति योजना को देखा जा सकता है। रेलवे हालाँकि उनकी सेवानिवृत्ति के लिए कठिन ड्यूटी, स्वास्थ्य, बढ़ती उम्र, संरक्षा–सुरक्षा के खतरे का हवाला दे रही है, और 60 साल की उम्र तक प्रतिवर्ष तीन सेट सुविधा पास, वार्षिक वेतनवृद्धियों के आधे का लाभ का प्रोत्साहन भी दे रही है, लेकिन आश्रितों की नियुक्ति का कोई प्रावधान इस नयी योजना में नहीं है। रेल महकमे के इन खोखले तर्कों की असलियत तब उजागर हो जाती है जब सेवानिवृत्त किये हुए कर्मचारी को फिर से उसी कार्यालय में मानदेय पर नियुक्त कर लिया गया है।

कर्मचारियों की मन: स्थिति

इन विकट नीतिगत, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों में, बुनियादी श्रमिक अधिकारों को बनाये रखने के लिए कर्मचारियों में संघर्ष, वर्गीय चेतना का घोर अभाव है, कर्मचारी बुझे मन से हर समस्या का हल तलाशते हैं। निराशा, हताशा, कुंठा में सरकार के हर निर्णय को वे निर्विरोध स्वीकार करने लगे हैं। इस कुंठाग्रस्तता, निराशा के पीछे का बुनियादी कारण केन्द्रीय मजदूर यूनियनों का सुधारवाद (उनकी निष्क्रियता, मौकापरस्ती, सुविधावादी सोच, प्रतिक्रियावाद) और संघर्ष से पलायन की मनोवृतित्त है, मजदूरों को यह सब समझने की जरूरत है। सामाजिक सुरक्षा के आधार, पेंशन को समाप्त कर उसकी जगह एनपीएस ला दिये जाने के सवाल पर भी वही हताश जवाब कि “नहीं देगा तो क्या कर लेंगे” आज के मजदूर संगठनों की स्थिति को लेकर गम्भीर सवाल खड़ा करता है। इस तरह का भाव आज नव उदारवादी नीतियों से काफी गहरे तक, समाज के हर तबके तथा संगठित–असंगठित दोनों क्षेत्र के मजदूरों के बीच जम चुका है कि अब कुछ नहीं हो सकता। निजी स्तर पर हर समस्या का हल तलाशने वाली और महज कर्ज के बूते अपने भविष्य की पगार गिरवी रख देनेवाली आज की युवा मजदूरों की कतार शिक्षा, चिकित्सा, स्वास्थ्य, बीमा, आवास, जैसी बुनियादी, मूलभूत जरूरतों के लिए कर्ज के जाल में इस कदर फँस चुकी है कि उसका वर्गीय चरित्र (खोने को कुछ नहीं, पाने को सारी दुनिया) स्वाभाविक रूप से समाप्त हो चला है। संघर्ष के नाम पर, उसके परिणाम का भूत उन्हें सोते–जागते ड्यूटी करते, हमेशा सताता रहता है। एक मजदूर साथी की परेशानी दूसरे को परेशान नहीं करती। रही–सही कसर रेलवे की अफसरशाही पूरा कर दे रही है। अफसरशाही मजदूरों के बीच व्याप्त जातिगत, वर्गीय विषमता का भरपूर का लाभ उठाकर उन्हें आपस में लड़ाकर, अपना मकसद पूरा करती रहती है। इसमें मीडिया तथा संस्थानों की राजनीति उन्हें भरपूर सहयोग करते रहते हैं। उसे वैकल्पिक रास्ता दिखलाना आज के मौकापरस्त मजदूर संगठनों के बूते के बाहर हो चुका है। सार्वजनिक व्यवस्था यानी सबकी मेहनत और भूमिका से सबके लिए मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करते हुए ही हम संकीर्ण कर्मचारी मानसिकता, पूँजीवादी मानसिकता की गम्भीर बीमारी से बाहर निकलकर वैकल्पिक रास्ते की तरफ बढ़ सकते हैं।

