हालाँकि कोरोना वायरस का प्रभाव यूरोप और संयुक्त राज्य अमरीका पर ज्यादा हुआ है, फिर भी भारत इस बीमारी का सबसे बड़ा शिकार होने का दावेदार है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने संकट का सामना करने के लिए एक शातिर जनसम्पर्क अभियान के अलावा बहुत कम काम किया है। वास्तव में दिल्ली द्वारा उठाये गये कई नीतिगत कदमों से इस खतरनाक वायरस के प्रसार की सम्भावना बढ़ गयी है।

जब मोदी ने 24 मार्च को 21 दिन के राष्ट्रव्यापी बन्द की घोषणा की, तो उन्होंने इससे पहले कोई चेतावनी नहीं दी। प्रधानमंत्री के बात खत्म करने से पहले ही घबराये हुए शहरी लोग–– ज्यादातर मध्यम वर्ग के लोग–– भोजन और दवाएँ जमा करने के लिए सड़कों पर उतरने को मजबूर कर दिये गये, जिससे लगभग निश्चित रूप से कोविड–19 के प्रसार में तेजी आयी।

लॉकडाउन ने तुरन्त करोडों लोगों को बेरोजगार बना दिया, जिसके चलते बहुत से लोग गाँवों की ओर अपने घर निकल पड़े। क्योंकि सार्वजनिक परिवहन बन्द कर दिया गया है, इसमें 300 मील से भी ज्यादा की यात्राएँ शामिल हैं और बहुत से गाँवों में बाहर से आने वाले लोगों को रोका जा रहा है, इसलिए प्रवासियों को भोजन और पानी कहाँ मिलेगा इसका किसी को अनुमान नहीं है।

कुछ स्वतंत्र समाचार स्रोतों को छोड़कर, 24 मार्च के आदेशों से फैली अव्यवस्थाओं में से अधिकतर की कहीं रिपोर्टिंग नहीं हो पायी है। वित्तीय दबाव और पूर्ण सेंसरशिप के मेल का उपयोग करते हुए मोदी और उनकी दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने मीडिया को बहुत हदतक चुप करा दिया है। समाचार पत्रों और प्रसारण केन्द्रों ने अनुभव किया है कि मोदी या भाजपा की आलोचना करके वे सरकारी विज्ञापनों से हाथ धो बैठते हैं जो उनकी आय का एक बड़ा स्रोत हैं। मोदी सरकार ने विरोधी मीडिया केन्द्रों के खिलाफ ऐसे कई मामलें भी दायर किये हैं जिन्हें लड़ना महँगा और मुश्किल है।

कोरोना वायरस के मामले में सरकार ने मीडिया को यह आदेश देने के लिए कि सभी स्वास्थ्य संकट के “आधिकारिक संस्करण” को ही प्रकाशित करेंगे, इसके लिए सुप्रीम कोर्ट का सहारा लिया, व्यवहार में इसका मतलब है–– सरकार के पक्ष में अच्छी–अच्छी बातें ही छापो।

भाजपा ने भारत के 17,000 अखबारों, 100,000 पत्रिकाओं और 178 टेलीविजन समाचार चैनलों को अपनी तरफ लाने में भारी सफलता हासिल की है, जिसकी मीडिया संगठनों ने कड़ी निन्दा की है। ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ ने भारत को अपने स्वतंत्रता सूचकांक में 180 देशों में से 140वां स्थान दिया है।

मोदी ने कोविड–19 संकट पर क्षेत्रीय प्रतिक्रिया गढ़ने के लिए एक हाई–प्रोफाइल अभियान की अगुआई की है। 15 मार्च को मोदी ने कोरोना वायरस इमरजेंसी फण्ड बनाने और चिकित्सा सम्बन्धी जानकारी का आदान–प्रदान करने के लिए दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) का एक सम्मेलन बुलाया। 26 मार्च को मोदी ने अपने प्रयास को जी–20 (धनी सरकारों और बैंकों के एक अन्तरराष्ट्रीय मंच, जिसमें यूरोपीय संघ शामिल हैं) को आकर्षित करने तक बढ़ा दिया।

लेकिन इसमें सन्देह नहीं कि मोदी के क्षेत्रीय और अन्तरराष्ट्रीय प्रयास स्वास्थ्य संकट का सामना करने से अधिक उनकी सरकार की प्रतिष्ठा को सुधारने के लिए हैं।

मोदी ने भारतीय संविधान का उल्लंघन करके जम्मू–कश्मीर को एकतरफा ढ़ंग से जब्त किया और बाद में इस कब्जे के किसी भी तरह के विरोध को कुचला, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इन कदमों की व्यापक रूप से निन्दा की गयी। मोदी सरकार द्वारा मुसलमानों को छोड़कर नये तरीके से “नागरिकता” को पुनर्परिभाषित करने के हालिया कदम की भी व्यापक आलोचना हुई है। संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकारों के उच्चायुक्त, मिशेल बाचेलेट ने इस कानून को ऐसे कई अन्तरराष्ट्रीय समझौतों का उल्लंघन बताया, जिनमें भारत एक पक्ष है।

