इस साल की शुरुआत के साथ ही यूजीसी ने भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के कैम्पस खोलने की अनुमति दे दी। अब विश्व के चोटी के पाँच सौ विश्वविद्यालयों में से कोई भी यहाँ अपना कैम्पस स्थापित कर पाएगा। इसे मास्टर स्ट्रोक बताया गया और खूब बढ़ा–चढ़ाकर प्रचारित किया गया कि अब घर बैठे ही भारत के गरीब–होनहार कम खर्च में कैंब्रिज, ऑक्सफोर्ड और येल विश्वविद्यालयों की डिग्रियाँ हासिल कर पाएँगे।

गौरतलब है कि आज देशी विश्वविद्यालय के प्रगतिशील शिक्षकों और विद्वानों पर लगातार हमले कर उनकी आवाज को दबाया जा रहा है, उनकी छवि राष्ट्र विरोधी और आतंकवादी की बनायी जा रही है। ऐसी स्थिति में विदेशी विश्वविद्यालयों को कितना खुला और रचनात्मक माहौल मिल पाएगा? यह सवाल महत्वपूर्ण है। कहीं ये हिन्दुत्ववादियों के हाथ का मोहरा बनकर तो नहीं रह जाएँगे?

कोई उलझन न रहे तो सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया है की शैक्षिक स्वतंत्रता के लिहाज से ये कैम्पस कोई वीराने में बहार नहीं होंगे, बल्कि ये सेन्सरशिप लादने में हिन्दू राष्ट्रवादियों की मदद करेंगे।

दूसरे देशों में सेन्सरशिप से जुड़ी पिछले साल की कुछ घटनाओं पर हमें सोचना चाहिए। मेलबर्न विश्वविद्यालय के सोलह शिक्षाविदों ने ऑस्ट्रेलिया इंडिया इंस्टिट्यूट के अपने पदों से इस्तीफा दे दिया। वजह बतायी–– भारतीय दूतावास के अधिकारियों का बेजा दखल और स्वतंत्र शैक्षिक माहौल बनाने के लिए अपने ही विश्वविद्यालय का साथ न मिलना।

वहीं कनाडा में टोरेण्टो विश्वविद्यालय द्वारा प्रायोजित एक स्टूडेण्ट फिल्म फेस्टिवल का आयोजन किया गया। भारतीय उच्च आयोग के अधिकारियों ने एक फिल्म पर एतराज जताया और आयोजकों पर इसे हटाने के लिए दबाव बनाया क्योंकि इस फिल्म से हिन्दुओं की भावनाएँ आहत हो रही थीं। आयोजकों ने घुटने टेक दिये और छात्रों की मेहनत पर कैंची चला दी।

पिछले साल ही एमनेस्टी इण्टरनेशनल इंडिया के प्रमुख आकार पटेल को अमरीकी विश्वविद्यालयों में व्याख्यान के लिए बुलाया गया था। एमनेस्टी इण्टरनेशनल मानवाधिकार संरक्षण पर पूरी दुनिया में काम करने वाली संस्था है। पता चला कि शिकागो विश्वविद्यालय ने अपना न्योता वापस ले लिया। कारण पूछने पर विश्वविद्यालय ने कोई जवाब नहीं दिया। वहीं भारत में अधिकारियों ने आकार पटेल का पासपोर्ट जब्त कर उन्हे देश छोड़ने से ही रोक दिया। आकार पटेल अन्य विश्वविद्यालयों के कार्यक्रमों में भी नहीं जा सके।

खुद भारत की स्थिति बहुत गम्भीर है। नरेन्द्र मोदी के सत्तारूढ होने के बाद से शैक्षिक स्वतंत्रता पर हमले और सरकार द्वारा छात्रों और शिक्षकों के दमन में आश्चर्यजनक बढ़ोतरी हुई है। हिन्दू राष्ट्रवाद को कक्षाओं और शोध कार्य में बिना किसी ना–नुकुर के बढ़ावा नहीं देने वाले शिक्षाविदों और संस्थाओ को निशाना बनाया जा रहा है। ‘नये आतंक रोधी’ कानून के तहत छात्रों और शिक्षकों की गिरफ्तारियाँ बहुत बढ़ी हैं। हिन्दुत्व की चरमपंथी विचारधारा का विरोध करने वाले बुद्धिजीवियों को कुछ गम्भीर मामलों में जान तक से हाथ धोना पड़ा है। गरीबी, जातिभेद, महिला अधिकार, दलित राजनीति, साम्प्रदायिकता और मुस्लिम इतिहास जैसे विषयों का अध्ययन गौरवशाली हिन्दू इतिहास के लिए सीधा खतरा है और इसीलिए ये ज्यादा से ज्यादा प्रतिबन्धित किये जा रहे है।

