पिछले 5 अगस्त को बांग्लादेश में उग्र छात्र आन्दोलन और जनउभार के परिणामस्वरुप 15 साल से वहाँ की सत्ता पर काबिज प्रधानमंत्री शेख हसीना को अपने पड़ से इस्तीफा देकर सेना के हेलीकाप्टर से भारत भागना पड़ा। दक्षिण एशिया की वे दूसरी नेता हैं जिन्हें जनान्दोलन के दबाव में देश छोड़कर भागना पड़ा। इससे पहले श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को आर्थिक तबाही के खिलाफ जनान्दोलन के बाद जुलाई 2022 में देश छोड़कर भागना पड़ा था।

जुलाई के मध्य में शुरू हुए छात्र आन्दोलन का पहला चरण 30 प्रतिशत आरक्षण के खिलाफ शुरू हुआ था जो बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष में शामिल लोगों के वारिसों के लिए सरकारी सेवाओं में दिया जाता था। बाद में उस आन्दोलन में बेरोजगारी, महँगाई और पेपर लीक जैसे मुद्दे भी जुड़ते गये। 14 जुलाई को शेख हसीना ने इस आन्दोलन के खिलाफ बयान दिया कि मुक्तियोद्धाओं के परिवारों को आरक्षण नहीं देंगे तो क्या रजाकारों (मुक्ति युद्ध के विरोधियों) को देंगे। इस बयान ने आग में घी का काम किया।

 शेख हसीना सरकार ने आन्दोलन का बर्बर दमन किया जिसमें 200 ज्यादा आन्दोलाकारी छात्रों की मौत हुई। लेकिन दमन के साथ प्रतिरोध उग्र से अधिक उग्र होता गया। आगे चलकर सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में आरक्षण कोटा घटाकर 30 प्रतिशत से 5 प्रतिशत कर दिया। छात्रों ने इस फैसले को अपनी जीत मानते हुए भी आन्दोलन जारी रखा।

4 अगस्त को छात्र आन्दोलन की केन्द्रीय कमिटी ने एक नये चरण के आन्दोलन का आह्वान किया जिसमें उनकी माँग थी कि शेख हसीना 200 से अधिक आन्दोलनकारी छात्रों की हत्या की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे। बांग्लादेश की दो विपक्षी पार्टियों–– बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ओर जमाते–इस्लामी ने इस माँग और आन्दोलन का समर्थन किया। दूसरी ओर शेख हसीना ने आन्दोलन का विरोध करने के लिए अपनी पार्टी आवामी लीग के कार्यकर्ताओं का आह्वान किया। सरकार ने संचार माध्यमों को ठप्प कर दिया और कर्फ्यू लगा दिया।

सेना ने कह दिया कि हम संवैधानिक जिम्मेदारियों का पालन करेंगे, लेकिन आन्दोलनकारियों पर बल प्रयोग नहीं करेंगे। सेना के प्रमुख वाकर–उज–जमा ने अपने शीर्ष सैन्य अधिकारियों के साथ बैठक करके 4 अगस्त की रात शेख हसीना को बता दिया कि हमारे सैनिक सरकार द्वारा लगायी गयी कर्फ्यू को ही लागू करने की स्थिति में नहीं हैं और अगले ही दिन अपने अधिकारियों के साथ राय–मशविरे के बाद शेख हसीना ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।

शेख हसीना के पतन के पीछे वहाँ का जुझारू छात्र आन्दोलन एक तात्कालिक कारण रहा है। यहाँ तक कि आवामी लीग से जुड़े लोगों का अर्थतंत्र और ऊपर से नीचे तक तमाम स्रोत–साधनों पर कब्जा, शासन–प्रशासन और सरकारी नौकरियों में उनका वर्चस्व, विरोधी पार्टियों का दमन इत्यादि भी इस राजनीतिक संकट के मूल कारण नहीं थे। सरकार के दमनात्मक रवैये ने इस जनाक्रोश को तीव्र करने और भड़काने में जहर का काम किया।

