रंगभेद और उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ने वाले दक्षिण अफ्रीका और अफ्रीकी महाद्वीप के नेता, नेल्सन मण्डेला जेल से रिहा होने के बाद पहली बार 1995 में न्यूजीलैण्ड के ऑकलैण्ड शहर में राष्ट्रमण्डल देशों के सम्मेलन को सम्बोधित कर रहे थे। ठीक उसी समय अफ्रीका के ही सुदूर–पश्चिम के प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर छोटे से देश नाईजीरिया में एक जन नायक को उसके साथियों समेत फाँसी पर लटकाया जा रहा था। उस नायक का नाम था केन सारो–वीवा।

यदि किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी द्वारा किसी देश की प्रकृति, पर्यावरण, अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाज को तबाह करने का पर्याय ‘शेल’ नामक कम्पनी है तो किसी देश को बर्बाद करती बहुराष्ट्रीय कम्पनी के खिलाफ जनता को साथ लेकर, उसे प्रशिक्षित और संगठित कर, एक अनवरत, अनथक संघर्ष चलाने वाले महानायक का पर्याय है–– केन सारो–वीवा! केन सारो–वीवा जिन्होंने कहा था “न तो कभी डरो और न कभी निराशा की चपेट में आओ।”

कुख्यात ‘शेल’ कम्पनी के खिलाफ नाईजीरिया के नाईजार डेल्टा के अगोनी क्षेत्र के लोगों को साथ लेकर चलाये गये संघर्ष की गाथा है पुस्तक ‘केन सारो–वीवा संघर्ष और बलिदान की गाथा’ जिसे लिखा है अफ्रीकी साहित्य, राजनीति और उस महाद्वीप के मुक्ति संघर्षों के विशेषज्ञ, जानेमाने जनपक्षधर लेखक आनन्द स्वरूप वर्मा ने। उन्होंने हिन्दी पाठकों तक पहली बार केन सारो–वीवा के जीवन संघर्ष को जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया है।

केन सारो–वीवा के संघर्षों और बलिदान के बारे में गहराई से जानने के लिए आनन्द स्वरूव वर्मा स्वयं नाईजीरिया गये और उनके साथियोें, उनके बनाये संगठनों के सदस्यों के साथ ही उनके सौ वर्षीय पिता से भी मिले। इस यात्रा के कारण ही यह पुस्तक अत्यन्त प्रामाणिक, विश्वसनीय और रोचक बन पड़ी है। यह पुस्तक समकालीन इतिहास की महत्त्वपूर्ण बातों को उजागर करती है। यह नेलसन मंडेला को कटघरेे में खड़ा करती है। वह नेलसन मंडेला की रिहाई के बाद उनमें आये वैचारिक बदलाव और महाशक्तियों के प्रति झुकाव की ओर इशारा करती है। यह बताती है कि केन सारो–वीवा की रिहाई के लिए नेलसन मंडेला अन्तरराष्ट्रीय मंच पर जितना दबाव डाल सकते थे, जितना प्रयास कर सकते थे, उतना उन्होंने नहीं किया।

‘शेल’ जैसी दैत्याकार बहुराष्ट्रीय तेल कम्पनी जो 28 देशों से तेल निकालने का काम करती है, उसके खिलाफ केन सारो–वीवा के संघर्ष को इस पुस्तक के लेखक ने अत्यन्त प्रेरक, दिलचस्प और ओजपूर्ण तरीके से प्रस्तुत किया है। वास्तव में आँखों के सामने आगोनी क्षेत्र की प्रकृति, यहाँ के लोग, समाज ‘शेल’ कम्पनी द्वारा वहाँ के तेल की लूट और लोगों पर थोपी गयी विपदा और मौत, उपनिवेशवाद के कारण वहाँ के दबे–कुचले लोग और फिर उन्हीं लोगों को संघर्ष और अन्तिम लड़ाई के लिए तैयार करते केन सारो–वीवा की जिन्दगी पुस्तक में आँखों के सामने फिल्म की तरह चलती है।

केन सारो–वीवा नाईजीरिया में बोरा गाँव के खाना जनजाति में 10 अक्तूबर 1941 को पैदा हुए थे। कबीले के अत्यन्त सम्पन्न सरदार के घर से होने के चलते उन्हें इबादान विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा पाने में कोई कठिनाई नहीं आयी। वे अच्छे लेखक थे और 1985–86 के बीच उन्हें ‘सांग्स इन ए टाइम ऑफ वार’, ‘सोजाब्वॉय’, ‘ए फोरेस्ट ऑफ फ्लावर्स’ ‘ऑन ए डार्कलिंग प्लेन’ जैसी बेहतरीन किताबें लिखीं। कुछ समय उन्होंने ‘खिर्स स्टेट गवर्नमेण्ट’ के सिविल कमिश्नर के पद पर भी काम किया। पर अपनी प्रखर बुद्धि, जनपक्षधरता और नाईजीरियाई समाज, इतिहास और राजनीति पर अच्छी पकड़ के कारण वे समझ गये कि सरकारी तन्त्र में रह कर उन्हें भ्रष्ट और तानाशाह सरकार के लिए काम करना पड़ेगा और उन्होंने इस्तीफा दे दिया।

