जिप्सन जॉन और जितेश पीएम ‘ट्राईकाण्टिनेण्टल इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च’ में फैलों हैं। दोनों ने ‘द वायर’ के लिए नोम चोमस्की का साक्षात्कार लिया। चोमस्की भाषाविद् और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं, जो नवउदारवाद, सैन्यवाद, साम्राज्यवाद और औद्योगिक–मीडिया समूह की आलोचनाओं के लिए विख्यात हैं।

जिप्सन और जितेश : विश्व का सबसे धनवान और शक्तिशाली देश अमरीका भी कोरोनावायरस के संक्रमण के प्रसार को रोकने में असफल क्यों रहा? यह असफलता राजनीतिक नेतृत्व की है अथवा व्यवस्थागत? सच तो यह है कि कोविड–19 के संकट के बावजूद भी, मार्च में डोनाल्ड ट्रम्प की लोकप्रियता में वृद्धि हुई। क्या आपको लगता है कि अमरीका के चुनावों पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा?

नोम चोमस्की : इस महामारी की जड़ों को जानने के लिए हमें थोड़ा पीछे लौटना होगा। यह महामारी अप्रत्याशित नहीं है। वर्ष 2003 की सार्स महामारी के पश्चात ही वैज्ञानिकों को अन्देशा हो गया था कि एक और महामारी आ सकती है और यह सम्भवत: सार्स कोरोनावायरस के ही किसी नये रूप में होगी। कोविड–19 के बारे में पर्याप्त ज्ञान उपलब्ध नहीं है। पर किसी को तो कुछ न कुछ करना ही होगा। दवा–कम्पनियों की इसमें कोई रुचि नहीं है। वे बाजार के संकेतों का अनुसरण करती हैं, मुनाफा कहीं और होता है। सरकार इसे अपने हाथ में ले सकती थी पर नवउदारवाद का सिद्धान्त उसका रास्ता रोक लेता है।

ट्रम्प ने रोग–नियंत्रक केन्द्रों को की जाने वाली आर्थिक मदद को धीरे–धीरे बन्द कर और जिन राष्ट्रीय कार्यक्रमों से इस महामारी के बारे में अग्रिम सूचनाएँ प्राप्त करने में मदद मिल सकती थी, उनको समाप्त कर हालात और खराब कर दिये। चीनी वैज्ञानिकों ने बीमारी फैलाने वाले वायरस की शीघ्र ही पहचान कर ली और इसकी प्रजातियों को श्रेणीबद्ध कर 10 जनवरी तक सम्बन्धित सूचनाओं को सार्वजनिक कर दिया।

कई देशों ने इस पर तुरंत प्रतिक्रिया दिखाई और काफी हद तक समस्या को नियंत्रित कर लिया। ट्रम्प ने निरंतर अमरीकी खुफिया विभाग और स्वास्थ्य अधिकारियों की चेतावनियों की अनदेखी की। वह यही कहता रहा कि यह एक सामान्य फ्लू है और जल्दी खत्म हो जाएगा। आखिरकार जब मार्च में इस पर ध्यान दिया गया तो काफी देर हो चुकी थी। हजारों लोग पहले ही मर चुके थे और महामारी नियंत्रण से बाहर हो चुकी थी।

अमरीका को तिगुना झटके सहने पड़े–– पूँजीवादी तर्क, पूँजीवाद का बर्बर नवउदारवादी संस्करण और एक ऐसी सरकार के रूप में जिसका अपनी जनता से कोई सरोकार नहीं है।

जब एक राष्ट्रपति कोई कदम उठाता है तो उसे अनुमोदन का लाभ मिलता है परन्तु ट्रम्प के मामले में इस तरह का अनुमोदन शीघ्र ही उतार पर आ गया। उसकी घपलेबाजियों और आपराधिकता ने उसके दोबारा जीतने के अवसरों को कमजोर किया है परन्तु नवम्बर से पहले बहुत कुछ हो भी सकता है।

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जिप्सन और जितेश : डिजिटल तकनीक और राज्य द्वारा नियंत्रण से काफी देशों को महामारी पर निगरानी रखने और उससे लड़ने में मदद मिलती है परन्तु विशेषज्ञों ने बढ़ते अधिकारवादी नियंत्रण और राज्य द्वारा निगरानी की प्रवृति पर सवाल भी उठाये हैं। क्या आप इससे सहमत हैं?

नोम चोमस्की : इस बारे में अलग–अलग ताकतों में विवाद है। व्यापार जगत और प्रतिक्रियावादी सांख्यिकीविद इस पर एकमत हैं कि पहले से भी कहीं ज्यादा अधिकारवादी नियंत्रण लागू किया जाये, पर लोकप्रिय शक्तियाँ चाहती हैं कि यह ज्यादा न्यायिक और मुक्त होना चाहिए। इन दोनों शक्तियों के पारस्परिक प्रभाव से देखें क्या घटित होता है।

जिप्सन और जितेश : वर्तमान सन्दर्भ में गरीब लोगों की दशा में सुधार लाने की दिशा में किस तरह के आर्थिक कदम उठाये जाने की आवश्यकता है? आपको सरकारों द्वारा नये सामाजिक–लोकतांत्रिक दृष्टिकोण अपनाने अथवा ज्यादा कठोर अथवा फौरी राहत देने जैसे कदम उठाने में किसकी सम्भावना अधिक लगती है?

