22 जुलाई 2019 को केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने पुराने भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) की जगह राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग के गठन के लिए विधेयक 2019 लोकसभा में पेश किया। इस विधेयक का उद्देश्य 63 साल पुराने एमसीआई को भंग करके इस नये विधेयक को लागू करना था। 1 अगस्त 2019 को इसे पारित भी कर दिया गया। संसद के दोनों सदनों में पारित हो जाने के बाद 8 अगस्त 2019 को इसे राष्ट्रपति की मंजूरी भी मिल गयी और यह विधेयक अब कानून बन चुका है।
इस विधेयक को सरकार जनता के हितों से जुड़ा बता रही है लेकिन डॉक्टरों ने देशभर में लगातार इसका विरोध किया है। विधेयक के खिलाफ डॉक्टरों ने 1 से 4 अगस्त 2019 तक दिल्ली समेत पूरे देश में हड़ताल, विरोध प्रदर्शन किये। उनका सबसे ज्यादा विरोध नेक्स्ट परीक्षा को लेकर है। 
इस नये विधेयक में चिकित्सा–शिक्षा को राष्ट्रीय स्तर पर एक समान बनाने का प्रस्ताव है। जिसके अनुसार अब देश भर में एमबीबीएस के (सभी निजी व सरकारी मेडिकल कॉलजों तथा विदेशों से पढ़ने आने वाले) छात्रों को अंतिम वर्ष में एक ही परीक्षा नेशनल एग्जिट टेस्ट (नेक्स्ट) देनी होगी। इसी के आधार पर यह तय होगा कि वह आगे स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए प्रवेश के या समाज को अपनी सेवाएँ देने के योग्य है या नहीं। एमबीबीएस और पीजी कोर्स में 50 प्रतिशत सीटों की फीस पर आयोग के नियंत्रण का प्रावधान भी विधेयक में है। इसके अलावा प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा सुधारने और देशभर में स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की संख्या बढ़ाने के लिए, आयुर्वेद व होम्योपैथी के चिकित्सकों (आयुष चिकित्सकों) के लिए एक ब्रिज कोर्स का प्रावधान भी है, जिसके अनुसार वे 6 महीने का कोर्स करके प्राथमिक स्तर पर एलोपैथी की प्रैक्टिस कर सकेंगे। इसके लिए उन्हे आयोग द्वारा सामुदायिक स्वास्थ्य प्रदाता लाइसेंस जारी किया जाएगा। साथ ही राज्य सरकारों को भी छूट होगी कि वे इसी तरह के औषधि विक्रेता, दंत चिकित्सक या मेडिकल प्रैक्टिस करने वालों को ऐसा लाइसेन्स जारी कर सके।
 केबिनेट सचिव राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग के अध्यक्ष होंगे तथा इसमें 25 सदस्य होंगे। आयोग में नॉन–मेडिकल सदस्य ज्यादा होंगे तथा राज्यों का प्रतिनिधित्व कम होगा। 25 में से 14 सदस्य मनोनीत होंगे यानि सरकार के द्वारा चुने जाएँगे। इन्हे स्वास्थ्य सचिव और अन्य केबिनेट सचिवों की सर्च कमेटी मनोनीत करेगी। इस तरह आयोग पर सरकार का जबरदस्त नियंत्रण होगा।
जहाँ तक नेक्स्ट परीक्षा का सवाल है यदि एमबीबीएस के बाद पीजी प्रवेश के लिए राष्ट्रीय स्तर पर नेक्स्ट को आधार बनाया जाएगा तो निजी मेडिकल कॉलेजों में पैसा ले–दे कर या किसी ऑनलाइन हैकिंग आदि के जरिये अयोग्य या कम योग्य छात्रों को पीजी में ज्यादा से ज्यादा प्रवेश दिलाने के लिए धाँधली होने की काफी सम्भावनाएँ होंगी। इससे सरकारी मेडिकल कॉलेजों के मेधावी छात्र जो दिन–रात मेहनत करते हैं पीजी में प्रवेश से वंचित रह जाएँगे। 
