कोप–27 जलवायु संकट सम्मेलन
पर्यावरण सोनू पवाँर(जलवायु परिवर्तन से निपटनेे में पूँजीवादी व्यवस्था एक बार फिर असफल)
सम्मेलन का मेजबान मिस्र का तानाशाह अब्देल फतह अल–सिसी ही क्यों ?
जलवायु परिवर्तन पर 27 वीं वार्ता (कोप–27) मिस्र देश के प्रसिद्ध प्रायद्वीप माउंट सिनाई और लाल सागर के बीच स्थित शर्म–अल–शेख शहर में आयोजित की गयी। सिनाई प्रायद्वीप पर स्थित यह शहर (शर्म–अल–शेख) तफरीह के लिए एक बढिया जगह है। दुनियाभर से लगभग 100 राष्ट्राध्यक्षों और 45,000 प्रतिनिधियों ने इस सम्मेलन में हिस्सा लिया।
मिस्र के तानाशाह अब्देल फतह अल–सिसी इस सम्मेलन के मेजबान थे, जो साम्राज्यवादियों के जाने–पहचाने पिट्ठू है। अमरीका ने 2013 में एक भयावह खूनी तख्तापलट के बाद अल–सिसी को मिस्र के तख्त पर बैठाया था। अल–सिसी की सरकार मिस्र में लोकतान्त्रिक मूल्यों को एक–एक कर कुचल चुकी है। प्रेस, अभिव्यक्ति, विरोध–प्रर्दशन और आन्दोलन करने की आजादी केवल नाममात्र की बची है। यही कारण है कि शर्म–अल–शेख में पर्यावरण कार्यकर्ताओं के विरोध–प्रर्दशन करने की खाना–पूर्ति के लिए भारी–भरकम अत्याधुनिक हथियारों से लैस सैनिकों की निगरानी में एक छोटासा संकरा मैदान तैयार किया गया था।
अल–सिसी के शासन काल में लगभग 60 हजार से अधिक राजनीतिक कार्यकर्ता मिस्र की जेलों में कैद है। इनमें से अधिकतर गम्भीर बीमारियांे की चपेट में आकर मौत के बिल्कुल करीब हंै। अल–सिसी की सरकार मिस्र में मानवाधिकारों की खुलेआम धज्जियाँ उडा रही है। अत्याचार, उत्पीड़न, हिंसात्मक घटनाएँ, हत्याएँ सहित मिस्र के शहरों में आम बात हो चुकी है।
सम्मेलन में शामिल साम्राज्यवादी ताकतों के प्रतिनिधि खुद को एक ऐसे ही तानाशाह की निगरानी में सुरक्षित समझते हंै, क्योंकि खूनी–बर्बर वैश्विक साम्राज्यवाद आज अपने आन्तरिक अन्तर्विरोधों में इस कदर फँसा है कि वह तीसरी दुनिया के किसी भी देश की लोकतान्त्रिक सरकार पर रत्तीभर भी भरोसा नहीं कर सकता। साम्राज्यवाद आज तीसरी दुनिया की मेहनतकश जनता को इस हद तक लूट चुका है और लूट रहा है कि वे एक कुशल नेतृत्व मिलते ही उसके खिलाफ बगावत कर देगी। इस बात को साम्राज्यवादी बाखूबी जानते हैं। तानाशाह जितना खूनी और बर्बर होगा, वह साम्राज्यवादियों को उतना ही पसन्द आयेगा। मिस्र के तानाशाह की निगरानी में आयोजित कोप–27 सम्मेलन यह भी उजागर करता है कि साम्राज्यवादी आज कितने भयभीत हुए हैं और सनकी हो गये हैं।
जलवायु परिवर्तन का इतिहास
19वीं शताब्दी की शुरूआत से वातावरण में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ने लगी थी। यूरोप के देशों में पूँजीवादी क्रान्तियाँ हो रही थीं। वह यूरोप सहित समूची दुनिया में बुनियादी बदलाव का दौर था।
“पूँजीवादी उत्पादन प्राणाली” से पहले “सामन्ती उत्पादन प्रणाली” पूँजीवाद की तुलना में प्रकृति के अधिक अनुकूल थी। निश्चय ही सामन्ती समाज भी शोषण–उत्पीड़न पर आधारित था। पूँजीवाद की उत्पत्ति के साथ ही पृथ्वी के खनिज पदार्थांे (लगभग समूचे जल, जंगल, जमीन) का दोहन और बहुत तेज हो गया। इस दोहन का सबसे अधिक नुकसान उपनिवेश बना लिये गये देशों को उठाना पड़ा क्योंकि खनिज सम्पदा के सबसे बड़े स्रोत अधिकतर इन्हीं देशों में मौजूद हैं।