सार्क या जी–20 का कुछ पालन किया गया है लेकिन सरकार ने घरेलू स्तर पर बहुत कम काम किया है। सबसे ज्यादा जरूरत के ऐसे समय में भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में हर 1,000 लोगों के लिए अस्पताल के केवल 0.5 बिस्तर उपलब्ध हैं जो बहुत कमजोर स्थिति है। इसके विपरीत, इटली में यह आँकड़ा भारत से लगभग सात गुना ज्यादा है।

‘रूरल इंडिया ऑनलाइन’ जो पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया (पीएआरआई) का हिस्सा रही है कोविड–19 संकट पर रिपोर्टिंग करने वाला एक महत्त्वपूर्ण स्वतंत्र मीडिया केन्द्र है, यह भारत के उन ग्रामीण निवासियों पर रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों और फोटो जर्नलिस्टों का एक नेटवर्क है, जो भारत की 70 प्रतिशत आबादी हैं।

पी साईनाथ, पीएआरआई के संस्थापक और सम्पादक हैं, जिन्हें प्रतिष्ठित रेमन मैग्सेसे पुरस्कार और मानव अधिकारों के लिए एमनेस्टी इंटरनेशनल का वैश्विक पुरस्कार मिला है–– वे मोदी सरकार के कामों के जबरदस्त आलोचक हैं और पीएआरआई के संवाददाताओं ने लिखा है कि मुख्यधारा के मीडिया को ऐसे मामलों से जुड़ी खबरें देने पर धमकाया गया है जैसे घर लौटने के लिए सड़कों पर निकल आयी गरीबों की भारी संख्या, इलाज की उम्मीद में अस्पतालों के बाहर सो रहे कैंसर के रोगी और दिहाड़ी मजदूर जो किसी भी दिन काम से छुट्टी नहीं कर सकते हैं। इनमें से एक ने पीएआरआई की रिपोर्टर श्रद्धा अग्रवाल से कहा, “अगर हम पहले भूख से मरते हैं तो साबुन हमें नहीं बचाएगा।”

पीएआरआई के पत्रकारों ने भारत के सफाई कर्मचारियों पर भी कई खबरें छापी हैं, जिनमें से कुछ को ही दस्ताने या मास्क दिये गये हैं। मुम्बई की सफाई कर्मचारी अर्चना चैबस्कवान ने पीएआरआई की रिपोर्टर इवोती शिनोली से कहा, “सरकार लगातार हाथ साफ करने को कह रही है।” “हम यह कैसे करें? सैनिटाइजर बहुत महँगे हैं” चैबस्कवान की रोजाना की कमाई 200 रुपये है–– पानी की आपूर्ति अनिश्चित है और सामाजिक दूरी असम्भव है। “एक ही सार्वजनिक शौचालय में हम सैकड़ों लोग जाते हैं।”

अगर सफाई कर्मचारी बीमार हो जाते हैं–– या मुम्बई के 2 करोड़ निवासियों में से कोई भी, तो उनकी जान संकट में है। सरकारी अस्पतालों में इस समय पूरे शहर के लिए केवल 400 वेंटिलेटर और 1,000 आईसीयू बेड उपलब्ध हैं।

भारत का स्वास्थ्य संकट लम्बे समय से चला आ रहा है और मोदी सरकार की कार्रवाइयाँ निश्चित रूप से मौजूदा संकट को और बिगाडेंगी, पिछले 30 सालों से भारतीय सरकारों, दक्षिणपंथी और मध्यममार्गी दोनों ने ही स्वास्थ्य देखभाल के खर्च में बहुत कटौती की है और व्यवस्था के बड़े हिस्से का निजीकरण कर चुकी हैं। साईनाथ लिखते हैं, “हमारा देश स्वास्थ्य पर दुनिया में सबसे कम खर्च (सकल घरेलू उत्पाद के एक हिस्से के रूप में) करने वाले देशों में से एक है। लगभग दस लाख भारतीय हर साल तपेदिक से और एक लाख बच्चे दस्त से मर जाते हैं।

अमरीका अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 17 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करता है।

साईनाथ के अनुसार, “आज पूरे भारत में स्वास्थ्य पर खर्च शायद ग्रामीण परिवार के ऋण का सबसे तेजी से बढ़ती वजह है।” ‘हेल्थ फाउण्डेशन ऑफ इंडिया’ के एक अध्ययन में पाया गया कि 2011–12 में लगभग 5 करोड़ 50 लाख लोगों को स्वास्थ्य के खर्च ने और 38 लाख को केवल दवा के खर्च ने कंगाल बना दिया था।