दरअसल, इस राजनीतिक संकट की जड़ें कहीं ज्यादा गहरी हैं। उपरोक्त सभी कारक नवउदारवादी नीतियों की असफलता से उत्प्रेरित हुए थे जैसे–– आरक्षण के खिलाफ छात्र आन्दोलन शुरू होने के पीछे वहाँ बढ़ती बेरोजगारी से त्रस्त बेरोजगारों का आक्रोश था। जबकि बेरोजगारी बढ़ने का कारण नवउदारवादी नीतियों से उत्पन्न आर्थिक संकट था। कुछ साल पहले तक इन्हीं नीतियों की सफलता का डंका पीटा जाता था कि वहाँ विकास दर 7.2 प्रतिशत तक पहुँच गयी थी, लेकिन यह विकास निर्यात केन्द्रित, एकांगी, रोजगारविहीन और आय में असमानता को बढ़ने वाला विकास था। यह घरेलू बाजार को बढ़ाने और लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने वाला आर्थिक मॉडल नहीं था, बल्कि सिर्फ एक ही तरह की आर्थिक गतिविधि विदेशी माँग की पूर्ति के लिए चलने वाला गारमेंट फैक्ट्री के ऊपर निर्भर था। बांग्लादेश के कुल निर्यात में गारमेंट फैक्ट्री के मालों की हिस्सेदारी 80 प्रतिशत थी।

इस निर्यात केन्द्रित आर्थिक मॉडल का उद्देश्य बांग्लादेश का समग्र विकास करना नहीं, बल्कि ब्राण्डेड कपड़े बेचने वाली गिनी–चुनी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए बेहद सस्ते श्रम से निर्मित मालों का निर्यात करके डॉलर कमाना था जो साम्राज्यवादी वित्तीय सस्थानों की पूँजी के ऊपर पर निर्भर था। पोशाक तैयार करने वाले मजदूरों की दुर्दशा का सबसे ज्यादा दिल दहला देने वाला उदहारण 2013 में ढाका के राना प्लाजा बिल्डिंग का ढह जाना था। उस जर्जर बिल्डिंग में गारमेंट फैक्ट्री के हजारों मजदूर काम करते थे और वहीं रहते थे। उस दुर्घटना में 1100 मजदूरों की जान चली गयी थी।

विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी साम्राज्यवादी वित्तीय संस्थाएँ बांग्लादेश में नवउदारवादी नीतियों की सफलता की सुनहरी तस्वीर पेश करती थीं। यह अनुमान लगाया गया कि जिस रफ्तार से यह गारमेंट निर्यात बढ़ रहा है उसे देखते हुए बांग्लादेश दुनिया के 10 प्रतिशत गारमेंट की माँग पूरी करने लायक हो जायेगा। विश्व बैंक की रिपोर्ट में यह दिखाया गया कि बांग्लादेश में लाखों लोग गरीबी रेखा से ऊपर उठ गये हैं। अप्रैल 2024 की रिपोर्ट में भी बांग्लादेश की विकासदर 5–6 प्रतिशत होने का अनुमान लगाया गया था। लेकिन यह विकास मॉडल कितना क्षणभंगुर था उसकी तस्वीर भी एक–एक कर सामने आने लगी।

बांग्लादेश की निर्यात केन्द्रित अर्थव्यवस्था को पहला झटका कोरोना महामारी के दौरान लगा। जब विकास दर पिछले साल के 7.9 प्रतिशत से गिरकर 3.4 प्रतिशत, मुद्रास्फीति 10 प्रतिशत और बेरोजगारी दर 20 प्रतिशत हो गयी थी। महामारी खत्म होने के बाद भी विश्व बाजार में ठहराव के चलते यह गिरावट जारी रही। इसी के साथ बांग्लादेश के मजदूर विदेशों में नौकरी करके जो विदेशी मुद्रा भेजते थे, उसमें भी भारी गिरावट आयी। रही सही कसर रूस–यूक्रेन युद्ध के बाद तेल आयात की बढ़ती कीमतों ने पूरी कर दी। इन तीनों ने मिलकर विदेशी मुद्रा भण्डार में कमी और भुगतान सन्तुलन के संकट को बढ़ा दिया। इस समस्या से निपटने के लिए बांग्लादेश ने अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष और अन्य वित्तीय संस्थानों से कर्ज लिया जिसके चलते ब्याज चुकाने का बोझ पहले से बढ़ गया और भुगतान सन्तुलन की समस्या और गहरी हो गयी। अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा लादी गयी शर्तों के चलते सरकारी खर्चों में कटौती की गयी जिसके परिणामस्वरूप बेरोजगारी और महँगाई पहले से भी गम्भीर रूप धारण करती गयी। बेरोजगारी दूर करने और महँगाई कम करने के लिए सरकार को चाहिए था कि वह सरकारी सब्सिडी बढ़ाये, न्यूनतम मजदूरी बढ़ाये, सरकारी सुरक्षा की योजनाएँ शुरू करे, लेकिन सरकार ऐसा कोई भी कदम नहीं उठा सकती थी क्योंकि आर्थिक नीतियाँ को तय करना विदेशी कर्जदाता संस्थाओं की जिम्मेदारी थी। उनकी मर्जी के बिना सरकार कोई कदम उठाने में असमर्थ थी।