1850–1960 के बीच वातावरण में कार्बन की सान्द्रता लगभग 285 पार्ट पर मिलियन (पीपीएम) से 320 पीपीएम तक बढ़ गयी थी। बाद में यह बहुत तेजी से बढी और आज यह लगभग 418–425 पीपीएम पर पहुँच चुकी है। जबकि शुद्ध हवा में कार्बन की 50 पीपीएम से ज्यादा सान्द्रता जीवित प्राणी के लिए नुकसानदेह है।
कार्बन की सान्द्रता का बहुत तेज गति से बढ़ना जलवायु परिवर्तन के लिए गम्भीर संकेत है। जलवायु परिवर्तन पर पहला सम्मेलन लगभग 30 वर्ष पहले रियो–डी–जेनेरियों में आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मुद्दे पर गम्भीर चर्चा हुई थी, इसके बाद भी ग्रीन–हाउस गैसों का उर्त्सजन लगातार बढ़ रहा है। इससे यह साफ जाहिर होता है कि पूँजीवादी सरकारें जलवायु परिवर्तन के प्रति कितनी असंवेदनशील हैं।
2015 में पेरिस में आयोजित विश्व पृथ्वी सम्मेलन में औद्योगिक क्रान्ति के प्रारम्भिक दौर की तुलना में पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी को 1–5 डिग्री सेन्टीग्रेट रखने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। आज यह लक्ष्य बहुत पहले की पीछे छोड़ा जा चुका है। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेशन (यूएनएफसीसीसी) ने गम्भीर चेतावनी देते हुए एक रिपोर्ट जारी की है और कहा कि अगरवैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए चलायी जा रही राष्ट्रीय कमी की योजनाओं (एनडीसी) को सभी देश तुरन्त लागू कर भी लेते है तो भी 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 10–6 फीसदी की वृद्धि होना तय है। इसके बावजूद 200 देशों में से केवल 26 देशों ने ही राष्ट्रीय कमी योजनाओं (एनडीसी) की सहमति दी हैै। इन्हें लागू करना तो अभी तक उनके लिए ख्याली बातें हैं। आज जलवायु परिर्वतन इतनी खतरनाक स्थिति में पहुँच गया है कि अगर कार्बन उत्सर्जन में बहुत तेजी से 43 फीसदी की कमी कर दी जाये तो भी 1–5 डिग्री सेन्टीग्रेट के लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता। यूएनएफसीसीसी के अनुसार अगर वर्तमान योजनाएँ लागू हुई तो भी सन् 2100 तक ग्लोबल वार्मिंग 2–5 डिग्री सेन्टीग्रेट तक पहुँच जाऐगी।
आने वाली तबाही के सकेन्त स्पष्ट रूप में हर रोज हमारे सामने आ रहे है। 19 वीं शताब्दी के अन्त के बाद से पृथ्वी के तापमान में 1–15 डिग्री सेन्टीग्रेट की वृद्धि हो चुकी है। पृथ्वी के तापमान में इस वृद्धि के कारण हुई बेमौसम बरसात, रेगिस्तान में बाढ़, तूफान, गर्मी की लहरों ने लाखों लोगों को आजीविका समेत नष्ट कर दिया है। ग्लेश्यिरों और धु्रवों की बर्फ के पिघलने से समुद्री जल स्तर में भारी वृद्धि हो रही है, जिसके चलते तटीय देशों के निवासी उजड़ रहे हैं, जिनके सामने भविष्य की कोई उम्मीद नहीं है। लाखों लोगों सहित जलीय और स्थलीय जीव और वनस्पतियाँ तबाह हो रही हंै। इससे निश्चित तौर पर पारिस्थितिकी तन्त्र तबाह हो रहा है जो एक बहुत बड़ी तबाही को जन्म देगा।
दुनिया में जलवायु परिवर्तन से आयी तबाही
