अन्त:करण और स्वास्थ्य के बुनियादी ढाँचे का आभाव भारत के गरीबों के लिए मौत का नुस्खा है।

भारत ऐसी घटनाओं से भरपूर है जो पहले भी हुई हों लेकिन हर बार नयी लगती हैं और जितनी ही चीजें बदलती हैं, उतनी ही पहले जैसी बनी रहती हैं।

2017 में ही गोरखपुर में 175 बच्चे इन्सेफेलाइटिस से मरे थेय आज उसी बीमारी से मुजप्फरपुर में 156 से भी ज्यादा बच्चे मर चुके हैं।

इस बीच एक ही चीज बदली है, वह है आयुष्मान भारत कार्यक्रम, यानी प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना का भव्य आरम्भ, जिसके तहत देश के 50 करोड़ गरीबों के स्वास्थ्य की देखभाल का आश्वासन दिया गया था।

मुजफ्फरपुर की महामारी इसकी पहली बड़ी परीक्षा थी और यह बुरी तरह असफल हुआ है।

मैं हर शाम टेलीविजन चैनलों पर कचरों के मंथन को शायद ही कभी देखता हूँ, लेकिन 18 जुलाई को मिरर नाउ पर एक कार्यक्रम देख कर मेरे क्षयग्रस्त अन्त:करण पर इस तरह कीड़े रेंगने लगे, जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। इसमें एक जिला अस्पताल की भयावह तस्वीर दिखायी गयी थी जहाँ वार्डों में डॉक्टर नहीं, दवा नहीं, बिजली नहीं, एक सर्वव्यापी गन्दगी का आवरण, रोगियों के लिए सड़ा खाना और एक बेड पर दो–तीन मरते बच्चे ठूँसे हुए। सब कुछ दौरे पर आने वाले केन्द्रीय मंत्री, एक मुख्यमंत्री और एक राज्य स्वास्थ्य मंत्री द्वारा सही प्रमाणित किया गया जिन्होंने मौत के लिए खाली पेट लीची खाने और प्रशासन की चुनावों में व्यस्तता को जिम्मेदार ठहराया।

जैसा कि कार्यक्रम में भाग लेने वाले एक व्यक्ति ने कहा, जो खुद ही एक डॉक्टर था, कि इन वार्डों में तीन दिन रहने के बाद कोई स्वस्थ आदमी भी जिन्दा नहीं रह सकता।

आयुष्मान भारत योजना का क्या हुआ, जिसे सबके लिए स्वास्थ्य की रामबाण दवा बताते हुए डींग हाँकी गयी थी?

जवाब बहुत सीधा है, क्योंकि यह एक क्विक फिक्स, एक एम–सिल के सिवा कुछ नहीं जो दरार की मरम्मत किये बिना, सिर्फ उसको चिपका देती है। ऐसा नहीं है कि यह योजना दोषपूर्ण है, समस्या यह है कि यह समस्या के उस मूल करण का हल नहीं सुझाती, जिसे गोरखपुर की तरह ही मुजफ्फरपुर ने सामने ला दिया। ग्रामीण इलाके में सरकारी और निजी स्वास्थ्य ढाँचे का भारी आभाव।

अपनी प्रमुख जिम्मेदारी को पूरा न करने वाली सरकार के लिए गिनीज बुक में नाम लिखवाने की लत एक बहाना है। दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी, दुनिया की सबसे ऊँची मूर्ति, दुनिया की सबसे बड़ी आय वितरण स्कीम, पूरी धरती पर सबसे बड़ा स्वास्थ्य देखरेख कार्यक्रम, इत्यादि, इत्यादि।

ये प्रभावकारी आँकड़े केवल एक बदसूरत सच्चाई को छिपाते हैं–– गाँव के गरीबों की स्वास्थ्य देखभाल तक बिलकुल पहुँच नहीं है क्योंकि जमीन पर यह मौजूद नहीं है और उनके लिए आयुष्मान का वजूद सिर्फ कागज पर है।

भारत सरकार स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का 2 प्रतिशत से भी कम खर्च करती है, जबकि वैश्विक औसत 6.5 प्रतिशत हैय स्वास्थ्य पर सरकार केन्द्रीय बजट में 32,000 करोड़ रुपये मुहैया करती है, यानी महज 300 रुपये प्रति व्यक्ति!

विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानक हर एक हजार की आबादी पर 3–5 बेड की गहनता प्रस्तावित करता है, जबकि हमारे यहाँ सिर्फ 1–3 है और आश्चर्यजनक सच्चाई यहाँ है कि इनमें से 70 प्रतिशत बेड देश के सबसे बड़े 20 शहरों में हैं।

डॉक्टरों और नर्सों की यहाँ इतनी कमी है कि सुनकर दिमाग चकरा जाता है। 15 लाख डॉक्टरों और 24 लाख नर्सों की कमी है। जबकि हमारे मेडिकल कॉलेजों से हर साल सिर्फ 50,000 डॉक्टर पढ़कर बाहर निकलते हैं। अनुमान लगाया गया है कि इन कमियों को पूरा करने के लिए 1650 अरब रुपये की जरूरत है जो हमारे सकल घरेलू उत्पाद का 2 प्रतिशत होता है।