केन सारो–वीवा ने अपनी आँखों के सामने बचपन में निर्मल और स्वच्छ जल से भरी, असंख्य मछलियों और जल जीवों से भरीपूरी, आसपास की प्राकृति और गाँवों को सींचती अगोनी की जीवन–रेखा नाईजर नदी को देखा था। इन सब को वे ब्रिटिश बहुराष्ट्रीय तेल कम्पनी के द्वारा बर्बाद होते, मरते हुए देख रहे थे। उनकी आँखों के सामने हरे–भरे डेल्टा क्षेत्र में 1958 में ‘शेल’ के द्वारा असंख्य तेल के कुएँ खोदे गये जिनसे निकलने वाले पाईपों से रिश्ते तेल ने पूरे इलाके के पर्यावरण में घुलते जहर को महसूस किया। हजारों बच्चों, महिलाओं और जवानों को असाध्य बीमारियों की चपेट में लाते और 30 सालों के बीच लगभग अरबों डॉलर की लूट होते देखी। आनन्द स्वरूप वर्मा लिखते हैं कि केन सारो–वीवा ने तीसरी दुनिया के नवस्वतन्त्र देशों में बहुराष्ट्रीय निगमों, भ्रष्ट और तानाशाह सरकारों और उनकी मदद करती सेना के गठजोड़ तथा सैनिक तख्ता पलट, हत्या और हिंसा की बर्बर राजनीति को बहुत अच्छी तरह समझ लिया था। वे अपनी जनता में व्याप्त गहरी निराशा और पस्तहिम्मती को देख रहे थे तो दूसरी ओर अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को भी बखूबी समझ रहे थे। केन सारो–वीवा के शब्दों में, “–––शायद मेरे कन्धों पर यह जिम्मेदारी आ पड़ी थी कि मैं उन्हें 100 वर्षों की नींद से जगाऊँ और मंैने इस जिम्मेदारी को पूरी तरह कबूल कर लिया था–––।” हालात की गम्भीरता और अपनी नैतिक जिम्मेदारी को ठीक से समझने और ‘शेल’ के खिलाफ मोर्चा खोलने का जब एक बार उन्होंने निश्चय कर लिया तो उसके बाद कभी वे पीछे नहीं हटे। “शेल” के खिलाफ संघर्ष की गम्भीरता और खतरे को वे अच्छी तरह समझते थे, इसीलिए अपने संघर्ष में उन्होंने हर सम्भव तरीके अपनाये। “शेल” की कारगुजारियों को आम जनता तक पहुँचाने और उसे जागृत करने के लिए अखबारों में नियमित स्तम्भ लिखे। जब उनके एक पुलिस मित्र ने सम्भावित खतरों के बारे में उन्हें आगाह किया तब बड़े इत्मिनान से उन्होंने यह जवाब दिया, “मैं जो कुछ लिखता हूँ बहुत सोच–समझकर लिखता हूँ और उसकी सारी जिम्मेदारी भी लेता हूँ। अब इस लेखन का जो भी नतीजा मुझे भुगतना पड़े, मैं स्वीकार करूँगा।” केन सारो–वीवा ने उस अधिकारी से कहा, “अगर कोई लेखक अपने लेखन की वजह से गिरफ्तार होता है तो उसे और ताकत मिलती है।” केन सारो–वीवा में यह आत्मविश्वास और हिम्मत अपने लक्ष्य और काम की स्पष्टता, जनता तथा उसकी जीत में अटूट विश्वास के कारण ही आयी और यही उनकी ताकत थी।

