आज दुनिया कई तरह के संकटों का सामना कर रही है। इनमें सबसे प्रमुख है पर्यावरण की आसन्न तबाही, जिसे तेजी से बढ़ता धरती का तापमान और समुद्र का जल स्तर, बड़े पैमाने पर प्रजातियों का विलोप और ह्रास, जहरीली हवा, समुद्र सहित हर जगह का दूषित और प्रदूषित पानी, मिट्टी के लचीलेपन का नाश और दिनोंदिन बंजर होती जमीन। हम तेजी के साथ उस मुकाम की ओर बढ़ रहे हैं, जहाँ मानव समाज को हमने जिस रूप में जाना–समझा है, वैसा बने रहना असम्भव हो जायेगा। साथ ही, हम हर तरह कि असमानता अभूतपूर्व बढ़ोतरी के प्रत्यक्षदर्शी हैं–– आमदनी, सम्पत्ति, स्वास्थ्य, जीवन प्रत्याशा, स्कूल से लेकर पीने का पानी तक हर चीज तक पहुँच, उत्तरी और दक्षिणी दोनों गोलार्धों में नवफासीवादी आन्दोलनों का फैलावय मुट्ठीभर वैश्विक निगमों द्वारा सत्ता पर बेइन्तहा कब्जाय और लगता है जैसे युद्धों का कोई अन्त ही नहीं। हर जगह नाना प्रकार के अलगावों की स्पष्ट अनुभूति—हम एक दूसरे से अलग–थलग और आपसी प्रतियोगिता में लिप्त हैंय हम अपनी मेहनत से जो सामान और सेवाएँ पैदा करते हैं उनसे वंचित हैंय प्रकृति के साथ हमारा सम्बन्ध पूरी तरह विच्छिन्न कर दिया गया हैय और यहाँ तक कि हम खुद अपने भीतर भी विभाजित हैं, अन्दर ही अन्दर चिन्ता और बेचैनी से ग्रस्त, जबकि बाहर से चेहरे पर खुशी ओढ़े रहते हैं।

हालाँकि इन तमाम विपदाओं के कई सारे सम्भावित कारण हो सकते हैं, लेकिन इनकी जड़ है हमारी व्यवस्था, उत्पादन और वितरण की हमारी व्यवस्था का चरित्र। पूँजीवाद एक ऐसी उत्पादन प्रणाली है जिसका मर्मस्थल पूँजी का बेपनाह संचय है, जितना सम्भव हो, उतना मुनाफा बटोरना और उसका इस्तेमाल शुरुआती पूँजी को फैलाने की, बढ़ाने की मुहीम। यह संचय उजरती श्रम के शोषण तथा मानव शरीर और प्रकृति दोनों की बेदखली के जरिये ही सम्भव होता है। जिस तौर–तरीके से शोषण और बेदखली की जाती है तथा जिस संस्थागत ढाँचे के तहत यह सारा उपक्रम लगातार पुनरुत्पादित होता रहता है वह बहुत ही जटिल है और स्थानाभाव के कारण यहाँ उनकी पूरी तरह व्याख्या कर पाना सम्भव नहीं है। हालाँकि इतना कहना ही काफी होगा कि ये पूरी इमारत जमीन, प्राकृतिक संसाधन, भवन, मशीन और उपकरणों के मालिकाने के ऊपर इजारेदारी पर टिकी हुई है। ये ऐसी चीजें हैं जिन तक पहुँच होना दुनियाभर के कुछ गिने–चुने लोगों के लिए अपना अस्तित्व बनाये रखने की अनिवार्य शर्त है।     

आज सबसे धनी एक प्रतिशत लोग बाकी के 99 प्रतिशत लोगों की कुल सम्पत्ति से भी ज्यादा के मालिक हैं। यह धनवानों को हर व्यक्ति और हर चीज के ऊपर जबरदस्त फायदा पहुँचाता है, काम पर, राजनीतिक दायरे में, यहाँ तक कि धरती माता की बेदखली के मामले में भी। वे हमारी जिन्दगी के हर पहलू पर अपना कब्जा जमाते हैं और वे सिर्फ पैसे की अन्तहीन भूख के चलते प्रकृति का विनाश करते हैं। जैसा कि मार्क्स ने कहा था, “संचय करो! संचय करो! यही मूसा और पैगम्बर हैं!” 