ऐसे माहौल में विदेशी विश्वविद्यालय और संस्थान लाने की यूजीसी की योजना कितनी सार्थक होगी? जबकि हमारी शिक्षा व्यवस्था ही जबरदस्त संकट से गुजर रही है। इस संकट का कारण सरकार की दमनकारी नीतियाँ और रसातल में धँसते लोकतान्त्रिक मूल्य हैं। 

भारत में शैक्षिक स्वतंत्रता की हालत क्या है? इसकी हकीकत हमें वी–डेम इंस्टिट्यूट की हालिया जारी रिपोर्ट से भी मिलती है जिसके अनुसार भारत शैक्षिक स्वतंत्रता सूचकांक में 10–20 फीसद के साथ निचले पायदान पर है।

सबसे ताजा उदाहरण है–– गुजरात दंगों पर बनी बीबीसी की डाक्यूमेण्ट्री ‘द मोदी क्वेशन’ को भारत में प्रतिबन्धित कर दिया गया। इस डाक्यूमेण्ट्री में गुजरात दंगों के दौरान प्रधानमंत्री की भूमिका पर सवाल उठाये गये हैं। इसे देश के अलग–अलग विश्वविद्यालयों में दिखाया गया। जिसके चलते बहुत से छात्रों को जेलों में ठूस दिया गया। हिन्दुत्ववादियों ने डाक्यूमेण्ट्री को औपनिवेशिक मानसिकता का सबब और देश विरोधी बताया।

छात्रों पर बोझ कम करने और सुबोध–सरल बनाने के नाम पर पाठ्यक्रम को तंग हिन्दुत्ववादी साँचे में ढाला जा रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि विदेशी विश्वविद्यालयों को भी पाठ्यक्रम की इस काँट–छाँट से गुजरना होगा। विदेशी विश्वविद्यालयों के कैम्पस अन्य देशों में भी खुले हैं। वहाँ इनकी हालत गौर करने लायक है।

न्यू यॉर्क विश्वविद्यालय ने शंघाई में अपना कैम्पस स्थापित किया। इसके लिए विश्वविद्यालय को चीनी सरकार से बाकायदा एक समझौता करना पड़ा कि वे मेजबान देश के नियम कानूनों का सम्मान करें, सरकार की आलोचना से बचें और अति संवेदनशील माने गये विषयों पर शोध, सेमीनार और बहस–मुबाहिसों से परहेज करें। कुल मिलाकर विश्वविद्यालय के लिए लक्ष्मण रेखा खींच दी गयी जिसकी हदों से बाहर जाना उसके लिए नुकसानदेह होगा। उसे हर वक्त एक आज्ञापालक मेहमान की तरह रहना होगा।

न्यू यॉर्क विश्वविद्यालय कैम्पस आबू धाबी ने विश्वविद्यालय के दो शिक्षकों को पढ़ाने के लिए अमरीका से आबू धाबी बुलाया था। विश्वविद्यालयों में यह एक नियमित चलने वाली प्रक्रिया है जिसे विश्वविद्यालय अपनी जरूरतों, जैसे शैक्षिक गुणवत्ता बनाने, कोई नया विषय पढ़ाने और शोध आदि कराने के लिए करते रहते हैं। लेकिन सऊदी सरकार ने इन शिक्षकों पर एतराज जताया और वीजा न देकर उन्हें आने से रोक दिया। कैम्पस सरकार का मुँह ताकता रह गया।

यह सोचना कि भारत में कुछ अलग होगा खुशफहमी है। सरकार नामी विदेशी विश्वविद्यालयों के कंधों पर बन्दूक रख कर निशाना लगाएगी। ये कैम्पस कुछ नहीं, महज हिन्दुत्ववादी विचारधारा और संकीर्णता फैलाने का यंत्र बनकर रह जाएँगे। इनके जरिये सरकार की अन्य देशों में पहुँच बढ़ेगी और पकड़ मजबूत होगी।

सरकार यदि हकीकत में शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण और सर्वसुलभ बनाना चाहती तो देश के करोड़ों नौजवानों, बुद्धिजीवियों और अपने संसाधनों पर भरोसा कर आगे बढ़ती। उच्च शिक्षा का बजट बढ़ाकर, छात्र–शिक्षक अनुपात को दुरुस्त कर, देश के दूर–दराज के इलाकों में नये विश्वविद्यालय खोलकर, आमजन के लिए सस्ती शिक्षा उपलब्ध कराती। बजाय इसके, भाजपा सरकार ने विदेशी संस्थानों में अपना भरोसा जताया और इसकी आड़ मे अपना क्षुद्र राजनीतिक एजेंडा चलाने की योजना बना ली है। 

रवीन्द्रनाथ टगौर ने कहा था कि “बन्धन मुक्त शिक्षा ही निर्भीक और स्वाभिमानी नौजवान पैदा कर सकती है।” लेकिन देशी–विदेशी पूँजीपतियों के लिए काम करने वाली सरकारें आजाद ख्याल नौजवानों से खौफ खाती हैं। इसीलिए भारत की शिक्षा व्यवस्था की लगाम कसी जा रही है।