पिछले दिनों हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में आयी बाढ़ ने सैंकड़ों लोगों को मौत के मुँह में धकेल दिया और हजारों लोग गम्भीर रूप से घायल हुए और लगभग 3 करोड़ 30 लाख लोग विस्थापित हुए हैं। इस साल “क्लाईमेट पर आधारित बेसलाइन ट्रेण्ड्स” के मुताबिक भारत में चलने वाली गर्म हवाओं के औसत तापमान में 1–24 डिग्री सेन्टीग्रेट की वृद्धि हुई है। लगभग पूरे अफ्रीका महाद्वीप पर भी तरह–तरह की आपदाएँ आ रही हैं, जिन्हें अन्तरराष्ट्रीय मीडिया द्वारा पूरी तरह नजरअन्दाज किया जा रहा है। सूखे और बाढ़ से प्रभावित होने के कारण अफ्रीका का सींग (हार्न ऑफ अफ्रीका) कहे जाने वाले सभी देश बहुत लम्बे समय से भुखमरी और कुपोषण की चपेट में है। सहारा रेगिस्तान के ठीक नीचे का क्षेत्र जिसे साहेल कहते हैं उसका बहुत बड़ा हिस्सा इस समय बाढ़ में डूबा हुआ है। शेष हिस्से भी वर्षों के सूखे के बाद फिर बाढ़ की चपेट में आ गये थे। बाढ़ उपजाऊ मिट्टी को भी अपने साथ बहा ले गयी जिससे वहाँ खेती पर निर्भर आबादी की बची हुई उम्मीद भी बह गयी। इस पूरी प्रक्रिया से चाड, नाइजीरिया, दक्षिण सूडान और सूडान के लाखों लोग प्रभावित हैं। इथियोपिया, सोमालिया, केन्या और दक्षिणी मेडागास्कर के कुछ हिस्से वर्षों से सूखे की चपेट में हैं, जिससे लाखों लोग भुखमरी के शिकार हैं और मौत के बिल्कुल करीब हंै। इनके सामने भविष्य की कोई उम्मीद नहीं है।
यूरोप और अमरीका में भी पिछले कुछ वर्षों से जंगलों में भयावह आग, बाढ़ और तूफानों की संख्या में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। लेकिन समूची साम्राज्यवादी ताकतें अपने आन्तरिक अन्तर्विरोधों में ही उलझी रहीं और इन समस्याओं पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया। कोप–27 शिखर सम्मेलन आयोजित होने से पहले यूरोप और अमरीका में आयी इन भीषण आपदाओं सेे वहाँ के शासक बेपरवाह थे। कोप–27 में थोडी बहुत चिन्ता जाहिर करके ये सच्चे जनहितैशी होने का ढोंग करते रहे। दुनिया का मेहनतकश वर्ग लुटेरों के इतिहास से वाकिफ है। कोप–27 से पहले आयोजित हुई 26 वार्ताओं में हुए फैसलों की इन मुनाफाखोर साम्राज्यवादियों ने किस तरह धज्जियाँ उड़ायीं, यह बात भी तथ्य के साथ सामने आ चुकी है। इनसे किसी भी प्रकार के सुरक्षित भविष्य की उम्मीद रखना अब मूर्खता होगी।
साम्राज्यवादियांे के लिए जलवायु परिवर्तन के समाधान से महत्वपूर्ण अपना मुनाफा और दुनिया में अपना वर्चस्व बढ़ाना है। हकीकत यह है कि मौजूदा साम्राज्यवादी व्यवस्था अपने आन्तरिक सकंटों में इस कदर फँसी है कि समूची दुनिया का कत्लो–गारत करने के बाद कोई इस बात की गारन्टी करे कि आपका मुनाफा बहुत तेजी से बढ़ेगा और पूरी दुनिया पर हमेशा के लिए आपका कब्जा हो जाऐगा तो वह यह कदम उठाने में कोई संकोच नहीं करेगी। समूची दुनिया को तबाह करके यह अपने लिए सस्ती श्रम–शक्ति को तलाशने निकल पड़ेगी और फिर से निवेश के नये स्थानों को खोजने लगेगी। अगर भविष्य में कहीं दूसरे ग्रह पर कोई मानव समाज मिल गया तो वहाँ भी इन साम्राज्यवादी मुनाफाखोरों का पहला वाक्य यही होगा कि “हम आपका विकास करने आये हैं और अब हम यहाँ पर डॉलर निवेश करेगें” यह अतिश्योक्ति नहीं, बल्कि बर्बरता पर टिकी मौजूदा व्यवस्था का मुनाफाखोर चरित्र है।
जलवायु परिवर्तन के संकट का समाधान क्या है ?
