भारतीय समाज व्यवस्था की मौजूदा स्थिति बहुत ही सोचनीय और दयनीय है। भारत की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संकट घटने के बजाय लगातार बढ़ता ही जा रहा है। दूसरी तरफ देश का भविष्य तरुण पीढ़ी यानी 8 से 16 साल के नाबालिग बच्चे जो भविष्य में देश का निर्माण करने, देश को नयी दिशा देने के साथ–साथ नयी उचाइयों तक पहुँचने का काम कर सकते हैं, उस तरुण पीढ़ी द्वारा ऐसे जघन्य अपराध किये जा रहे हैं जिसको सुनकर किसी भी इनसान की रूह काँप उठेगी।

10 जुलाई को आन्ध्र–प्रदेश के नन्दयाल जिले में कक्षा 3 में पढ़ने वाली 8 वर्ष की बच्ची के साथ तीन नाबालिग छात्रों ने सामूहिक बलात्कार करने के बाद गला दबाकर हत्या कर दी। इन छात्रों की उम्र मात्र 12–13 साल है। थाने में पुलिस द्वारा पूछे जाने पर आरोपी छात्रों ने बताया कि पॉर्न वीडियो देखने के बाद, वे बच्ची को फुसलाकर ले आये और उसके साथ वैसा ही किया जैसा उन्होंने पॉर्न वीडियो में देखा था। हत्या के बाद वे डर गये, फिर लाश को पास की नहर में छुपा दिया। डरे हुए छात्रों ने जब अपने रिश्तेदारों और परिजनों को इस अपराध के बारे में बताया तो उन्होंने भी बहुत अमानवीय तरीके से लाश को नहर से निकालकर दुपहिया वाहन की सहायता से पत्थर से बाँधकर कृष्णा नदी में फेंक दिया। यह घटना दिल दहला देने के साथ–साथ हमारे पतनशील समाज का आईना भी है।

नाबालिग बच्चों द्वारा किये गये अपराध की यह अकेली घटना नहीं है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़े बताते हैं कि केवल 2021 में नाबालिगों के खिलाफ करीब 31 हजार से ज्यादा क्रिमिनल केश दर्ज हुए और 37 हजार से ज्यादा गिरफ्तारियाँ हुर्इं। जबकि इससे कई गुना ज्यादा वारदात दबकर रह जाती हैं, समझौतों और परिवार की मान–मर्यादा के कारण।

नाबालिग अपराधों को कम करने के लिए सरकार कठोर कानून बना रही है। 2012 में नाबालिगों को अपराध के लिए पोक्सो अधिनियम में उम्र कैद की सजा का कानून बनाया और 2019 में इसमें संशोधन करके और भी कठोर किया गया। नाबालिग को अब फाँसी की सजा भी हो सकती है। लेकिन इसके बाद भी अपराध रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। हालत यह है कि मोबाइल गेम खेलने से रोकने पर बच्चे अपने माता–पिता की हत्या कर रहे हैं, ऐसी घटनाएँ लगातार हमारे सामने आ रही हैं। ऐसी ही एक घटना कुछ दिनों पहले दिल्ली में हुई जिसमें 16 वर्ष का नाबालिग लड़का कई बार चाकू मारकर एक व्यक्ति की हत्या करता है। उसकी लाश के सामने डांस करता है और उसकी जेब से 350 रुपये निकालकर चला जाता है।

जिस उम्र में बच्चों को खेलना–कूदना चाहिए और सामाजिक भलाई के काम सीखने चाहिए तथा अपनी पढ़ाई में जी–जान लगा देनी चाहिएय कहानी, कविताएँ, बाल–साहित्य के साथ नयी–नयी कलाओं को सीखना चाहिए, जैसे गीत–संगीत, नाटक, पेण्टिंग आदिय उस उम्र में बच्चे नशाखोरी, हत्या, लूट, बलात्कार, दंगे जैसी क्रूर और अमानवीय हिंसा करने को क्यों मजबूर हैं? बच्चों का बचपन कौन निगल रहा है? आखिर हमारी समाज व्यवस्था को किसकी नजर लग गयी?