यही कारण है कि भारत के 1.3 अरब लोगों का एक बड़ा हिस्सा कोविड–19 के विकराल रूप का सामना कर रहा है और उन्हें भाजपा या मोदी से बहुत मदद मिलने की सम्भावना नहीं है। जब आखिरकार चीन में कोरोना वायरस के खतरे सबके सामने आ गये थे, तो भारत में मोदी के कुछ कैबिनेट मंत्रियों के साम्प्रदायिक दंगों में लिप्त होने से खलबली मची थी। हिन्दुत्ववादी संगठनों द्वारा संचालित दक्षिणपंथी भीड़ उपद्रव मचाते हुए सड़कों पर उतरी तो नयी दिल्ली में 50 से अधिक लोग मारे गये और सैकड़ों घायल हुए।

दार्शनिक और राजनीतिक टिप्पणीकार एजाज अहमद आरएसएस को “आज की दुनिया में सबसे पुराना, सबसे बड़ा और सबसे सफल धुर दक्षिणपंथी समूह” कहते हैं, यह संगठन ही मोदी के पीछे खड़ी असली ताकत है। अहमद के मुताबिक, भाजपा इस हिन्दू कट्टरपंथी संगठन आरएसएस, का एक विशाल मोर्चा है। यह संगठन “पूरी तरह पदानुक्रमवादी और गुप्त” है।

ऊपर से नीचे तक, कोरोना वायरस पर कोई चेतावनी आज्ञप्ति जारी न करना आरएसएस के काम करने का खास तरीका है। इससे पहले 2016 में बिना किसी चेतावनी के मोदी ने 500 और 1,000 रुपये के सभी नोटों को एकतरफा ढंग से रद्द करके देश को मुद्रा अराजकता में फेंक दिया था और इसने गरीब भारतीयों की बड़ी संख्या को कंगाल बनाया था।

आरएसएस का प्रमुख लक्ष्य एक हिन्दू केन्द्रित राष्ट्र का निर्माण है और यह किस्म–किस्म की भीड़ या हत्या के जरिये हिंसा करने से भी नहीं हिचकता। बन्दूकधारियों ने पिछले सालों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई प्रमुख विरोधियों को मार डाला है, इन हत्याओं की गुत्थी कभी नहीं सुलझी।

धर्म केन्द्रित राजनीति ने सरकार की प्राथमिकताओं की दिशा बदल दी है। भारत की सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने भगवान राम की विशाल प्रतिमा के निर्माण के लिए 6,916 करोड़ रुपये जारी किये, जबकि आपातकालीन चिकित्सा सुविधाओं को घटा दिया।

भारत की अधिकांश मुख्यधारा की प्रेस या तो इनके साथ मिल गयी है या फिर डरकर पीछे हट गयी है। यह पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया (पीएआरआई) जैसे वैकल्पिक स्रोत ही हैं, जिसने इस चुप्पी को तोड़ा है और इस बारे में खबरें दी हैं कि विशाल महानगरों के बाहर रहने वाले अधिकांश भारतीयों के साथ क्या हो रहा है तथा झुग्गी–झोपड़ी में रहने वाले और शहर के सफाई कर्मचारी किन हालातों का सामना कर रहे हैं।

अभी तक, मोदी और आरएसएस ने हिंसा में बढ़ोतरी रोकने और उन सामाजिक प्राथमिकताओं की जवाबदेही से परहेज किया है, अमीर और गरीब के बीच की खाई को चैड़ा किया है। लेकिन कोविड–19 इसे बदल सकता है।

पीएआरआई ने मौजूदा संकट से निपटने के लिए कई माँगे पेश की हैं, जिसमें अतिरिक्त अनाज का तत्काल वितरण, खेती का नकदी फसलों से खाद्य फसलों की ओर बदलाव और राष्ट्रव्यापी निजी चिकित्सा सुविधाओं का राष्ट्रीयकरण शामिल है।

कोविड–19 संकट 1918–20 के फ्लू की महामारी के बाद से महामारी के रूप में मानी जाने वाली तीसरी बीमारी है, जिसमें 10 करोड़ लोगों की मौत हो सकती है। लेकिन जलवायु परिवर्तन ऐसी स्थितियाँ पैदा कर रहा है जो कोरोना वायरस और वेक्टर–आधारित रोगजनकों जैसे डेंगू और मलेरिया जैसी बीमारियों को बढ़ाएगी। अगली महामारी करीब ही है और जब तक कि स्वास्थ्य देखभाल को मानव अधिकार बनाने के लिए एक केन्द्रित प्रयास नहीं होता, तो अगले जबरदस्त–जानलेवा हमलों से सामना होना तय है।

अनुवाद––प्रवीण

(काउंटर पंच से साभार)