जाती हुई सरकार का बजट अन्तरिम बजट या लेखा अनुदान माँग (वोट ऑफ एकाउंट) होता है, ताकि नयी सरकार के गठन होने तक अगले वित्तवर्ष के कुछ महीनोें का खर्च चल जाये। लेकिन मोदी सरकार ने अपने अन्तरिम बजट को न सिर्फ पूर्ण बजट के रूप में पेश किया, बल्कि चुनावी फायदे के मद्देनजर गुब्बारे में कुछ ज्यादा ही हवा भर दी। और तो और इस बजट में जुमलों का अम्बार लगा दिया और चुनावी ‘दृष्टिकोण’ पत्र को 2030 तक विस्तारित किया।

हमारा देश आज चैतरफा संकट से घिरा हुआ है। जिन समस्याओं से तंग आकर जनता ने मनमोहन सरकार को हटाया था वे आज पहले से भी विकट रूपांतरण कर चुकी हैं। अर्थव्यवस्था की गति मंथर है। 2018 की अंतिम तिमाही में विकास दर 6 फीसदी रहा जो डेढ़ साल में सबसे कम है। विकास दर के आँकड़ों में हेराफेरी करके उसे ज्यादा दिखाने का भंडाफोड़ भी कई संस्थाओं और विशेषज्ञों ने किया था। कृषि संकट बद से बदतर हुआ है। किसान आत्महत्या की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। बड़े कर्जदारों की जमामारी के चलते बैंक और अन्य वित्तीय संस्थाओं की हालत खस्ता है। नये रोजगार पैदा होने की बात ही क्या लाखों पुराने पद समाप्त कर दिये गये। नतीजतन, बेरोजगारी आज सारी सीमाएँ लाँघ चुकी है। सीएमआईई के मुताबिक पिछले साल बेरोजगारी दर 70 फीसदी बढ़ी है। एनएसएसओ के आँकड़ों के मुताबिक 2017–18 में बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी थी जो पिछले 45 सालों में सबसे ज्यादा है। जाहिर है कि मोदी सरकार के विकास, रोजगार और किसानों की आय बढ़ाने के दावे खोखले साबित हुए हैं। ऐसे में अगर मोदी सरकार ने अपने अन्तरिम बजट को पूर्ण बजट बनाकर पेश किया है तो उसमें अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के कुछ नीतिगत उपाय दिखने चाहिए थे। लेकिन बजट में ऐसा कुछ भी नहीं है।

5 साल पहले, सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने ‘विकास’ और ‘रोजगार सृजन’ के बहाने मनरेगा जैसी योजना को खत्म करने का भरपूर प्रयास किया था, जिसे ग्रामीण अर्थव्यवस्था की तबाही के जख्म पर मरहम लगाने के लिए कांग्रेस सरकार ने शुरू किया था। भारी विरोध और दबाव के बाद ही मोदी सरकार ने उसे जारी रखा। लेकिन ‘विकास’ के बड़े–बड़े दावों, हर साल दो करोड़ लोगों को रोजगार देने और किसानों की आय डेढ़ गुनी करने के वादे ‘जुमले’ ही साबित हुए। इसके चलते आये दिन छोटे–बड़े और उग्र आन्दोलनों का सिलसिला शुरू हुआ था। बेरोजगार नौजवानों का असंतोष और आक्रोश चरम पर पहुँचने लगा जो तीन राज्यों में भाजपा की पराजय के रूप में सामने आ गया। अब अपने आखिरी बजट में ‘विकास’ और ‘रोजगार सृजन’ के वादों से पलटा खाते हुए मोदी सरकार ने मनरेगा जैसी किसी कल्याणकारी योजना से भी नीचे गिर कर सीधे सदाव्रत बाँटने और किसानों के खातों में पैसा डालने पर उतर आयी है।

