फिलहाल इस बात पर कोई विवाद नहीं कि भारतीय पूँजीवादी अर्थव्यवस्था गम्भीर संकट में है जिसके चलते आम मेहनतकश जनता का जीवन अत्यन्त कष्टपूर्ण होता जा रहा है। इस बजट से पहले बहस सिर्फ इस मुद्दे पर ही थी कि क्या सरकार सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च कम कर वित्तीय घाटा नियंत्रित करने की नवउदारवादी नीतियों को जारी रखेगी या अर्थव्यवस्था को किकस्टार्ट करने के लिए सरकारी खर्च बढ़ाने की कींसवादी नीति अपनायेगी। बहुत से आर्थिक विशेषज्ञ यह उम्मीद कर रहे थे कि सरकार आम मेहनतकश लोगों व मध्यम वर्ग के हाथ में कुछ पैसा पहुँचाने का प्रयास करेगी ताकि बाजार में उपभोक्ता माँग का विस्तार हो जिससे उत्पादन के क्षेत्र में पूँजी निवेश फिर से शुरू हो सके। इसके लिए मनरेगा के लिए बजट बढ़ाने, शहरों में रोजगार गारण्टी योजना शुरू करने, मध्यम वर्ग के लिए आयकर में छूट बढ़ाने आदि की चर्चा चल रही थी।  
किन्तु जब 31 जनवरी को सालाना बजट पूर्व आर्थिक सर्वेक्षण संसद में प्रस्तुत किया गया तभी यह बात स्पष्ट हो गयी थी कि सरकार की वित्तीय स्थिति अच्छी नहीं है और वह विनिवेश, निजीकरण, व्यवसायीकरण को तेज करने व शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि सामाजिक सेवाओं पर खर्च घटाने की नवउदारवादी नीतियों को जारी रखेगी। आर्थिक सर्वे में सार्वजनिक उद्यमों का निजीकरण तेज करने, खाद्य सबसिडी घटाने, शिक्षा का व्यवसायीकरण जारी रखने, बाजार के अदृश्य हाथ पर भरोसा करने और सरकारी हस्तक्षेप को कम करने पर जोर दिया गया था। 
वित्त मंत्री ने जब बजट पेश किया तो वे आर्थिक सर्वे में कही गयी बातों पर ही आगे बढ़ती नजर आयीं। पर बजट का आय–व्यय खाते का हिसाब देखें तो यह बजट नवउदारवाद और कींसवाद दोनों की सबसे बदतर बातों का घटिया मिक्स्चर है, यानी सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च में तो भारी कटौती करने के बावजूद सरकार का बजट घाटा भी नियंत्रित होने के बजाय बहुत ज्यादा बढ़ गया। भारत जैसे देश में जो 117 देशों के भूख सूचकांक में 102 वें स्थान पर है वहाँ बजट में खाद्य सबसिडी का बजट 70 हजार करोड़ रुपये घटा दिया गया है–– 1.85 लाख करोड़ रुपये से 1.15 लाख करोड़ रुपये। वैसे तो इस राशि को भी वास्तव में खर्च किये जाने पर शक है क्योंकि इस साल में भी बजट अनुमान 1.85 लाख करोड़ रुपये के बजाय संशोधित अनुमान के अनुसार वास्तविक खर्च 1.08 लाख करोड़ रुपये ही किया जा रहा है। इसका अर्थ है कि पहले ही लगभग दो लाख करोड़ रुपये के कर्ज में डूब चुकी फूड कार्पाेरेशन पूरी तरह दिवालिया होने के कगार पर है और खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के अन्तर्गत आने वाली सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) का भविष्य समाप्ति की ओर है। देश की सबसे गरीब जनता के लिए यह खबर मौत की घण्टी के बराबर है क्योंकि पहले ही झारखण्ड जैसे राज्यों से राशन न मिलने से मौतों की खबरें आती रही हैं। इसके अतिरिक्त शहरी रोजगार गारण्टी शुरू करना तो दूर रहा, बजट में ग्रामीण क्षेत्र के मजदूरों के लिए मनरेगा योजना पर आवंटन में भी 9 हजार करोड़ की कटौती कर दी है। 
सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर दूसरा बड़ा हमला स्वास्थ्य सेवाओं पर है जहाँ एक ओर, महँगाई दर की तुलना में देखें, तो खर्च का बजट प्रावधान घट गया है, वहीं दूसरी ओर, देश में डॉक्टरों की कमी दूर करने के नाम पर जिला अस्पतालों को निजी क्षेत्र को सौंपने का षडयंत्र किया गया है। बजट घोषणा के अनुसार पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल में जिला अस्पतालों के साथ मेडिकल कॉलेज खोले जायेंगे। मेडिकल कॉलेज के लिए शुरुआती पूँजी भी निजी क्षेत्र को सरकार ही देगी जिसका पैसा मेडिकल उपकरणों पर सेस लगाकर जुटाया जायेगा, यह सेस बजट में लगा भी दिया गया है यानी बहुत से मेडिकल उपकरण और भी महँगे हो जायेंगे जिसका खामियाजा अन्त में मरीजों को ही भुगतना होगा। इस योजना का अर्थ है कि जिला अस्पतालों का पहले से मौजूद पूरा बहुमूल्य ढाँचा निजी क्षेत्र के हाथ में होगा जिन्हें पूँजी भी खुद नहीं जुटानी होगी। इसका प्रयोग कर वे महँगी फीस वाले निजी मेडिकल कॉलेज खोलकर खूब मुनाफा कमायेंगे, साथ ही कुछ सालों में जिला अस्पतालों के मालिक भी हो जायेंगे और देश की गरीब मेहनतकश जनता के लिए सस्ते अस्पताली इलाज का अन्तिम सहारा भी छिन जायेगा। इसको एक काल्पनिक स्थिति न समझें क्योंकि मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री रहते भुज में भूकम्प पीड़ितों के लिए सार्वजनिक धन से खोला गया अस्पताल इसी तरह पीपीपी मॉडल के जरिये अदानी की कम्पनी को सौंपा जा चुका है। असल में अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में इस पीपीपी मॉडल का अर्थ ही हो गया है पब्लिक सम्पत्ति की प्राइवेट लूट।
किसानों की आय दुगुनी करने और ग्रामीण मूलभूत ढाँचे के नाम पर असल में कृषि आधारित उद्योगों को बड़ी सुविधाएँ और रियायतें देने की घोषणा की गयी है। किसान रेल, कृषि उड़ान, रेफ्रीजरेटेड ट्रक, वेयरहाउस, आदि के लिए खर्च कृषि उद्यमी और व्यापारी बन चुके अमीर पूँजीवादी फार्मरों और कृषि आधारित उद्योग चलाने वाले पूँजीपतियों के लाभ के लिए है। किसानों के 86 प्रतिशत से अधिक भाग जिसके पास एक हेक्टेयर से भी कम जमीन है उसे इससे क्या फायदा है? उनके लिए तो न्यूनतम समर्थन मूल्य देने के वादे से भी सरकार पीछे हट गयी है। जो 1500 करोड़ का खर्च उस मद में पिछले साल घोषित हुआ था उसमें से लगभग नहीं के बराबर खर्च किया गया है। इन गरीब, सीमान्त किसानों को तो अपनी उपज उन अमीर फार्मरों को ही कौड़ियों के दाम बेचनी पड़ेगी जो इन किसान रेल, उड़ान, ट्रक, वेयरहाउस के जरिये व्यापार करके कृषि उत्पाद को शहरी उपभोक्ताओं को कई गुना महँगे दामों पर बेचकर तगड़ा मुनाफा कमायेंगे। ग्रामीण क्षेत्र में पूँजीपति फार्मरों का यह वर्ग भूमिहीन खेत मजदूरों और गरीब सीमान्त किसानों का बड़ा शोषक है। कम मजदूरी पर श्रम कराकर यह खेत मजदूरों का तो शोषण करता ही है, फसल के वक्त गरजबेचा छोटे किसानों की उपज को यही सस्ते दामों पर खरीदकर फिर सरकारी एजेंसियों या बड़े पूँजीपतियों को ऊँचे दामों पर बेचकर मुनाफा कमाता है। उपरोक्त इनफ्रास्ट्रक्चर से जिस बाजार में पहुँच के जरिये किसानों की आय बढ़ाने की बात की गयी है वह सिर्फ इन्हीं कृषि उपज व्यापारियांे के मुनाफे को बढ़ाने के लिए।
पूँजीपतियों के उद्योगों के लिए आवश्यक नकदी फसलों के उत्पादन में लग जाने के बाद से सीमान्त किसान वर्ग अब खाद्य उत्पादों का भी विक्रेता कम, ग्राहक अधिक होता जा रहा है। गाँव के भूमिहीन मजदूर तो खाद्य पदार्थों के ग्राहक हैं ही। ग्रामीण बाजार के राष्ट्रीय बाजार में विलय की पहले से जारी प्रक्रिया इसके बाद पूरी हो जायेगी और इसके बाद गाँवों के खरीदार गरीब किसानों/मजदूरों को भी खाद्य पदार्थ तुलनात्मक रूप से सस्ते ग्रामीण बाजार दामों के बजाय लगभग शहरी बाजार मूल्यों पर ही खरीदने होंगे। यह ग्रामीण भूमिहीनों और सीमान्त किसानों के जीवन को तकलीफ के नये स्तर तक ले जायेगा।