मौजूदा साम्राज्यवादी दौर में दुनिया भर में यह परिपाटी बन गयी है कि जिन नवउदारवादी नीतियों की असफलता के चलते आर्थिक संकट उत्पन्न होता है उसे पलटने की तो बात ही क्या उलटे उन्हीं नीतियों को और ज्यादा कड़ाई से लागू करने की सलाह दी जाती है। बांग्लादेश में यही हुआ और आगे भी यहीं होना तय है।

इन नवउदारवादी नीतियों की असफलता से जनता के बढ़ते दु:ख दर्द और वहाँ के शासकों के जुल्म अन्याय के खिलाफ बढ़ते जनाक्रोश के चलते होने वाली बगावत और सत्ता परिवर्तन को भी साम्राज्यवादी अपने पक्ष में मोड़ लेते हैं। मिस्र और ट्यूनीशिया से लेकर बांग्लादेश तक की घटनाएँ इस बात की गवाह हैं। क्रान्तिकारी चेतना और जनपक्षधर वैकल्पिक राजनीतिक शक्तियों के अभाव में साम्राज्यवादी शक्तियाँ अपने पसन्दीदा लोगों को सत्ता में लाने और नवउदारवादी नीतियों को और अधिक मजबूती से स्थापित करने में कामयाब हो जाती हैं। मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड को विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया और बांग्लादेश में मोहम्मद युनुस को।

बांग्लादेश में अमरीका के भू–राजनीतिक मंसूबे बिलकुल साफ है और इसके चलते शेख हसीना से उसकी नाराजगी भी जाहिर है। अमरीका की मंशा बांग्लादेश के सेंट मार्टिन द्वीप पर अमरीकी सैनिक अड्डा बनाने की थी। यह भी चर्चा थी कि खालिदा जिया ने अपने राजनीतिक समर्थन के बदले अमरीका को उक्त द्वीप देने की बात की थी। 11 अगस्त को इकोनॉमिक्स टाइम्स को दिये इण्टरव्यू में शेख हसीना ने बताया कि अमरीका सेंट मार्टिन द्वीप पर अपना सैनिक अड्डा बनाने की इजाजत चाहता था जो उन्हें मंजूर नहीं था। अमरीकी रक्षा विभाग के दक्षिणी एशिया प्रभारी डोनाल्ड ल्यू पिछली मई तक कई बार बांग्लादेश आये और वहाँ के बड़े सरकारी अधिकारियों और नागरिक समाज के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत की। उस दौरे के बाद अमरीका ने बांग्लादेश सेना प्रमुख जनरल यासीन अहमद के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए उन पर प्रतिबन्ध की घोषणा की थी।

बांग्लादेश सरकार का भारत के साथ करीबीपन और चीन के साथ बढ़ते आर्थिक सम्बन्ध भी अमरीका को नागवार गुजर रहे थे। पिछले डेढ़ दशक से चीन के साथ बांग्लादेश का आर्थिक सम्बन्ध तेजी से बढ़ा और 2023 तक वहाँ चीन का पूँजी निवेश 3–2 अरब डॉलर पहुँच गया। चीनी प्रतिनिधिमण्डल के साथ बैठक में बांग्लादेश सरकार ने चीन के साथ अपने सम्बन्ध को ‘राजनीतिक साझेदारी’ की जगह ‘सम्पूर्ण राजनीतिक सहभागी साझेदारी’ बताया था। इन तथ्यों की रोशनी में देखें तो शेख हसीना के दमनकारी शासन के खिलाफ छात्रों और जनता का आक्रोश तथा सत्ता परिवर्तन अमरीका के लिए एक सुनहरा मौका साबित हुआ।

शेख हसीना के सत्ता से हटने के बाद अन्तरिम सरकार के प्रमुख बने मोहम्मद युनुस का अमरीका के साथ बहुत पुराना और घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। 1965 में वे फूल ब्राइट फॉटेन स्टूडेंट के रूप में बण्डरबिल्ट यूनिवर्सिटी में कई साल तक रहें। युनुस के एनजीओ ‘ग्रामीण बैंक’ को अमरीकियों ने बेहिसाब धन मुहैया कराया। 1983 से 2008 के बीच 7–6 लाख डॉलर का कर्ज बिना किसी गारण्टी के दिया। इसके जरिये युनुस ने 1 लाख गाँवों में अपना नेटवर्क खड़ा किया।