बजट में प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के नाम पर 2 हेक्टेयर से कम जमीन वाले किसानों के खाते में 6,000 रुपये सालाना यानी 500 रुपये महीना डालने का फैसला सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र और किसानों की तबाही की स्वीकारोक्ति है और चुनाव से पहले की गयी यह घोषणा विज्ञापनों पर अंधाधुंध खर्च के साथ इसका मेल एक तरह की चुनावी रेवड़ी है। दरअसल मोदी सरकार के साढ़े चार साल के शासन के दौरान कृषि और उससे जुड़े क्षेत्र की विकास दर में भारी गिरावट आयी है।

2004–05 से 2013–14 के बीच इस स्रोत का औसत विकास दर 3.7 फीसदी थी जो पहले ही काफी कम थी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बर्बादी का आईना थी 2014–15 से2017–18 के बीच यह औसत और अधिक गिरकर 2.5 फीसदी रह गयी। जाहिर है कि किसानों की आय बढ़ाने और कृषि क्षेत्र के विकास के बारे में मोदी के तमाम लम्बें–चैड़े वादे चुनावी योजनाएँ, ‘जुमला’ बन कर रह गयी।

मोदी सरकार ने हर खेत को पानी और पर ड्रँाप, मोर क्रॉप के नारे तो खूब उछाले, लेकिन त्वरित सिंचाई लाभ योजना खटाई मे पडी है। कैग की रिपोर्ट 2018 के मुताबिक इस योजना मे वित्तीय हेरा–फेरी और योजना पूरी न होने जैसी गड़बडी पायी गयी। किसानों की आमदनी  बढाने के विपरित इन चार वर्षों मे कृषि लागतों की कीमत में भारी बढ़ोतरी हुई जबकि सरकार ने जो न्युनतम समर्थन मूल्य घोषित किया, वह 2014 से 2018 के बीच प्रति’त सालाना के बीच ही रहा और उस किमत पर भी सरकारी खरीद नहीं होने के चलते आढ़तियों और निजी व्यापारियों के हाथों किसानों की लूट जारी रही। इस भारी लूट के आगे बजट मे किसानों के लिए प्रधानमंत्री के नाम से 6000 रूपये सालाना सम्मान निधि की घोषणा लागत बढ़ने और उचित मूल्य न मिलने के चलते तबाह हुए किसानों का अपमान है। यह गाय मार कर जूता दान करने जैसा है। उत्तर प्रदेश सरकार ने किसानों की बिजली बिल मे जो बढ़ोत्तरी की है सिर्फ उसी के चलते आज किसानों को डेढ़–दो हजार रुपये महीना अधिक चुकाना पड रहा है। इसके आगे 500 रुपये महीनें की अनुकम्पा राशि मुँह चिढ़ाना नहीं तो भला क्या है? जाहिर है कि अपने कार्यकाल मे कृषि क्षेत्र को तबाह करने के कारण भीतर उबलते गुस्से को शान्त करने के लिए उछाला गया चुनावी जुमला ही है। सच तो यह है की बजट मे घोषित प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि तेलागंना और ओडिसा सरकार द्वारा शुरू की गयी इससे कही बेहतर रैमूल बन्धू और काकिया योजना की घटिया नकल है। जो रैमूल बन्धू के तहत ही मालिक किसान को 4000 प्रति एकड़ (10,000 प्रति हेक्टेयर) सालाना राशि दी जाती है, जबकि काकिया योजना भूमिहीन किसानों और गैर कृषक ग्रामीण परिवारों पर भी लागू होती है। यह सही है। कि ये सभी योजनाएं कृषि संकट को हल करने के बजाए इसके शिकार ग्रामीण आबादी को मरहम लगाने वाली ही है।

ये भी सही है। कि तेलांगाना और ओडिसा सरकार की राहत पैकेज भी चुनाव के मद्देनजर ही घोषित हुआ है। लेकिन वह केवल जमीन के मालिक किसानों तक तो सीमित नहीं है। जैसा मोदी सरकार का पैकेज कृषि से जूडें क्षेत्रों की सरकारी उपेक्षा भी बजट मे साफ–साफ दिखाई देती है। इससाल की बजट मे राष्ट्रीय बागवानी मिशन, राष्ट्रीय गोकूल मिशन, मत्सय पालन के लिए नीली क्रान्ति और दुग्ध उत्पादन के लिए सफेद क्राान्ति कृषि शोध एंव शिक्षा सबके बजट मे या तो कटौती की गयी है या बहुत मामूली बढ़ोत्तरी की गयी है।