नोम चोमस्की : हम जानते हैं कि किस प्रकार के आर्थिक कदम उठाये जाने की आवश्यकता है। हम यह नहीं जानते कि इस संकट के पश्चात स्थितियाँ कैसी होंगी। पिछले 40 वर्षों से चल रहे नवउदारवादी बर्बर पूँजीवाद के लाभार्थी जो न सिर्फ इस महामारी अपितु अन्य कई संकटों के लिए जिम्मेदार भी हैं, दिन–रात यह कोशिश कर रहे हैं कि इसके बाद की स्थिति उससे भी कठोर हो जो उन्होंने अपने फायदों के लिए निर्मित की थी। अगर उनका सामना करने के लिए अन्य ताकतवर शक्तियाँ नहीं होंगी तो निश्चित तौर पर वे अपने इरादों में कामयाब हो जायेंगे। पर यह सब पूर्व–निर्धारित नहीं है।

लोकप्रिय शक्तियाँ आकार ले रही हैं और ये सब मिलकर एक भिन्न और कहीं अधिक बेहतर विश्व का निर्माण कर सकती हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अमरीका से बर्नी सांडर्स और यूरोप से यानिस वरौफकिस के संयुक्त आह्वान पर “प्रोग्रेसिव इण्टरनेशनल” की स्थापना इसी दिशा में पहलकदमी है। इसके साथ दक्षिणी गोलार्ध के देश भी जुड़ रहे हंै।

हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि आने वाला संकट मौजूदा संकट से बदतर होगा। भारी कीमत चुका कर हम महामारी से तो मुक्त हो जायेंगे, लेकिन ध्रुर्वीय बर्फ की चादरों और हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने से होने वाले नुकसान और ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के गम्भीर प्रभावों की भरपाई नहीं हो सकती। अगर दुनिया इसी तरह से चलती रही तो वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब अधिकांश दक्षिण एशिया निर्जन हो जाएगा। हाल ही के वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार पूरा विश्व भी अगले पचास वर्षों में इस स्तर पर पहुँच सकता है।

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जिप्सन और जितेश : रॉब वालेस जैसे महामारी विज्ञानियों ने कहा है कि लाभ–संचालित पूँजीवादी तर्क ने वन्यजीव पारिस्थितिकी तंत्र पर आक्रमण कर दिया है और मानव–वन्यजीव संघर्ष सामान्य बात हो गयी है। और यह संघर्ष वायरस को मनुष्यों में फैलने का मार्ग भी प्रशस्त करता है। इसलिए पूँजीवाद का संकट, स्वास्थ्य के संकट के रूप में उभरकर सामने आया है और मनुष्य पूर्व जैसी “सामान्य” स्थिति में नहीं लौट पायेगा। इस बारे में आपके क्या विचार हैं?

नोम चोमस्की : वे बिलकुल ठीक कह रहे हैं। प्राकृतिक आवासों और विनाशकारी भूमि–उपयोग से इस तरह के संक्रमण के प्रसार का खतरा बढ़ता जा रहा है। ठीक यही कोरोनावायरस के साथ भी हुआ है। बेलगाम पूँजीवाद की आत्मघाती प्रवृतियाँ स्वास्थ्य–संकट सहित कई रूपों में उजागर हुई हैं। 2003 की सार्स महामारी के पश्चात वैज्ञानिकों ने चेताया था कि एक और कोरोनावायरस महामारी आ सकती है और हमें इसके लिए तैयारी करनी चाहिए। पर किस ने इस दिशा में कुछ भी किया?

विशाल और बेहद अमीर दवा कम्पनियों के पास ऐसा करने के संसाधन उपलब्ध हैं, लेकिन उनकी राह में भी सामान्य पूँजीवादी तर्क रोड़ा है, ऐसा करना लाभप्रद नहीं है। सरकार इसमें हस्तक्षेप कर सकती है, लेकिन उसका रास्ता भी नवउदारवाद का विचार रोक लेता है। इस विचार के अनुसार, सरकार निजी शक्तियों द्वारा नियंत्रित दुनिया में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। अगर हस्तक्षेप कर भी सकती है तो निश्चित रूप से, अमीर और कॉर्पाेरेट क्षेत्र को उन्हीं के पैदा किये गये संकटों से बचाने के लिए, जैसा कि एक बार फिर आज हो रहा है।