स्वास्थ्य ढाँचे की इसी गहरी खाई को पाटना सरकार के लिए बेहद जरूरी है। अगर वह इस काम में नाकामयाब होती है तो इसका मतलब यह है कि आयुष्मान भारत हद से हद शहरी आबादी के लिए ही रह जाएगा और भारत की 60 प्रतिशत जनता को मुजफ्फरपुर जैसी घटनाओं का सामना करने के लिए छोड़ दिया जाएगा।

आयुष्मान योजना का मकसद निजी क्षेत्र के अस्पतालों को सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं में मौजूद कमियों का लाभ उठाने में समर्थ बनाना है, लेकिन जब ग्रामीण क्षेत्र में प्राइवेट अस्पताल का अस्तित्व ही नहीं रहेगा, जैसी हालत अभी है, क्योंकि वहाँ पैसा बनाने का मौका बहुत कम है, तो यह बिजनेस मॉडल फेल हो जाएगा। फिर गम्भीर रोगी कहाँ जायेंगे?

सरकार अभी भी यह भ्रम फैला रही है कि बड़ी–बड़ी घोषणाएँ और परियोजनाएँ समस्या का समाधान कर देंगी।—प्रमाण के रूप में हमने देखा कि इसी सप्ताह केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने गर्व से दावा किया कि मुजफ्फरपुर के लिए एक सुपर स्पेशलिटी अस्पताल स्वीकृत किया गया है। इससे कोई मदद नहीं मिलने वाली, क्योंकि प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के अभाव में रोगी मिथकीय सुपर अस्पताल तक पहुँचने से पहले ही मर जाते रहे हैं।

अध्ययन बार–बार यह दिखाते रहे हैं कि 80 प्रतिशत बीमारियाँ पीएचसी स्तर पर ही ठीक हो जातीं, बशर्ते सरकार  उनके ऊपर पैसा खर्च करने को लेकर गम्भीर होती। इसके बजाय, जैसा कि एक टीवी रिपोर्ट में दिखाया गया, मुजफ्फरपुर के 90 प्रतिशत पीएचसी बेकार पड़े हैं। यही हाल अधिकांश राज्यों का है।

अगर वे कामयाब हालत में होते तो इनमें से ज्यादातर मरनेवाले बच्चों को बचाया जा सकता था।

इसलिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं कि आयुष्मान भारत उनको बचा नहीं पाया, ठीक उसी तरह जैसे प्राइवेट सेक्टर को आउटसोर्स किये गये दूसरे उपहार, किसान बीमा योजना ने किसानों के लिए कुछ खास नहीं किया, जो इस सुधार के जरिये लगातार खुदकुशी करते रहे हैं।

एक डिजिटल न्यूज आउटलेट द्वारा प्राप्त आरटीआई सूचना के मुताबिक, बीमा कम्पनियों ने केवल खरीफ की फसल के लिए किसानों से 20,747 करोड़ रुपये इकठ्ठा कियेय अबतक उन्होंने दावे के रूप में 7697 करोड़ रुपये का भुगतान किया, जबकि अभी तक 5171 करोड़ रुपये का दावा उनके पास रुका हुआ है।

इस तरह अच्छी हालत में (बीमा कम्पनियों के लिए) उनकी जेब में 13,050 करोड़ रुपये जायेंगे और खराब से खराब हालत में भी 7880 करोड़ रुपये। इस बात को समझने के लिए किसी नीति आयोग की जरूरत नहीं, कि इस बीमा योजना का लाभ किसे हुआ? मैंने कभी नहीं सुना कि बीमा कम्पनी के किसी सीईओ ने आत्महत्या कर ली।

किसान बीमा योजना या आयुष्मान भारत जैसी कोई भी आउटसोर्स बीमा योजना सरकारी प्रयास का सहायक हो सकते हैं, वे कभी भी जरूरी ढाँचा और नीति तैयार करने का विकल्प नहीं हो सकते, जैसे सिंचाई, न्यूनतम समर्थन मूल्य, गैरजरूरी प्रतिबन्धों को हटाना, गाँव के स्तर पर स्वास्थ्य सुविधा और स्वास्थ्य कर्मी उपलब्ध करना।

सरकार द्वारा अपने बुनियादी कामों की सभी आउटसोर्सिंग का यही हाल है–– शिक्षा, सार्वजानिक सुरक्षा, जन स्वास्थ्य, परिवहन, और आनेवाले दिनों में असैनिक सेवा भी। हम सरकार से उम्मीद करते हैं कि वह बुनियादी जन सुविधाएँ खुद मुहैया करे और महज इसलिए कि वह अपनी अक्षमताओं को दूर नहीं कर सकती, उनको खून चूसने वालों को न सौंप दे।

यह लगातार फैलती जा रही आउटसोर्सिंग प्लेसिबो (फुसलाने वाली दावा) से बदतर है, कम से कम प्लेसिबो नुकसान तो नहीं करती, लेकिन यहाँ तो जनता कंगाल होती जा रही है, खुद को मार ले रही है या चूहों से संक्रमित अस्पताल के एक–एक बेड पर तीन–तीन की संख्या में गुमनाम मौत का शिकार हो रही है क्योंकि एक सरकार को एक और गिनीज बुक रिकार्ड की लालसा, प्रलय के उस मंदिर, दावोस में एक नायक के स्वागत का रिकार्ड।

हालाँकि एक सवाल रह ही गया। कोई अपने अन्त:करण का आउटसोर्स किसको करता है?

(हिलपोस्ट ब्लॉग से साभार)