बजट मे अंसगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए पेंशन योजना प्रधानमंत्री श्रम–योगी मानधन को भी खूब उछाला गया। इसके तहत 1500 रुपये कमाने वाले अंसागठित क्षेत्रों के मजदूर 29 वर्ष की उम्र मे 100 रुपये महीना और 18 वर्ष की उम्र मे 55 रुपये महीना जमा करेंगे जिसके बदले उन्हें 60 साल की उम्र के बाद 3000 रुपये पेंशन मिलेगी पहली बात यह की क्या सरकार 15000 रुपये से कम आय वाले लोगों को श्रमयोगी नहीं मानती, दुसरे असगठित क्षेत्र मे आज नौरकी या रोजगार है, कल रहेगी या नहीं, इसकी गारण्टी नहीं।

31 साल तक 100 रुपये महीना जमा करने या 42 साल तक 55 रुपये महीना जमा करने के बदले उनको जो 3000 रुपये महीना पेशन मिलेगी, उससे कौन सा सहारा मिल जाएगा तब तक रूपये का कितना अवमुल्यन हो चुका होगा? साथ ही भारत मे औसत जीवन प्रत्याशा 68 साल है। जाहिर है कि अंसगठित क्षेत्र की कठिन परिस्थितियों पोषण और व्यवस्था दुर्दशा को देखते हुऐ इस तंत्र के मजदूरों मे यह औसत उससे भी कम होता है। अब खुद ही हिसाब लगालें, कि यह पेंशन योजना एक झाँसा नहीं तो क्या है।?

इस बजट की एक विसंगति यह भी है। कि सरकार ने चुनाव के मद्देनजर जो बडी–बडी घोषनाएँ की है। उनकी भरपाई कहां से होगी क्योंकि इस बजट मे जीएसटी के जादूई हथकण्डें के भरोसे कुल अनुमानित राजस्व प्रति पिछले साल 20 फीसदी से गिरकर 14 फीसदी रहने का अनुमान है। इस कमी की भरपायी के लिए सरकार पूँजीगत प्राप्ति पर निर्भर है। जो सार्वजनिक क्षेत्रों की कौडियों के मोल नीलामी और रिजर्व बैंक के अतिरिक्त कोष से हासिल किया जायेगा जिसे देने से मना करने के चलते बेचारा उर्जित पटेल की नौकरी और नया कारिन्दा बिठाना पडा राजस्व वसूली जिसमें टैक्स और गैर टैक्स राजस्व शामिल है। उसमें गिरावट की वजह बडे पूँजीपतियों को टैक्स मे भारी छूट और जीएसटी की चोरी है। बजट अनुमान मे संशोधन के बाद अब टैक्स वसूली पहले की तुलना मे 1.8 लाख करोड़ कम रहने की सम्मभावना है। जाहिर है कि चुनाव के बाद जो भी सरकार आयेगी वह जनता के उपर यह भारी बोझ डालेगीं।

मोदी सरकार की टैक्स नीति अपने पूर्ववर्ती सरकारों की तुलना मे आम आदमी के प्रति कहीं ज्यादा ‘ात्रुवत रही है। जबकि पूँजीपतियों को सरकार न केवल बैंकों के जरिये मा’यत पहुचाया, बाल्कि टैक्स मे भी उनको भारी छुट दी। पिछले पाँच साल के बजट आँकडो में टैक्स वसूली के पैर्टन पर एक नजर डालें, तो यह बात स्प”ट रूप से समझ मे आ जाती है।

