हाल ही में एनसीईआरटी ने डार्विन के जैविक विकास सम्बन्धी अध्याय को 10वीं के पाठ्यक्रम से हटा दिया है। इसका कारण बच्चों पर पढ़ाई के बोझ को कम करना बताया गया है। लेकिन ऐसा करके सरकार वैज्ञानिक सोच, लोकतान्त्रिक मूल्य–मान्यताओं और क्रान्तियों के इतिहास से सम्बन्धित विषयों को ही पाठ्यक्रम से हटा रही है। ऐसे में सरकार की मंशा साफ है, वह अब अपने विरोधी इन विचारों को किताबों में भी बर्दास्त नहीं कर रही और उन पर हमलावर है। इसी कड़ी में डार्विन के सिद्धान्तों को हटाना एक बहुत भयानक कदम है।

लम्बे समय से आरएसएस और भाजपा अपने भगवा एजेण्डे को आगे बढ़ाने के लिए डार्विन के सिद्धान्तों पर लगातार हमला कर रहे थे। समय–समय पर इन्हांेने सार्वजनिक मंचों पर खुलकर इनके बारे में नफरत फैलाया। 2018 में केन्द्रीय मंत्री सत्यपाल ने सार्वजनिक वक्तव्य देकर कहा था कि डार्विन के सिद्धान्त गलत हैं और क्रमिक विकास के चलते मानव अस्तित्व में नहीं आया है। इसी तरह आरएसएस से जुड़े एक वैज्ञानिक ने लखनऊ यूनिवर्सिटी में ‘वेदों में ज्योतिष और विज्ञान’ विषय पर हो रहे सेमीनार के दौरान डार्विन के सिद्धान्तों पर खुलकर हमला किया था। ऐसे अनेकों उदाहरण मौजूद हैं। इसलिए भाजपा सरकार ने सोचो–समझी रणनीति के तहत यह कदम उठाया है।

आखिर आरएसएस और भाजपा डार्विन के सिद्धान्तों से इतना क्यों डरती हैं?

लगभग पौने दो सौ साल पहले डार्विन ने जैविक विकास के सिद्धान्त और विकासवाद की प्रक्रिया के जरिये बताया था कि नये जीवों की उत्पत्ति पुराने जीवों के विकास से ही हुई है। उन्होंने दुनिया के सामने यह सच्चाई पहली बार उजागर की थी कि एक कोशकीय जीव ‘अमीबा’ से लेकर मनुष्य तक का सफर जैविक विकास का ही परिणाम है। डार्विन के वैज्ञानिक विश्लेषण से मानो उस समय भूचाल आ गया था। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इनसान की रचना भगवान ने की है लेकिन डार्विन ने इस सिद्धान्त के आधार को ही खत्म कर दिया था। इसलिए उस दौरान भी डार्विन धार्मिक कट्टरपंथियों के निशाने पर थे और आज भी हैं।

देश में आज समाज को पीछे ले जानेवाली प्रतिगामी ताकत भाजपा सत्ता में है। इसका एजेण्डा तभी पूरा होता है जब लोगों में धार्मिक उन्माद और साम्प्रदायिकता बढ़े। संघी–सरकार के नीति विशेषज्ञ जानते हैं कि डार्विन का सिद्धान्त उनके धर्म और आस्था पर आधारित झूठ को बेनकाब करता है। इसलिए इन्होंने मौका मिलते ही डार्विन के सिद्धान्तों को पाठ्यक्रम से हटा दिया। आज भाजपा सरकार वैज्ञानिक चेतना पर तेजी से हमला कर रही है। वैज्ञानिक सोच का प्रचार–प्रसार करने वाले लोगों की हत्याएँ की जा रही हैं। डॉ– कलबुर्गी की हत्या में हिन्दुत्ववादी संगठनों का ही हाथ सामने आया था। सरकार से जुड़े नेता और मन्त्री ढोंग–पाखंड और धर्मान्धता को बढ़ावा देने के लिए आये दिन बयानबाजी करते रहते हैं।

देश की आजादी के बाद जनता में वैज्ञानिक चेतना का प्रचार–प्रसार करने के लिए बहुत से काम किये गये थे। 1958 में भारतीय संसद ने ‘विज्ञान नीति संकल्प’ पारित किया था। यह संकल्प आधुनिक विज्ञान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करता था। इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए 1976 में एक संवैधानिक संशोधन किया गया था। अनुच्छेद 51ए के माध्यम से भारत सरकार ने विज्ञान संस्कृति को प्रोत्साहित करने पर बल दिया था। लेकिन आज सरकार इसके ठीक उल्टा काम कर रही है।

पाठ्यक्रम से डार्विन को हटाने के विरोध में 1800 से अधिक भारतीय वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों ने सरकार के नाम एक शिकायत पत्र भी लिखा है। ‘एन अपील अगेंस्ट एक्सक्लूजन ऑफ इवोल्यूशन फ्रॉम करिकुलम’ नामक शिकायत पत्र में लिखा है कि विकास प्रक्रिया की समझ वैज्ञानिक मनोवृति के निर्माण के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। छात्रों को इससे वंचित रखना माध्यमिक शिक्षा को अर्थहीन बनाना है।

अगर सरकार इसी तरह बेलगाम होकर वैज्ञानिक शिक्षा को पाठ्यक्रम से हटाती चली जायेगी तो इसका नतीजा यह होगा कि भारत सामन्ती कूपमण्डूकता, धर्मान्धता और अलोकतांत्रिक मूल्य–मान्यता के अन्धकार में डूब जायेगा, जहाँ वैज्ञानिक विकास की रोशनी के बजाय मध्ययुगीन अन्धकार होगा। इनसे बचने के लिए सरकार के इन आधुनिकता विरोधी और अवैज्ञानिक कदमों का प्रतिरोध होना चाहिए।