एक और महामारी की भविष्यवाणी कर दी गयी है और सम्भवत: यह इससे और ज्यादा भयानक होगी, जिसके साथ ‘ग्लोबल वार्मिंग’ बढ़ने की आशंका भी है। वैज्ञानिक जानते हैं कि वे इसके लिए क्या तैयारी करें पर किसी को तो कदम उठाना ही होगा। आज जो मंजर हमारी आँखों के सामने है, अगर हम उससे कोई सबक नहीं सीखते तो इसके परिणाम निश्चित रूप से बेहद गम्भीर होंगे।

हमें सिर्फ यह मान कर नहीं बैठ जाना चाहिए कि बड़ी दवा कम्पनियाँ और सरकार ही एकमात्र विकल्प हैं। यह भी एक उचित सवाल है कि जिन बड़ी कम्पनियों को जनता द्वारा भारी सब्सिडी दी जाती है, उनका अस्तित्व ही क्यों होना चाहिए। इन्हें श्रमिकों और समुदाय के अधीन कर इनका सामाजीकरण क्यों नहीं किया जाना चाहिए? ये कम्पनियाँ केन्द्रित धन और निजी शक्ति के बजाय स्वयं को मानवीय जरूरतों के लिए आखिर क्यों न समर्पित करें?

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जिप्सन और जितेश : वायरस से बेहतर तरीके से लड़ने के लिए राष्ट्रों के बीच एकजुटता होनी चाहिए। लेकिन हम नस्लीय और उन्मादपूर्ण दोषारोपण के खेल में फंसे है। कभी चीन को धमकी देकर, कभी विश्व स्वास्थ्य संगठन को धन रोक कर, ईरान और वेनेजुएला के खिलाफ और अधिक प्रतिबंध लगाकर , चिकित्सा उपकरणों के लिए प्रतिस्पर्धा में शामिल होकर। पैट्रिक कॉकबर्न ने कहा है कि यह अमरीकी आधिपत्य के पतन का दौर है। क्या आप सहमत हैं?

नोम चोमस्की : इसमें से अधिकांश चीजें ट्रम्प प्रशासन के बदसूरत और साम्राज्यवाद के असामान्य रूप से शातिराना चेहरे को दिखाती हैं। लेकिन बात इससे भी ज्यादा है जो इस स्थिति का बेहतर खुलासा करती है। आप यूरोपीय संघ को ही लें। इस संघ का सबसे अमीर और ताकतवर देश है जर्मनी, जिसने इस संकट का सामना भली प्रकार से किया है। इससे थोड़ी ही दूरी पर दक्षिण में स्थित इटली इस संकट से गम्भीर रूप से प्रभावित हुआ है। क्या जर्मनी, इटली को स्वास्थ्य–सेवाएँ उपलब्ध करा रहा है? अभी तक की रिपोर्टों के मुताबिक तो ऐसा नहीं किया जा रहा। सौभाग्य से इटली को क्यूबा से अच्छी–खासी मदद मिल रही है। यह सच्चे अन्तर्राष्ट्रीयतावाद का उदाहरण है और ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। परिस्थितियाँ ही इस तरह के अन्तर्राष्ट्रीयतावाद, जिसकी सख्त जरूरत है, का नमूना पेश करती हैं – और उस तरह के स्वार्थ का भी जो हम सब को नष्ट कर सकता है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि ट्रम्प संयुक्त राज्य अमरीका को गम्भीर नुकसान पहुँचा रहा है, लेकिन वह अमरीकी आधिपत्य को भी गम्भीर नुकसान पहुँचा देगा इस पर मुझे सन्देह है। अमरीका के पास अब भी बहुत ताकत है। सैन्य–क्षेत्र में इसकी कोई तुलना नहीं। अमरीका ही एकमात्र ऐसा देश है जो कठोर प्रतिबंध लगा सकता है। वह तृतीय पक्ष पर भी प्रतिबंध लगाकर उनका पालन करने को मजबूर कर सकता है, चाहे इसका कितना ही विरोध क्यों न हो। जब अमरीका इजरायल–फिलिस्तीन के लिए “सदी का सौदा” जारी करता है, तो वह दूसरों के लिए भी प्रारूप बन जाता है और सब खुद को उस प्रारूप के अनुरूप ढालने लगते हैं।। यदि आप गौर करें तो पायेंगे कि अगर किसी अन्य देश ने इसे जारी किया होता तो प्रतिक्रिया में उसका उपहास ही उड़ाया जाता। अमरीका स्थित बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ दुनिया की आधी दौलत को नियंत्रित करती हैं और प्रत्येक आर्थिक क्षेत्र ये बहुधा पहले या फिर दूसरे स्थान पर हैं।

अमरीका को दूसरे कई देश बेहद नापसन्द करते हैं। लेकिन वे डरते है और उनका डर जायज भी है। विश्व मंच पर अमरीका का कोई गम्भीर प्रतियोगी नहीं है।

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जिप्सन जॉन और जितेश पीएम, ‘ट्राईकाण्टिनेण्टल इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च’ में फैलो हैं और द हिन्दू, फ्रण्टलाइन, द कारवां और मंथली रिव्यू सहित विभिन्न राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय प्रकाशनों के लिए लिखते हैं।

 अनुवाद–– कुमार मुकेश