पिछले साल दिसम्बर में बिहार के छपरा जिले में जहरीली शराब पीने से 77 से ज्यादा लोगों की जान चली गयी, 29 लोग अन्धे हो गये। इनमें से लगभग सभी दिहाडी मजदूर हैं। इससे पहले अगस्त में मन्दौर, मकेर और पानापुर तहसीलों में जहरीली शराब पीने से 23 लोगों की मौत हुई थी। इनमें भी सभी गरीब मजदूर थे।

जहरीली शराब से लोग केवल बिहार में ही नहीं मर रहे हैं, बल्कि पूरे देश में हर साल सैकड़ों लोग अपनी जान गवाँ देते हैं।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार जहरीली शराब पीने से 2016 से 2021 तक 15 राज्यों में 6,954 लोग अपनी जान से हाथ धो चुके हैं। ये सभी गरीब मेहनतकश लोग थे। मृतकों के परिवार वालों के प्रति संवेदना जताने और इसके लिए अपनी सरकार को दोषी मानने के बजाय, बिहार के मुख्य मन्त्री नीतीश बाबू कहते है, “जो शराब पियोगा, वो मरेगा।”

क्या कारण है कि जहरीली शराब पीकर कभी भी अमीर या मध्य वर्ग के लोग नहीं मरते ? मरते हैं तो केवल मेहनतकश वर्ग के लोग जो दुनिया के लिए भोजन पैदा करते हैं, दूसरों के लिए एक–से–एक सुन्दर चीज का निर्माण करते हैं, दुनियाभर की गन्दगी साफ करते हैं। ये करोड़ों लोग खुद नारकीय हालत में जीवन जीते हैं। शहरों में ये गन्दगी से बजबजाती झोपड़पट्टियों में, बदबूदार नालों या रेल की पटरियों के पास बने दड़बेनुमा घरों में या कूड़े के पहाड़ों के इर्द–गिर्द दड़बेनुमा कच्चे–पक्के घरों में रहते है। जहाँ खाते–पीते लोगों के लिए एक घण्टा गुजारना भी मुश्किल होता है। देहात में भी हालात ऐसे ही हैं, बल्कि वहाँ कंगाली शहरों से भी ज्यादा है। गाँव के बाहर जोहड़ (तालाब) के पास बने घरों में भी रहना इनकी मजबूरी है।

इनके निवास को किसी भी तरह से घर नहीं कहा जा सकता। घर तो वह होता है जो साफ सुथरा हो, जिसमें ताजी हवा आती–जाती हो, परिवार के सदस्यों के अनुसार रहने के कमरे हों, बिजली–पानी की सुविधा हो, जहाँ तक पहुँचने के लिए पक्की सड़क हो, पार्क हो। लेकिन दुनियाभर के लोगों के लिए घर का निर्माण करनेवाले इन मेहनतकशों के लिए ऐसा घर हमेशा सपनों में हो होता है।

ये वही देश के 80 करोड़ लोग है जो 20 रुपये रोजाना पर गुजारा करते हैं। इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि इनकी खाने की प्लेट में क्या–क्या चीजें होती हांेगी। 21वीं शताब्दी में भी रूखा–सूखा जो मिल जाये वही खा लेते हैं। ढंग के स्कूलों में जाने के बजाय इनके बच्चे स्कूल के इर्द–गिर्द अमीरों और उनके बच्चों द्वारा फेंकी गयी पन्नियाँ बीनते हैं। परिवार के किसी सदस्य के बीमार होने पर उनके इलाज की कोई व्यवस्था नही है। कहीं से कर्ज मिल जाये तो कभी किसी अस्पताल में भी चले जाते हैं। नहीं तो सरकारी अस्पतालों के चक्कर काट–काटकर जान गवाँ देते हैं। परिजनों की लाशें कंधो पर, साइकिल पर कई–कई किलोमीटर ढोकर ले जाने की जो खबरें आती हैं वे इन्हीं की होती हैं।

ना उम्मीदी, शारीरिक प्रताड़ना, गाली, डण्डे इनकी जिन्दगी का अनिवार्य हिस्सा हैं। इसके अलावा मध्यम वर्ग के सेकड़ों तोहमतें–– “ पता नहीं कहाँ से आ जाते हैं ये लोग, पैदा करके छोड़ देते हैं इनके माँ–बाप, ये साफ–सुथरा रहना ही नहीं जानते, चोर–उचक्के लोग।”

नारकीय हालात में जीवन जीने और इतनी बाते सुनने के बाद भी मेहनतकश वर्ग जिन्दा रहने के संघर्ष में पीठ नहीं दिखता। खेतों से लेकर उद्योगों तक, सभी जगह जीवन के लिए जरूरी चीजों का उत्पादन करते रहते हैं। अस्पतालों और सड़कों से लेकर घरों तक को साफ सुथरा रखते हैं। सीवर में घुसकर सफाई करते हैं। मेहनतकश वर्ग के बिना इस दुनिया की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