 इसके राजनीतिक पक्ष को देखें तो गाँवों से जिला स्तर तक की राजनीति में तो प्रधान तौर पर एवं राज्य–देश स्तर तक की राजनीति में भी यह वर्ग अभी फासीवाद के लिए लठैत/गोलीबाज उपलब्ध कराने वाला मुख्य आधार है–– इन भूपतियों में पुराने ब्राह्मण/क्षत्रिय जातियों के ही नहीं तमाम पिछड़ी कही जाने वाली जातियों के भूपति भी शामिल हैं। अत: कुल पूँजीवादी मुनाफे में कुछ बेहतर हिस्सा इस वर्ग की मुख्य माँग रही है जो लाभकारी कृषि की शब्दावली में प्रस्तुत की जाती है ताकि सीमान्त किसानों को भी “लाभ” के इस मायावी सपने में फँसाकर इन अमीर फार्मरों के पीछे ही गोलबन्द करने में सफल हो सके, हालाँकि उन किसानों के हित इन “किसानों” के ठीक विपरीत हैं।
इस बजट में शिक्षा वंचितों और निम्न मध्यम वर्ग की पहुँच से बाहर करने की प्रक्रिया को भी और तेज किया गया है। खुद बजट पूर्व सरकारी आर्थिक सर्वेक्षण ने यह बात मानी थी कि निजीकरण व्यवसायीकरण से शिक्षा महँगी होकर समाज के वंचित समुदायों की पहुँच से बाहर हो रही है, खास तौर पर उच्च शिक्षा। लेकिन किया क्या जाये? सर्वे ने कहा–– निजीकरण जारी रखो!
बजट में भी कहा गया कि विदेशी कर्ज और पूँजी निवेश से शिक्षा संस्थान उन्नत किये जायेंगे। नतीजा सरकार को अच्छी तरह मालूम है कि शिक्षा महँगी होकर आम मेहनतकश जनता, खास तौर पर वंचित समुदायों की पहुँच से बाहर हो जायेगी। फिर ये लोग क्या करें? इनके लिए बताया गया कि 100 बड़े संस्थान ऑनलाइन कोर्स शुरू करेंगे, वंचित और गरीब लोग उससे पढ़ लें, उन्हें कॉलेज जाकर क्या करना है, वे मजदूर हैं, उन्हें मजदूर ही रहना है! असल में यह अधिसंख्य मेहनतकश जनता को शिक्षा से वंचित करने की शासक पूँजीपति वर्ग की सोची समझी सर्वसम्मत नीति है और कोई चुनावी पार्टी इस पर मुँह नहीं खोलती कि सबके लिए उत्तम, समान और सुलभ सार्वजनिक शिक्षा का वादा कहाँ गया।
शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, महिला–बाल कल्याण, दलित–आदिवासी कार्यक्रमों सभी के विस्तार में जायें तो व्यय में कटौती या चोर दरवाजे से पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाने की ऐसी ही स्थिति है, लेकिन सरकार का वित्तीय घाटा फिर भी अनियंत्रित ढंग से बढ़ा है। खुद सरकार मान रही है कि इस वर्ष के लक्ष्य 3.3 प्रतिशत के मुकाबले यह 3.8 प्रतिशत पर पहुँच गया है। किन्तु अगर सरकार द्वारा बजट से बाहर एफसीआई, आदि सार्वजनिक कम्पनियों के नाम पर लिए गये कर्ज को भी जोड़ा जाये तो अधिकांश विश्लेषकों के अनुसार यह 8 से 10 प्रतिशत के आसपास पहुँच गया है। इसका सबसे बड़ा कारण है अर्थव्यवस्था में मन्दी, सरकार द्वारा पूँजीपति वर्ग को दी गयी बहुतेरी रियायतों एवं उनके द्वारा की गयी भारी टैक्स चोरी के कारण टैक्स वसूली में भारी कमी। इस घाटे को पूरा करने के लिए सरकार को तमाम तरह के उपाय करने पड़ रहे हैं जैसे रिजर्व बैंक के रिजर्व कोष को खाली करना, सार्वजनिक उद्यमों एवं सम्पत्तियों को बेचना, आदि। इसी क्रम में अब सार्वजनिक क्षेत्र की महाकाय वित्तीय कम्पनी एलआईसी में सरकारी शेयर बेचने का प्रस्ताव किया गया है। किन्तु सवाल है कि सम्पत्ति बेचने की एक सीमा है, उसके बाद क्या? अभी तो यही कहा जा सकता है कि अन्त में इन पूँजी परस्त नीतियों से हुए सरकारी घाटे का सारा बोझ विभिन्न तरह से आम मेहनतकश जनता के सिर पर ही लादा जाना है। स्पष्ट है कि यही नीतियाँ जारी रहीं तो देश की आम जनता को ‘अच्छे दिनों’ के नाम पर अभी बहुत अधिक तकलीफदेह दिन देखने बाकी हैं।