ट्रेड यूनियनों की भूमिका का सवाल

ऐतिहासिक रूप से भारत में ट्रेड यूनियनों, मजदूर आन्दोलनों का जो उभार रहा है वह व्यापक स्तर पर एकता और संघर्ष के सिद्धान्त का प्रयोग ही रहा है। सैद्धान्तिक, अपरिहार्य व्यवहारिक–विभाजनों के बीच केन्द्रीय श्रम संगठनों तथा सेक्टरवार फेडरेशनों का संयुक्त मंच ही कोई मजबूत (1974, 1981) चुनौती सरकार को दे पाया है। आज इस प्रक्रिया में गम्भीर भटकाव और विकृति आ चुकी है। स्वतंत्र पहलकदमियों और संयुक्त कार्रवाई के बीच सन्तुलन या सामंजस्य की कमी, श्रमिक वर्ग की वैचारिक पहचान और व्यापक वर्ग एकता के बीच सन्तुलन की कमी, नियोक्ता के खिलाफ आर्थिक संघर्ष तथा सरकार की नीतियों से उनके सम्बन्ध की बारीक पहचान की कमी, आज सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल हैं जिनसे आज का रेल मजदूर आन्दोलन तथा उसका नेतृत्व पूरी तरह से विमुख हो चुका है।

मजदूर वर्ग की मुक्ति के लक्ष्य को लेकर शुरू हुआ मजदूर आन्दोलन आज सम्मानजनक वेतन, एक समान वेतन, न्यूनतम वेतन के रास्ते आज “कोई श्रमिक अधिकार नहीं” की दहलीज तक पहुँच चुका है। मशीनरी मजदूर वर्ग के बीच मजबूत और कमजोर बिन्दुओं को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दे रही है। इसमें मजदूरों की एक समान कार्यपरिस्थितियाँ लेकिन पृथक वर्गीय पृष्ठभूमि सबसे बड़े कारक हैं। ट्रेड सम्बन्धी संकुचित मनोवृत्ति, अराजनीतिकरण, वर्गीय चेतना का अभाव, उपभोक्तावाद, आदि ने आज रेल मजदूरों की स्थिति एक ऐसे मशीनीकृत इंसान के रूप में कर दी है कि उसकी “प्रोग्रामिंग” व्यवस्था जैसा चाहे वैसा कर ले रही है।

 विनिवेश, तात्कालिक आर्थिक सुधारों, ठेकाकरण के द्वारा, रेलवे के कारखानों, स्टेशनों, रनिंग रूमों में कैजुएल वर्कर्स (उसमें भी महिला कर्मियों की भारी संख्या) की ऐसी फेहरिस्त ला दी गयी है, जो बिलकुल ही मजदूर वर्ग की चेतना से विलग है।

नेतृत्व, संगठन, सदस्य सब आज एक दूसरे के ऊपर अविश्वास और दोषारोपण करते हैं और इसके पीछे वाजिब, ठोस कारण भी हैं। आज मौकापरस्त या प्रतिक्रियावादी और अपने को क्रान्तिकारी कहने वाली ट्रेड यूनियनों के बीच की विभाजन रेखा लगभग क्षीण हो चुकी है।