2010 में युनुस को अमरीका का सर्वाेच्च नागरिक सम्मान कांग्रेशनल गोल्ड मेडल और 2009 में प्रेसिडेंसियल मेडल ऑफ फ्रीडम तथा प्रेसिडेंसियल सिटिजन्स मेडल दिया गया। नोबेल पुरस्कार के साथ ये सम्मान आज तक दुनिया में सिर्फ 6 लोगों को मिले हैं जिनमें मदर टेरेसा और नेल्सन मण्डेला जैसे लोग शामिल हैं। यह सब अकारण नहीं हुआ, बल्कि इसके गहरे निहितार्थ रहे हैं। 2010 से ही युनुस को सीआईए की सहयोगी संस्था नेशनल इण्डोमेंट फॉर डेमोक्रेसी के साथ जोड़ा गया। दुनिया भर में अमरीका के हित में सरकारें गिराने और बनाने में इस एनजीओ की कुख्यात भूमिका रही है। यह संस्था दुनिया के विभिन्न देशों में अपनी राजनीतिक पार्टी, ट्रेड यूनियन, मीडिया संस्थान और मानवाधिकार संगठन बनाती है जो सरकार बदलने में काम आते हैं, जैसे–– जार्जिया, यूक्रेन, आर्मेनिया, सिंगापुर इत्यादि। 2010 में इन अमरीकी चालों को समझते हुए ही शेख हसीना ने युनुस को ग्रामीण बैंक से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया था।

इसी दौरान नोर्वे की एक डॉक्यूमेंट्री में युनुस पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने नोर्वे से मिले चन्दे से एक करोड़ डॉलर अपने एक सहयोगी को ट्रान्सफर कर दिये थे। हालाँकि बाद में उस पैसे को वापस ग्रामीण बैंक के खाते में डाल दिया गया, लेकिन इससे उनकी काफी बदनामी हुई थी। शेख हसीना ने उन पर “गरीबी हटाने के नाम पर गरीबों का खून चूसने” का आरोप लगाया था। उसके बाद ही ग्रामीण बैंक की उनकी नौकरी चली गयी थी।

मोहम्मद युनुस ने छात्र आन्दोलन का समर्थन करके जो लोकप्रियता हासिल की उसका लाभ साम्राज्यवादी अमरीका ने उठाया और अपने मोहरे के रूप में वहाँ खड़ा कर दिया।

अन्तरिम सरकार के प्रमुख के रूप में मोहम्मद युनुस चुनाव करवायेंगे जिसमें बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) और जमाते इस्लामी चुनाव में उतरेगी। उल्लेखनीय है कि जमाते इस्लामी से प्रतिबन्ध हटा दिया गया है और उनके नेताओं को जेल से रिहा कर दिया गया है। शेख हसीना की पार्टी आवामी लीग को चुनाव से अलग रखे जाने की सम्भावना है और अगर वह पार्टी चुनाव लड़ती भी है तो उसके जीतने की उम्मीद नहीं के बराबर है।

बांग्लादेश की घटनाओं ने एक बार फिर इस तथ्य को उजागर किया है कि नवउदारवादी नीतियों की असफलता से उत्पन्न आर्थिक संकट और उसके चलते होने वाले जनान्दोलन और सत्ता परिवर्तन के बावजूद क्रान्तिकारी विकल्प के अभाव में नवउदारवाद और अधिक मजबूत होता है। साम्राज्यवादी शक्तियाँ उस देश की दक्षिणपंथी फासीवादी पार्टियों को सत्ता में लाकर उनके जरिये अपनी लुटेरी नीतियों को लागू करवाती हैं। ये पार्टियाँ आर्थिक संकट से पैदा होने वाले जनाक्रोश को धर्म के नाम पर अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ मोड़ देती हैं, साम्प्रदायिक विभाजन करवाती हैं और उन्हीं नीतियों को और ज्यादा तेजी से लागू करवाती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि जब तक मेहनतकश जनता की व्यापक और जुझारू एकता तथा संगठन के बल पर नवउदारवादी नीतियों को पूरी तरह खत्म करके एक जनपक्षीय, समतामूलक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था कायम नहीं की जाएगी तब तक शोषक–शासक वर्ग अपनी साजिशों के जरिये सत्ता परिवर्तन का इस्तेमाल अपने हित में करते रहेंगे। ऐसे में आन्दोलनकारी छात्रों, नौजवानों का न्याय, समता और लोकतंत्र की स्थापना का सपना, सपना ही रह जायेगा।