केन सारो–वीवा नाईजीरियाई समाज के बदलाव में लेखकों की भूमिका और उनके महत्त्व को बहुत अच्छी तरह समझते थे। उन्होंने कहा था, “–––मेरा शुरू से मानना था कि नाईजीरिया में जो नाजुक हालात हैं उसमें साहित्य को राजनीति से अलग नहीं रखा जा सकता।–––लेखकों को केवल अपने को या दूसरे को आनन्दित करने के लिए नहीं बल्कि समाज को ढंग से देखने के लिए लेखन करना चाहिए।––– उसे जन संगठनों में भाग लेना चाहिए। उसे जनता के साथ सीधा सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए।” वे कहते हैं कि “शब्दों में बहुत ताकत होती है और जब उन्हें आम बोलचाल की भाषा में व्यक्त किया जाता है तो इनकी ताकत और बढ़ जाती है–––।” इसीलिए जनता तक अपनी बात पहुँचाने के लिए उन्होंने लगातार अखबारों और पत्रिकाओं में लिखा और अनेक किताबें भी लिखीं। जब सरकार और “शेल” विरोधी उनकी बातों के कारण छपवाना मुश्किल होने लगा तब उन्होंने अपना प्रकाशन भी शुरु किया। फिर उन्होंने टीवी के लिए ‘बसी एण्ड कम्पनी’ जैसे धारावाहिक भी लिखे और अनेक कार्यक्रमों के प्रोड्यूसर भी बने।

यही नहीं, वे अपनी बातों को सड़कों और नुक्कड़ों तक ले गये। उन्होंने कहा था, “जब मैंने तय किया कि अपनी बातों को सड़कों और नुक्कड़ों तक ले जाऊँ, अगोनी की जनता को गोलबन्द करूँ और उन्हें इस हद तक शक्ति–सम्पन्न करूँ कि वे “शेल” द्वारा अपने पर्यावरण के विनाश के खिलाफ आवाज उठा सकें और नाईजीरिया के सैनिक तानाशाहों द्वारा अपनी जिन्दगी बदहाल बनाये जाने का प्रतिरोध कर सकें, उस समय ही यह बात मेरी समझ में आ गयी थी कि इसका अन्त मेरी मौत के रूप में होगा।”

उन्होंने यह भी समझा कि इस समस्या को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उठाना जरूरी है। अगोनी के तेल की बेहिसाब लूट और पर्यावरण के महाविनाश की कहानी दुनिया के तमाम हिस्सों में पहुँचाने और उस पर अन्तरराष्ट्रीय दबाव बनाने के उद्देश्य से उन्होंने ब्रिटेन, अमरीका, जर्मनी, रूस, संयुक्त राष्ट्र संघ इत्यादि की अनगिनत यात्राएँ की, दर्जनों अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों के माध्यम से “शेल” कम्पनी के कामों का पर्दाफाश किया। वे विश्व के तमाम जन पक्षधर नेताओं, वैज्ञानिकों, वकीलों, प्रोफेसरों, बिजनेसमैन, कलाकारों से लगातार मिलते रहे और “शेल” के विरोध में अन्तरराष्ट्रीय जनमत भी तैयार करते रहे। वे बीबीसी तक भी अपनी पूरी बात पहुँचाने में सफल रहे जिसका नतीजा यह हुआ कि बीबीसी के लोकप्रिय चैनल 4 ने अगोनी में “शेल” द्वारा हुए महाविनाश पर एक डॉक्युमेण्टरी ‘द हीट ऑफ द मोमेन्ट’ बनायी। इस डॉक्युमेण्टरी की ताकत और प्रभाव का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि “शेल” ने अपनी शर्त में इस पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग की।

आनन्द स्वरूप वर्मा की किताब केन सारो–वीवा के काम करने के तरीके पर विस्तृत प्रकाश डालती है और यह बताती है कि दैत्याकार बहुराष्ट्रीय निगमों, भ्रष्ट सरकारों और सेना से टकराने से पूर्व अपनी समझदारी की धार तेज करना, लक्ष्य की व्यापकता की पूर्ण स्पष्टता और साहस कितना जरूरी है। वे लिखते हैं कि सारो–वीवा की लड़ाई सिर्फ अगोनी क्षेत्र के लिए नहीं थी। वे अगोनी की लड़ाई को एक मॉडल बनाना चाहते थे। वास्तव में उनका संघर्ष एक क्षेत्रीय समस्या के अन्तरराष्ट्रीयकरण का अद्भुत उदाहरण है।

केन सारो–वीवा बेहद अमीर परिवार से थे और इतने प्रभावशाली भी कि दुनिया के किसी देश में आराम से रह सकते थे। लेकिन उनमें अपने इलाके और वहाँ की उत्पीड़ित जनता के प्रति ऐसा सच्चा सरोकार, संवेदना और प्यार था कि उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना। पर्यावरण और संसाधनों पर वहाँ की जनता के मालिकाने की उन्हें इतनी स्पष्ट समझदारी थी कि उनके द्वारा लिखा गया ‘अगोनी बिल ऑफ राइट्स’ हर सामाजिक और पर्यावरण कार्यकर्ता को पढ़ना चाहिए।

https://gargibooks.com/book/ken-saro-wiwa

जब उन्होंने संघर्ष को संगठित करने के लिए ‘मोसोप’ नामक संगठन बनाया तब सामाजिक कार्यों में धन–पैसे के खतरे और ईमानदारी के महत्त्व को समझते हुए उन्होंने लिखा, “यह भी जरूरी था कि सीमित वित्तीय सुरक्षा के प्रयास में मुझे अपनी ईमानदारी बनाये रखनी होगी और आम नाईजीरियाई की तरह ऐसे धन्धे में नहीं लगना होगा जिसमें मैं किसी से आँखें न मिला सकूँ।”