पहले के भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) में केवल 15 प्रतिशत सीटों की फीस निर्धारित करने का अधिकार ही निजी कालेजों के प्रबन्धन के पास था 85 प्रतिशत का अधिकार एमसीआई के पास था, लेकिन अब 50 प्रतिशत सीटों का अधिकार आ जाने से जो मेधावी छात्र गरीब हैं उनकी चिकित्सा–शिक्षा के क्षेत्र में भागीदारी कम हो जाएगी क्योंकि वो भारी भरकम फीस (जो निजी कॉलेजों में आज ही करोड़ों में जा पहुँचती है) नहीं भर पाएंगे। यानी निजी कॉलेजों को ज्यादा सीटें बेचने की खुली छूट मिल गयी, इससे तो अब अपने बच्चों को डॉक्टर बनने का सपना केवल पैसे वाले अमीर लोग ही देख सकते हैं। रेसिडेन्ट डॉक्टर्स एशोसिएशन के सह–अध्यक्ष डॉ हरजीत सिंह भट्टी के अनुसार सीटों का यह बँटवारा निजी मेडिकल कॉलेजों के हिस्से में 50 प्रतिशत के भी ऊपर जाएगा। 
ब्रिज कोर्स के जरिये आयुष चिकित्सकों को एलोपैथी प्रैक्टिस (एक सीमा तक) का अधिकार देकर स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की संख्या बढ़ाने के पीछे तर्क है कि देश में डॉक्टरों की संख्या कम होने की वजह से स्वास्थ्य सेवाएँ बुरी हालत में हैं, साथ ही साथ शिक्षा का ढाँचा भी खराब होने के कारण जो डॉक्टर तैयार होते हैं वे प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में सेवाएँ देने के लायक नहीं हैं। ये तर्क अपने आप में ही विरोधाभासी है। यदि 5 साल एमबीबीएस की पढ़ाई करने के बाद भी ऐसा हो रहा है कि छात्र अयोग्य रह जाते हैं तो ये 6 महीने का ब्रिज कोर्स आयुर्वेद व होम्योपैथी के ‘आयुष चिकित्सकों’ को स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार लाने के योग्य कैसे बना पाएगा? विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू एच ओ) का मानक है कि प्रति हजार लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए। हमारे यहाँ दक्षिण भारत में ये अनुपात अभी भी देखने को मिलता है और साथ ही साथ हर साल देश में लगभग 60 हजार डॉक्टर तैयार हो रहे हैं, इस तरह से अगले तकरीबन 5 सालों में यह अनुपात पूरे देश में कायम हो जाएगा। फिर जल्दबाजी में ब्रिज कोर्स के जरिये आधे–अधूरे झोलाछाप डॉक्टरों को तैयार करने की क्या जरूरत? यह तर्क देना कि ब्रिज कोर्स करके आयुष चिकित्सक (आयुर्वेद व होम्योपैथी चिकित्सक) भी झोलाछाप की श्रेणी में नहीं आ जाएँगे बिल्कुल आधारहीन है क्योंकि आजकल ग्रामीण इलाकों में जो झोलाछाप डॉक्टर गैर–कानूनी तरीके से स्वास्थ्य सेवाएँ दे रहे हैं उन्हे भी एलोपैथी की मामूली सी ही जानकारी होती है, ब्रिज कोर्स भी आयुष चिकित्सकों को प्राथमिक इलाज ही सिखाएगा, डॉक्टर नहीं बना देगा। लेकिन सरकार का दावा है कि एनएमसी के लागू होने से स्वास्थ्य सेवाओं में गुणात्मक सुधार आएगा। 
सरकार के सभी खोखले दावों के बावजूद एनएमसी सरकार के अधीन एक भ्रष्ट आयोग बनकर ही रह जाएगा। इसमें सरकार द्वारा मनोनीत सदस्यों का ही वर्चस्व रहेगा। निजी मेडिकल कॉलेजों को मनमानी फीस वसूलने कि खुली छूट मिल जाएगी। आर्थिक रूप से कमजोर छात्र चिकित्सा–शिक्षा से पूरी तरह वंचित हो जाएँगे। ब्रिज कोर्स के चलते अयोग्य स्वास्थ्य सेवाएँ देने वालों की ही भीड़ बढ़ेगी। कुल मिलाकर यह विधेयक चिकित्सा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में निजीकरण को बढ़वा देने और बहुसंख्य जनता को इससे वंचित करने वाला फैसला है।