अब मजदूर आन्दोलन को अपनी कार्यप्रणाली, योजना (शार्ट टर्म–लांग टर्म) में व्यापक परिवर्तन लाते हुए संगठित मजदूरों के साथ असंगठित मजदूरों, चाहे वे सरकारी, सार्वजनिक क्षेत्र में हो या निजी क्षेत्र में, साथ लेकर उन्हें वर्गीय चेतना से लैस कर व्यापक एकता बनाने की जरूरत है। अपना वजूद बचाने, मान्यता बचाने की जद्दोजहद से जूझ रही ट्रेड यूनियनों से आज कुछ भी उम्मीद करना बेमानी है। सबसे बड़ा सवाल उनके बीच आज नेतृत्व के संकट का खड़ा हो गया है। सक्षम नेतृत्व का अभाव तथा उसके परिणामस्वरूप संगठन के सदस्यों का नेतृत्व के प्रति नजरिया आज एक काफी निराशाजनक माहौल बना डालने में महती भूमिका निभा रहे हैं। साथ ही साथ नेतृत्व के लिए विकल्पहीनता का माहौल भी पैदा हो गया है क्योंकि सक्षम, जुझारू, प्रतिबद्ध, नेतृत्व संघर्षों से पैदा होता है और जमीनी स्तर पर ठेठ संघर्ष कहीं हो नहीं रहा है। जो हो रहा है वह महज रस्मी और खानापूर्ति के लिए हो रहा है। वर्गीय चेतना के अभाव में भावनात्मक रूप से जुड़ने वाली कतारें एक झटके के बाद कहाँ छू मन्तर हो जाती है, पता ही नहीं चलता। आज अगर आर्थिक, सामाजिक, नीतिगत मसलों पर संघर्ष की योजना बनानी हो तो हमें सबसे पहले अपनी कतारों की राजनीतिक चेतना, वर्गीय चेतना और फिर से नये बदले आर्थिक, सामाजिक परिवेश में नयी ट्रेड यूनियन संस्कृति का ककहरा सबसे पहले पढना–पढ़ाना होगा।

निश्चित रूप से स्थापित मजदूर संघों के नेता कर्मचारियों की उदासीनता को दूर करने और युवा पीढ़ी के मजदूरों को शोषण और जुल्म का प्रतिकार करने के लिए उत्प्रेरित करने में विफल रहे हैं।

मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक दायित्व

कोरोना महामारी संकट के दौरान यह उजागर हो गया है कि किसी भी कठिन, असामान्य समय में सरकारी, सार्वजनिक उपक्रम ही आम और खास दोनों नागरिकों के काम आते हैं। निजी अस्पताल, परिवहन, विद्यालय कठिन समय में सबसे पहले मैदान से भागने वालों में होते हैं। जैसा कि अभी तक निजी अस्पतालों में कोरोना मरीजों का भर्ती न लिया जाना कड़वी सच्चाई बयाँ कर रहा है। लाकडाउन में सीमित संसाधनों के बावजूद जान जोखिम में डालकर हमारे सरकारी अस्पताल, उनके डॉक्टर ही काम पर डटे रहे और अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए अब तक सैकड़ों डॉक्टर, नर्स अपनी शहादत दे चुके हैं। कारखानों, व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के बन्द होने से, बेरोजगारी, भुखमरी के भय से बदहवास, पैदल अपने घरों की ओर भाग रहे कामगारों को सार्वजनिक उपक्रम रेल ने ही अन्तिम समय में उन्हें उनकी मंजिल तक पहुँचाया।

इसलिए अपनी जिम्मेदारी तथा देश के प्रति सच्ची निष्ठा और नागरिकता बोध का परिचय देते हुए मजदूर वर्ग का (अगुवा दस्ता होने के नाते खासकर रेलवे के मजदूरों का) यह महत्त्वपूर्ण कार्यभार बनता है कि राष्ट्रीय महत्त्व के इस सरकारी उपक्रम के निजी हाथों में सौंपे जाने के पीछे के सरकार के मंसूबों को आमजनों के बीच लगातार अभियान चलाकर, बेनकाब करने का बीड़ा उठाये, आगे के दिनों में निजीकरण के विरोध में संघर्ष की तैयारी के लिए समाज के सभी तबकों–– किसानों, छात्रों, बेरोजगारों, महिलाओं के बीच व्यापक एकजुटता बनाये, जिससे वर्षों के बलिदान, खून–पसीने से खड़े किये गये राष्ट्रीय महत्त्व के भारतीय रेल को बचाया जा सके। और अन्त में दुष्यन्त कुमार के शब्दों मंे––

पक गयी हैं आदतें, बातों से सर होंगी नहीं

कोई हंगामा करो, ऐसे गुजर होगी नहीं

आज मेरा साथ दो, वैसे मुझे मालूम है

पत्थरों में चीख हरगिज कारगर होगी नहीं।

(लेखक सामाजिक, सांस्कृतिक एवं ट्रेड यूनियन के क्षेत्र में गोरखपुर में सक्रिय कार्यकर्ता हैं)

(साभार अग्नि आलोक डॉट कॉम)