एक दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कम्पनी के खिलाफ संघर्ष के वे अकेले नायक नहीं बनना चाहते थे। इस संघर्ष में वे एक संगठन और उसके सदस्यों के महत्त्व को वे बखूबी समझते थे। इतना ही नहीं वे जानते थे कि यह संघर्ष अगली पीढ़ी को भी चलाना पड़ेगा और इसलिए उन्होंने नयी पीढ़ी को संघर्ष के लिए वैचारिक रूप से तैयार और प्रशिक्षित किया। उन्होंने कहा, “आज जरूरत है कि जो हमारी पीढ़ी द्वारा छोड़े गये काम को आगे बढ़ाने के लिए खुद को तैयार करे। इसलिए मैं अगोनी के नौजवानों का आह्वान करता हूँ कि वे अपने अध्ययन, सामुदायिक विकास में अपनी भागीदारी, नाईजीरिया में अपनी निष्ठापूर्वक दिलचस्पी के जरिये नेतृत्व की बागडोर सम्भालनें के लिए तैयार हो जायें।”

उनके और जनता के संघर्ष का परिणाम था कि “शेल” को अगोनी क्षेत्र में तेल निकालने का काम बन्द करना पड़ा। उनके प्रयासों से ही “शेल” की लूट और पर्यावरण विनाश पर अनेक रिपोर्ट छपी और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उसका पर्दाफाश हुआ। उनके संघर्षों का परिणाम यह हुआ कि शेल, नाईजीरिया की तानाशाह सरकारें और सेना उनसे मुक्ति पाने का तरीका ढूँढने लगी। अन्तत: उन्होंने चार अगोनी नेताओं की हत्या के झूठे आरोप में केन सारो–वीवा को 22 मई 1994 को गिरफ्तार कर लिया और सेना के ट्रिब्यूनल द्वारा उनके साथियों समेत उन्हें 10 नवम्बर 1995 को फाँसी पर लटका दिया। मरणोपरान्त उनका नाम नॉबेल शान्ति पुरुस्कार के लिए भी नामित हुआ। अपने अन्त का उन्हें पता था। बहुत पहले ही नाईजीरियाई लेखकों ने कहा था कि “केन सारो–वीवा अपनी मौत अपनी जेब में लेकर घूमते थे।”

इस पुस्तक को पढ़ कर ऐसा लगता है कि केन सारो–वीवा सिर्फ नाईजीरिया के अगोनी क्षेत्र के लोगों के नेता नहीं थे। वास्तव में वे उत्तरऔपनिवेशिक युग में बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा उत्पीड़ित तीसरी दुनिया के सभी संघर्षशील समुदायों के लिए एक आदर्श और प्रेरणा स्रोत थे। वास्तव में वे अपनी धरती, अपने समाज, अपने लोगों से बेपनाह मोहब्बत करने वाले एक ऐसे जन नायक थे जो अपने लोगों और लक्ष्य के लिए कुर्बान होना जानते थे।

आज उनके जीवन संघर्ष को जानने समझने और उनसे प्रेरणा लेने की जरूरत सबसे ज्यादा है, क्योंकि भारत में उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, तटीय इलाकों से लेकर इण्डोनेशिया, न्यू गिनी और अमेजन वर्षा वनों तक को बहुराष्ट्रीय निगमें, सरकारें और यहाँ तक कि न्यायपालिका मिलकर संसाधनों को लूटने और पर्यावरण का विनाश करने पर आमादा हैं। भारत समेत दुनिया के तमाम देशों की जनता को इस अन्याय के खिलाफ संघर्ष में केन सारो–वीवा की जिन्दगी और काम करने के तौर–तरीके से सीखना चाहिए। वास्तव में आनन्द स्वरूप वर्मा ने यह पुस्तक लिखकर जनता और मानवता की अनुपम सहायता की है और केन सारो–वीवा ने जैसा कि जेल से मृत्यु के पहले अपने खत में लिखा था कि अन्याय के खिलाफ उनसे जो कुछ सम्भव हुआ, उन्होंने किया। वे अगोनी लोककथाओं में जिन्दा रहेंगे। केन सारो–वीवा अगोनी ही नहीं पर्यावरण और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की लूट के खिलाफ लड़ती हर देश की जनता के लिए प्रकाश स्तम्भ बन चुके हैं।