हम समझ सकते हैं कि हमारे शासक वर्ग द्वारा बनाये गये कानूनों से ऐसी वारदातों को रोकना सम्भव नहीं है क्योंकि हमारी समाज व्यवस्था दूषित हो गयी है जिसका असर नाबालिगों पर पड़ रहा है और इसे दूषित करने में सरकार की भागीदारी कम नहीं है।

1991 में हमारे रहनुमा शासक वर्ग ने विदेशी पूँजी के सामने घुटने टेक दिये और नयी आर्थिक नीतियों के जरिये जनता को लूटने की रणनीति तैयार कर दी। भारत के बाजार को पूरी तरह खोल दिया गया जिससे विदेशी पूँजी और बहुराष्ट्रीय निगमों ने जमकर लूट मचायी। विदेशी पूँजी के साथ–साथ विदेशी पतनशील संस्कृति का प्रवेश भी हुआ। बहुराष्ट्रीय निगमों ने सुनियोजित तरीके से भारत की समाज व्यवस्था पर हमले शुरू किये। पहले से भारत की सड़ी हुई समाज व्यवस्था जिसमें सामन्ती मूल्य मान्यताएँ जातिवाद, लैंगिक असमानता, ढोंग–पाखण्ड आदि का बोलबाला था, उसमें पूँजीवादी पतनशील संस्कृति ने अलगाव, उपभोक्तावाद, बाजारवाद और अश्लीलता का जहर घोल दिया। इसने भारत की समाज व्यवस्था को सड़ाने में ‘कोढ़ में खाज’ का काम किया।

बहुराष्ट्रीय निगमों ने अपना माल बेचने और मुनाफे को लगातार बढ़ाने के लिए टीवी, मोबाइल, अखबार, सभी प्रचार–प्रसार के माध्यम और मनोरंजन के साधनों का इस्तेमाल किया। उन्होंने इनके जरिये भारत की समाज व्यवस्था में भोग–विलास, खुदगर्जी, यौन–विकृति, व्यक्तिवाद और पाशविक प्रवृत्तियों को प्रचारित–प्रसारित किया। फूहड़ गीत–संगीत, अश्लीलता, खुलेआम सेक्स उत्तेजक दवाइयों का प्रचार करने का काम किया गया। फिल्मों के जरिये अश्लीलता और कामुकता परोसी जा रही है।

जिस देश में हर पाँचवा व्यक्ति किशोर अवस्था में हो यानि 30 करोड़ की जनसंख्या 10–18 वर्ष की हो तो ये नाबालिग ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बाजार का बड़ा हिस्सा दिखाई दे रहे हैं। उनका उद्देश्य है कि जितना सम्भव हो, इस किशोर पीढ़ी को माल खरीदने के लिए उत्तेजित किया जाये। इस पीढ़ी के लिए ऐसे विज्ञापन बनाना कि मोबाइल, ब्राण्डेड कपड़े, जूते आदि नहीं खरीद सकता वह समाज में रहने लायक नहीं। जिसके पास यह सब नहीं उसे ग्लानि महसूस करायी जाती है। ऐसी फिल्में दिखाना जिनमें छोटे–छोटे बच्चों की भी प्रेमिका होनी चाहिए।

मोबाइल पर खतरनाक गेम खेलना, 30 सेकेण्ड की वीडियो बनाकर इंटरनेट पर डालना और देखना किसी भी बच्चे को एक जगह स्थिर होकर सोचने का मौका नहीं देती। देशी–विदेशी पूँजीपति जानते हैं कि अगर किशोर अवस्था की पीढ़ी सोचने लगी और चेतनाशील हो गयी तो उनकी पूँजीवादी संस्कृति, उपभोक्तावाद अश्लील संस्कृति और मेहनतकश की लूट ज्यादा दिन नहीं टिक सकती। इनकी पतनशील संस्कृति का हमला लगातार जारी है। नाबालिगों को मानसिक विकलांग बनाने में आज की उपभोक्तावादी, पतनशील पूँजीवादी संस्कृति सफल दिखाई दे रही है।

पूँजीवादी पतनशील संस्कृति इस तरह बच्चों से लेकर बड़ों तक में ऐसी ख्वाहिशें और मानसिकता पैदा कर रही है जो उन्हें अलगाव का शिकार बनाती है और उन्हें पतन की ओर ले जाती है। फिर यही मानसिकता बच्चों को अपराध करने को मजबूर करती है।

क्या जैसा चल रहा है उसको वैसा ही चलने दिया जाये? नहीं, हम जानते हैं कि सवेरा होने से पहले का अन्धेरा बहुत घना होता है, लेकिन सवेरा होता है यह निश्चित है।

तरुण पीढ़ी को उपभोक्तावादी, बाजारवादी अश्लील और पतनशील पूँजीवादी संस्कृति के खिलाफ सचेत करना और प्रतिरोध की संस्कृति के साथ क्रान्तिकारी इतिहास से इस पीढ़ी को रूबरू कराना, आज हर इन्साफपसन्द और प्रगतिशील व्यक्ति की जिम्मेदारी है जो पूँजीवादी व्यवस्था को बदलकर न्यायसंगत और समानता पर आधारित समाज व्यवस्था का निर्माण करना चाहते हैं।

–– साग