कोई भी सरकार दो तरह के टैक्स वसूलती है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रत्यक्ष टैक्स जैसे– इनकम टैक्स, कारपोरेट टैक्स इत्यादि धनी लोग चुकाते है। जबकि अप्रत्यक्ष टैक्स जैसे– जीएसटी, उत्पाद शुल्क आबकारी इत्यादि सभी लोग चुकाते है। यहां तक कि वह भिखारी भी जो दिनभर भीख माँगकर शाम को बीड़ी माचिस खरीदता है। होना तो यह चाहिए था कि जिसकी कमाई ज्यादा हो उससे ज्यादा टैक्स वसूल किया जाये, लेकिन इस सरकार ने इससे उल्टी धारा बहाने मे पिछली सरकारों को भी पीछे छोड़ दिया। बजट के आँकड़ों के मुताबिक अप्रत्यक्ष कर की वसूली का हिस्सा 2014–15 मे 44 फीसदी था जो बढ़कर 47 फीसदी हो गया। यह 3 फीसदी हजारों करोड रूपये के बराबर है।

जहाँ तक प्रत्यक्ष कर का सवाल है। उसे भी देा तरह के लोग चुकाते है। व्यक्तिगत इनकम टैक्स। जो ढाई लाख रूपये से (जो अरबों–खरबों की कमाई करने वाले पूँजीपतियों से वसूला जाता है।) प्रत्यक्ष कर वसूली मे व्यक्त्गित इनकम टैक्स देनेवालों का हिस्सा पिछले पाँच सालों मे 21 फीसदी से बढ़कर 24 फीसदी हो गया।

दुसरी ओर 2014 मे कुल टैक्स का 34  फीसदी कारपोरेट टैक्स के रूप मे पूँजीपतियों से वसूला जाता था जो 2018–2019 मे घट कर 28 फीसदी रह गया। पूँजीपतियों को दी गयी यह रियायत यह 6 फीसदी अरबों–खरबों रूपये के बराबर है, जिसकी भरपाई, पहले से ही बदहास आम जनता से टैक्स वसूल कर की गयी। डीजल, पेट्रोल और रसोई गैस पर भरी टैक्स इसका एक उदाहण है।

बजट मे शिक्षा, स्वास्थय और ग्रामीण विकास पर खर्च मे कटौती अभी इस सरकार की मंसा को जाहिर करती है। कुल बजट मे शिक्षा पर व्यय 2017–18 मे 3.37 फीसदी हो गया। शिक्षा को निजी मुनाफा खोरों के हवाले करने की मुहिम को देखते हुए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। आयुष्मान भारत के बडे–बडे दावे और विज्ञापनों की आड़ में स्वस्थय पर खर्च का हिस्सा भी घटाया गया है।2017–2018 में कुल बजट मे स्वास्थय व्यय 2.47 फीसदी था जो घटकर 2018–19 और 2019–20 मे 2.28 फीसदी रह गया है। यानी वर्तमान कीमतों के हिसाब से और भी कम हो गया। ग्रामीण विकास पर खर्च का हिस्सा 2017–18 मे 6.3 फीसदी या जो 2018–19  में 5.5 फीसदी और 2019–20 मे 4.99 फीसदी कर दिया गया।

उर्वरक पर सब्सीडी 2017–18 मे कुल व्यय के 3.1 फीसदी से घटाकर 2018–19 मे 2.85 फीसदी और 2019–20 मे 2.69 फीसदी हो गया। जाहिर है कि सरकार के आदेश की बहुत आबादी की बुनियादी जरूरतों की कोई परवाह नहीं है।

कुल मिलाकर यह बजट चुनावी जुमलों और सरकार की बदहवासी का इजहार है।

इसमें सुन्दर सुहाये नामों वाली योजनाएँ जैसे– किसान सम्मान श्रमयोगी मानधन, आयुष्मान भारत, लेकिन इन के ठोस नतिजों मुंह चिढ़ानें वाले है। पहले से ही जुमलों से तंग आ चुकी जनता पर इन हवाई गोलांे क्या असर होगा यह तो कहना कठिन है। लेकिन चुनाव के बाद जो भी सरकार आयेगी वह इन चुनावी जुमलों की भरपाई के लिए जनता पर नयें करों का बोझ लादेगीं ये तय है।