पूँजी संचय के अभियान के दुष्परिणामों को ऊपर के पंक्तियों में रेखांकित किया गया है। निस्सन्देह ये सब दुष्परिणाम आनेवाले सालों में जैसे–जैसे चोटी की ओर दौलात जमा होती जायेगी, वैसे–वैसे और अधिक घनीभूत होंगे, जबकि जो निचली पायदान पर हैं उनको दु:ख–तकलीफ के सिवा कुछ भी हासिल नहीं होगा, धरती और ज्यादा गरम होगी और मानव जीवन दिनोंदिन और ज्यादा डाँवाडोल होता जायेगा। इसका मतलब यह कि अगर सर्वव्यापी आमूल बदलाव नहीं होता। इसके दो निहितार्थ हैं–– पहला, हमें जड़ से फुनगी तक पूँजीवाद के हर पहलू का उन्मूलन करना होगा। कम से कम इन चीजों का तो अन्त करना ही पड़ेगा—

– जमीन सहित उत्पादन के सभी साधनों के निजी स्वामित्व का खात्मा।

– मुनाफा के लिए उत्पादन का खात्मा।

– अन्तहीन आर्थिक विकास की सनक का खात्मा।

– उजरती श्रम के शोषण का खात्मा।

– किसानों की जमीन की, शहरी और ग्रामीण सार्वजानिक स्थानों की, श्रम और महिलाओं के शरीर की, काले लोगों के शरीर की बेदखली का तथा पितृसत्ता और नस्लवाद के सभी रूपों का खात्मा।

– प्राकृतिक जगत की निजी लूट का खात्मा।

– साम्राज्यवाद का खात्मा। पूँजीवाद का इरादा हमेशा ही धनी देशों द्वारा दुनिया के तमाम गरीब देशों को अपने मातहत बनाये रखना रहा है।

– परिवार से लेकर राज्य तक तथा शिक्षा और मीडिया से लेकर न्याय प्रणाली तक, उन सभी पूँजीवाद परास्त संस्थाओं और ताम–झाम का खात्मा, जो समाज का पुनरुत्पादन करते हैं। 

नरम शब्दों में गिनाये गये ये कार्यभार कठिन हैं। इनके लिए उजरती मजदूरों और किसानों की अभूतपूर्व विश्वव्यापी एकजुटता की जरूरत होगी। नयी मजदूर यूनियनों को खड़ा करना होगा और पुरानी यूनियनों में आमूलचूल रूपान्तर करना होगाय नयी जुझारू और सिद्धान्तनिष्ठ राजनीतिक विन्यासों का गठन करना जरूरी होगाय बुनियादी, आलोचनात्मक शिक्षा को सभी संघर्षों और संगठनों के केन्द्र में लाना जरूरी होगाय मजदूर वर्ग की अधिकतम सुरक्षा की गारन्टी करनेवाली माँगों को पूरा कराने के लिए सरकार से सीधे टकराने की मुहीम लाजिमी होगीय तथा सीधी कार्रवाई, सामूहिक स्वयं–सहायता के रूपों को विकसित करना होगा, जिनका लक्ष्य बुनियादी जरूरतें मुहैया कराना और अपने ढाँचे के भीतर पूँजीवाद का विकल्प तैयार करना होगा।

दूसरा, हमें यह तय करना होगा कि हमारा लक्ष्य किस तरह के समाज का निर्माण करना है? यदि मानवता को टिकाऊ धरती के सदृश्य किसी चीज पर अपने आपको कायम रखना है, तो पारिस्थितिकी–समाजवाद का कोई न कि कोई रूप अपरिहार्य होगा। हालाँकि मैं या कोई और व्यक्ति किसी ऐसी उत्पादन प्रणाली का कोई विस्तृत खाका तैयार नहीं कर सकता और न ही करना चाहिए, लेकिन यह सम्भव है कि अपने लक्ष्य को सामान्य रूप से वर्णन करें। यहाँ उनमें से कुछ लक्ष्यों को माँग की शक्ल में दिया जा रहा है––

1–  एक टिकाऊ पर्यावरण। हम जो कुछ प्रकृति से हड़पते हैं उसको लौटाना जरूरी है। हम मानव अस्तित्व को खतरा पैदा करने वाले कई पर्यावरणीय आपदाओं की ओर बढ़ रहे हैं। अगर ऐसा नहीं किया जाता, तो मजदूर वर्ग के लिए कोई दुनिया नहीं होगी, किसे वह बदले। सभी आर्थिक फैसले टिकाऊ पर्यावरण को एक केन्द्रीय निर्धारक कारक मानकर ही लिया जाना चाहिए।

2– एक नियोजित अर्थव्यवस्था। बाजार की अराजकता को हटाकर उसकी जगह उत्पादन की सचेत योजना को स्थापित किया जाना चाहिए। बाजार पर निर्भरता के प्रत्यक्ष परिणाम हैं मियादी आर्थिक संकट और असंगत असमानता। ये न तो उचित हैं और न ही जरूरी। जब कॉरपोरेट अपनी योजना बनाते हैं, पूरा समाज मिलकर अपनी योजना क्यों नहीं बना सकता है?