शर्म अल–शेख में आयोजित शिखर सम्मेलन ने इस बात को साबित कर दिया है कि मौजूदा पूँजीवादी शासकों के पास जलवायु परिवर्तन संकट का कोई हल नहीं है। “फ्राइडे फॉर फ्यूचर” और दूसरे छिट–पुट पर्यावरणीय आन्दोलन समूची व्यवस्था का कोई विकल्प पेश नहीं करते, क्योंकि यह उनके बूते से बाहर की बात है। ये आन्दोलन अपनी किसी भी माँग को व्यवस्था परिवर्तन तक नहीं ले जा सके हैं, बल्कि सुधारों तक ही सीमित रह गये हैं, जिससे पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा पैदा होने के बजाय उल्टा पूँजीवादी व्यवस्था के मानवद्रोही चरित्र का ही बचाव हो जाता है। जलवायु संकट को केवल विश्व स्तर पर ही हल किया जा सकता है। ग्रीन–हाउस गैसें राष्ट्रीय सीमाओं को देखकर रुक नहीं जातीं, बल्कि समूची पृथ्वी को अपनी गिरफ्त में ले रही हैं और पृथ्वी के लिए दिनोंदिन खतरनाक साबित हो रही हैं। तकनीक और जीवन–शैली आज इतने उच्च स्तर पर पहुँच गयी है कि उर्जा आपूर्ति के बिना जन जीवन सम्भव नहीं है और ऊर्जा आपूर्ति के क्षेत्र बड़े पूँजीपतियों के मुनाफे की गिरफ्त में है। इनकी सभी नीतियाँ मुनाफा केन्द्रित हैं। इनके एजेण्डे में जलवायु परिवर्तन का मुद्दा बहुत आखिर में आता है। आज दुनिया की मेहनतकश जनता के सामने केवल आर्थिक लड़ाई का ही मुद्दा नहीं है, बल्कि पर्यावरण का मुद्दा भी उतना ही महत्वपूर्ण है। इस संकट का स्थायी समाधान अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिक चेतना हासिल करते हुए एक जुझारू संगठन कायम करके ही किया जा सकता है। एकता कायम करने के लिए आज वैज्ञानिक ज्ञान, तकनीकी साधन और भौतिक संसाधन मौजूद हैं और जूझारू मजदूर वर्ग अपने कठिन परिश्रम से लगातार दुनिया को आगे ले जा रहा है। लेकिन वैश्विक स्तर पर आज जीवन का हर पहलू एक छोटे से अल्पसंख्यक साम्राज्यवादी समूह के लाभ और समृद्धि की अधीनता को झेल रहा है। जो अपने वैश्विक प्रभुत्व के लिए दुनिया में तबाही और लूट मचा रहे हंै और साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के जरिये दुनिया में नव आर्थिक साम्राज्यवाद कायम किये हुए हंै।
ऑक्सफैम के एक नये अध्ययन के अनुसार, फ्रांस, मिस्र या अर्जेंटीना जैसे देशों की तुलना में दुनिया के मात्र 125 अरबपति ज्यादा कार्बन उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। इनमें से एक अरबपति एक वर्ष में 39 करोड़ 30 लाख टन कार्बन उत्सर्जन करता है, जो समाज के निचले 90 फीसदी हिस्से के किसी भी सदस्य से लाखों गुना अधिक है।