पूँजीपति और मध्यम वर्ग इन्हें देखकर मुँह फेर लेता है।  इनके मुँहजोर नेता, अय्यासी में लिप्त बाबा और भटकाने वाले मीडिया संस्थान अपनी मक्कारियों, नाकामयाबियों और अपने गुनाहों पर पर्दा डालने की रात–दिन कोशिश करते रहते हैं। वे अपनी लूट को जारी रखने और उस पर पर्दापोशी करने के लिए मेहनतकशांे को लगातार नैतिकता का पाठ पढ़ाते रहते हैं। ऐसा करके वे मेहनतकशों को ही उनकी खराब हालत का जिम्मेदार ठहरा देते हैं ताकी उनकी तरफ कोई उँगली न उठा सके।

जनता को लूट–लूट कर उनको अमानवीय जीवन जीने के लिए मजबूर करने वाले, शासक वर्ग के लोग कुण्ठित मानसिकता के लोग हैं। कत्ल का इल्जाम मरने वालों पर ही लगाकर खुद सुर्खुरू होते हैं। जनता को कंगाल बनाकर उसे नैतिकता का पाठ पढ़ाने का काम इनके पूँजीवादी नेता करते हैं। महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द कहते थे कि भूखे आदमी से नैतिकता की माँग या तो मूर्ख करते हैं या मक्कार। जबकि सच्चे नेता का मतलब होता है–– सामाजिक जिम्मेदारियों के लिए अपना जीवन न्यौछावर करनेवाला, बेहतर जीवन और बेहतर समाज के लिए जनता के संघर्ष में अगुवाई करनेवाला।

बिहार में नीतीश बाबू ने शराबबन्दी लागू कर रखी है। इस रहस्य को सभी जानते हैं कि जिन राज्यों में भी शराबबन्दी लागू की गयी है, वहाँ लोगों ने शराब पीना कभी बन्द नहीं किया। केवल इतना फर्क पड़ा कि तस्करी करके लायी गयी शराब कई गुना दाम पर मिलने लगी। अमीर लोग तो महँगी शराब भी आसानी से खरीद लेते हैं, लेकिन गरीब लोगों के लिए उसे खरीदना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। ये मजबूरी के चलते वही शराब पीते हैं जो कम–से–कम कीमत पर मिल जाये और इसी चक्कर में जहरीली शराब के शिकार होते हैं। इन लोगों से हाड़तोड़ काम लिया जाता है जिन्हें नरक जैसा जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया गया है।

उनका कोई सम्मान नहीं। उनके लिए कोई सुविधा नहीं। क्या हम उन मेहनतकश लोगों के शराब न पीने की उम्मीद कर सकते है। एक समय था जब सोवियत संघ में नशाखोरी का बोलबाला था। 1917 की रूस की क्रान्ति के बाद वहाँ नशाखोरी और वैश्यावृत्ति जैसी सामाजिक समस्याओं को वैज्ञानिक तौर–तरीके अपनाकर खत्म कर दिया गया।

रूसी किसानों–मजदूरों की सरकार ने यह कमाल कैसे किया ? यह जानने के लिए कनाडा के वैज्ञानिक डाइसन कार्टर की किताब ‘पाप और विज्ञान’ को पढ़ लेनी चाहिए। गम्भीर सामाजिक समस्याओं के सामाजिक–आर्थिक कारणों की तलाश करती यह किताब बताती है कि रूसियों ने नशा करने वालों को सजा नहीं, बल्कि सम्मानजनक रोजगार और बेहतर जीवन दशाएँ दीं और  उन्हें सुरक्षित भविष्य दिया। दूसरी ओर नशे के कारोबार से मुनाफा बटोरने वालों को कड़ी सजा दी गयी। मेहनतकश जनता का जीवन बेहतर हुआ। इससे रूसी समाज से नशाखोरी और वैश्यावृत्ति जड़ से खत्म हो गयी। किताब यह भी दिखाती है कि मजदूरों–किसानों की रूसी सरकार ने नशे के आदी लोगों को दुत्कारा नहीं, बल्कि उन्हें धीरे–धीरे समाज की मुख्य धारा में शामिल कर लिया।

“––– जो पियेगा, मरेगा ही।” ऐसा कहकर नीतीश बाबू ने अपने दागदार दामन और कुण्ठित मानसिकता की झलक पेश की है। लोगों को सम्मानजनक रोजगार, बेहतर जीवन स्तर और बेहतर सुविधाएँ देने की जिम्मेदारी सरकार की है। चुनाव के वक्त सारी चुनावबाज पार्टियाँ इसी का दावा भी करती हैं। नितीश बाबू पिछले 15 सालों से बिहार के मुख्यमंत्री हैं। अगर बिहार की जनता कंगाली का जीवन जीने को मजबूर है तो इसकी दोषी नितीश बाबू की सरकार है। अगर उनमें अपनी जनता के प्रति जरा भी हमदर्दी होती तो वह ऐसा जालिमाना बयान देने के बजाय इस दुखद घटना की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते और बिहार की जनता का जीवन खुशहाल बनाने के लिए काम करते।

–– अमित मितवा