3–  जितना ज्यादा हो सके, उपभोग को सामाजिक दायित्व बनाना, खास कर परिवहन और बच्चों की देखरेख। जीवन की जरूरतें भी कहीं अधिक सामूहिक होनी चाहिए। इससे न सिर्फ संसाधनों की बचत होगी, बल्कि यह हमारे अन्दर अपनापन और खुशी की भावना भर के हमारा सामाजीकरण करेगा। हम सामाजिक प्राणी हैं, इसका मतलब यह नहीं कि हम गैर जरूरी निजी मालिकाने वाले उपभोक्ता मालों से घिरे अलग–थलग जिन्दगी जियें।

4– कार्यस्थल का जनवादी मजदूर–समुदायों द्वारा संचालन, जिसमें जहाँ तक सम्भव हो सके, व्यापक श्रम–विभाजन का खत्म हो और मशीनों का निर्माण और चलन सामाजिक उपयोगिता को निर्देशक सिद्धान्त मानते हुए किया जाये। उजरती श्रम का खात्मा।

5– स्कूलों से लेकर मीडिया तक, समाज के पुनरूत्पादन में सहायक सभी सामाजिक संस्थाओं का सार्वजनिक मालिकाना। माल और सेवाओं के उत्पादन के मामले में भी जहाँ तक सम्भव हो, ऐसा ही किया जाना चाहिए। कई मामलों में उत्पादन और वितरण से सम्बन्धित फैसले लेने की जिम्मेदारी मजदूरों और समुदायों द्वारा संचालित सहकारिताओं को सम्भालनी चाहिए। परिवहन खर्च और स्वस्थ पर्यावरण दोनों के लिहाज से भोजन कि स्थानीय स्तर पर आपूर्ति खास तौर से महत्त्वपूर्ण है। अगर खाद्य सामग्री का पैदावर वहीं हो जहाँ उसका उपभोग होता है, मिट्टी के पोषण मूल रूप से लौटना कहीं ज्यादा आसन होगा। 

6– जिन्दगी के सभी क्षेत्रों में एक रेडिकल समतामूलक समाज। आदमी और औरत के बीच, सभी नृजातीय और नस्ली समूहों के बीच, लैंगिक पहचान और यौनिक पसन्द–नापसन्द से ऊपर उठकर सभी लोगों के बीच, रोजगार, क्षेत्र और सभी सामाजिक सेवाओं और सुविधाओं पर पहुँच के मामले में सभी देशों के बीच और सभी देशों के भीतर समानता।

जिस चीज के खिलाफ हमें लड़ाई लड़ना जरूरी है, वह है व्यक्तिवाद और अहंकार जो मुट्ठी भर लोगों द्वारा बहुत सारे लोगों पर वर्चस्व कायम करने की छूट देता है। ऐसा कोई समाज मुक्तिकारी नहीं हो सकताय यह उन नाना प्रकार के अलगावों को समाप्त नहीं कर सकता जिन्हें हम महसूस करते हैं। हम जबरदस्त क्षमता से लैस, चिन्तनशील और सोद्देश्य प्राणी हैं। एक अच्छे समाज को यह सुनिश्चित करना होगा कि इनका विकास सबकी भलाई के लिए हो। अगर हम अपने सभी संघर्षों के दौरान इन सरल विचारों को अपने दिमाग में रखें, तो लाजिमी है कि हम अपने सर्वाेत्तम अन्त:प्रेरणा और आकांक्षा के अनुरूप एक नयी दुनिया के निर्माण की शुरुआत करेंगे। इस राह में बहुत सी गलतियाँ होंगी और उससे सबक सीखने को मिलेंगे। फिर भी, अगर मानव जाति ने इस धरती पर अपने जीवन के अधिकांश समय के दौरान सामूहिकता और साझेदारी की शैली में गुजर–बसर किया तो कोई कारण नहीं कि हम सचेतन तौर पर अपने पूर्ववर्ती जीवन शैली की समाप्ति के बाद से जो कुछ हमने सीखा है, उनको ग्रहण न करें और कोई ऐसी चीज कि रचना न कर पायें जो उसके आधुनिक और बेहतर संस्करण का निर्माण करे।

(माइकल डी येट्स मंथली रिव्यू प्रेस के सम्पादकीय निदेशक हैं। काफी समय तक वे कॉलेज प्रोफेसर और मजदूर शिक्षक रहे हैं। उनकी ताजा पुस्तक–– “कैन द वर्किंग क्लास चेंज द वर्ल्ड?” का हिन्दी अनुवाद हाल ही में गार्गी प्रकाशन द्वारा प्रकशित हुआ है।)