अपने धन और विशेषाधिकारों की रक्षा के लिए पूँजीपति वर्ग और उनकी सरकारें कुछ भी करने पर आमदा हैं। उन्होंने अतीत में आयी हर महामारी में मानव जीवन के प्रति अपनी उदासीनता को साबित किया है और उन्होंने मानव जीवन से पहले मुनाफे को रखा है। यही कारण है कि कुछ दिनों पहले ही दुनिया में लगभग 70 लाख लोग कोरोना वायरस से मर गये। महामारी अभी तक गयी नहीं है और उसको रोकने का स्थायी उपाय आज तक मौजूदा व्यवस्था के पास नहीं है। वे हमेशा वही क्रूरता दिखाते हैं जो उन्होंने पहले और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान कत्लोगारत करके दिखायी थी। यह बर्बरताओं का दौर है। नेचर जर्नल द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, महामारी और जलवायु परिवर्तन के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि जलवायु परिवर्तन जानवरों में पहले से मौजूद वायरस कोे मनुष्यों में फैलाने की सम्भावना को हर रोज बढ़ा रहा है, जैसा कि सार्स–कोव–2, एचआईवी एड्स और इबोला के मामले में हुआ था। जलवायु संकट के स्थायी समाधान के लिए मुनाफा केन्द्रित की जगह मानव केन्द्रित समाज व्यवस्था की आवश्यकता है।
मानव इतिहास हमेें यह सबक देता है कि जब भी लुटेरों ने दुनिया में बड़ी तबाही मचायी है तो मेहनतकश जनता ने उस पर पलटवार किया है। पहले और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान मेहनतकश जनता द्वारा अलग–अलग देशों में की गयी क्रान्तियाँ इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। उत्पादन प्रणाली और तकनीक का वर्तमान स्तर इतना उच्च है कि समूची मानव जाति के भौतिक और मानसिक विकास के लिए पर्याप्त जरूरतों का निर्माण करना सम्भव है, लेकिन यह वैज्ञानिक और तर्कसंगत ढंग से मानव केन्द्रित व्यवस्था के अधीन ही हो सकता है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज समाज की मुख्य उत्पादक शक्तियाँ ट्रस्टों, कम्पनियों यानी एकाधिकार पूँजीवाद के कब्जे में हैं और जब तक ये ताकतें इनके हाथों में रहेंगी, तब तक बाजारों, कच्चे माल के स्रोतों और दुनिया पर प्रभुत्व के लिए मुनाफाखोरों के बीच संघर्ष बहुत तेज और विनाशकारी होता जायेगा। इन लालची साम्राज्यवादी गुटों के हाथों से इस एकाधिकार को केवल मजदूर वर्ग ही छीन सकता है। मजदूर वर्ग की चेतनाशील एकता के बिना जलवायु संकट, सामाजिक तबाही और अमानवीयता के खिलाफ एक मजबूत अन्तरराष्ट्रीय आन्दोलन खड़ा नहीं किया जा सकता। मजदूर वर्ग के एक जुझारू आन्दोलन की ताकत से ही इस अमानवीय बूढ़े पतनशील पूँजीवाद को उखाड़ फेंकना सम्भव है। इसके बाद ही जलवायु परिवर्तन के संकट पर काबू पाया जा सकता है और केवल तभी एक मानव केन्द्रित, प्रकृति हितैषी, स्वतन्त्रता, समानता और भाईचारे पर आधारित व्यवस्था का निमार्ण हो सकता है। यह जिम्मेदारी आज जनपक्षधर बुद्धिजीवियों के कन्धे पर है कि वे दुनिया के मजदूर वर्ग को प्रकृति और मानवता की रक्षा के ऐतिहासिक कार्यभार का एहसास करवायें और संगठित होने में सहयोग दें, उन्हें यह कार्य प्राथमिकता के आधार पर पूर्ण करने में पूरी ताकत के साथ जुट जाना होगा। तभी समूची मानवता की मुक्ति सम्भव है। तभी सच्चे अर्थों में स्वतंत्र इनसान के इतिहास की शुरुआत होगी।
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