उत्तराखण्ड का बेहद खूबसूरत पर्यटन केन्द्र तथा बदरीनाथ, हेमकुण्ड, फूलों की घाटी और औली जैसे प्रमुख प्राकृतिक और धार्मिक स्थलों का प्रवेशद्वार, जोशीमठ के लिए नया साल 2023 भारी तबाही लेकर आया। 2 जनवरी की रात वहाँ के निवासियों की नींद तेज धमाकों से खुली, और उनका सामना घर की दीवारों और फर्श में दरार पड़ने, जमीन धँसने जैसे हौलनाक मंजर से हुआ। सुबह जब लोग घर से बाहर निकले तो हर जगह यही आलम देखने को मिला। जगह–जगह जमीन का धँसाव, सड़कों पर चैड़ी दरारें, दरार पड़े मकानों से बाहर भीड़ और अफरा–तफरी, मकानों को खाली करने और जरूरी सामान निकालने की आपा–धापी, हर जगह मातमी माहौल। 22,000 की आबादी और 4,500 मकानों में से लगभग 700 मकानों में दरार पड़ गयी। दो होटल एक दूसरे पर झुके पाये गये। एक हँसता–बसता शहर रातोरात तबाही की चपेट में आ गया। छोटे–बड़े रोजगार में लगे हजारों लोग अचानक अपने अस्तित्व रक्षा के लिए बेचैन हो उठे। जीवनभर की कमाई से बनाये गये उनके आशियाने उजड़ गये। हाड़ कँपाती ठण्ड में वे बेघर होकर सड़क पर आ गये।

जोशीमठ की बसावट आज से लगभग सौ साल पहले भूकम्प से हुए भूस्खलन से बनी जमीन पर हुई। 6,151 फीट की ऊँचाई पर स्थित खड़ी ढलानों और कमजोर चट्टानी बनावट वाली जमीन पर बसा यह नगर पारिस्थितिक रूप से बहुत ही संवेदनशील माना गया है। भारी वर्षा, हिमपात, ग्लेशियर पिघलने से आने वाला पानी और बाढ़ के चलते इस इलाके का पर्यावरण और ज्यादा कमजोर होता गया। यह इलाका भूकम्प के प्रति बेहद संवेदनशील है और भूकम्प का हल्का झटका भी यहाँ के पहले से ही दुर्बल पारिस्थितिकी–तंत्र को और ज्यादा कमजोर बना देता है। रही–सही कसर अन्धाधुन्ध निर्माण कार्य और जंगल कटान ने पूरी कर दी।

जोशीमठ का हादसा प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि एक मानव निर्मित त्रासदी है। विकास के नाम पर प्रकृति के खिलाफ लगातार की जा रही ज्यादतियों का अनिवार्य परिणाम है। यह बार–बार होने वाले प्राकृतिक आपदाओं और जान–माल के नुकसान से सबक लेकर भविष्य में कोई कदम उठाने में शासन–प्रशासन की आपराधिक लापरवाही का नतीजा है। यह तबाही आसमानी नहीं सुल्तानी है।

जोशीमठ में दरार पड़ने और जमीन धँसने कि घटना 1970 में भी हुई थी, लेकिन वह इतना विकराल रूप लेकर सामने नहीं आयी थी, जैसा इस बार। उस वर्ष अलकनन्दा नदी में आयी बाढ़ ने भीषण तबाही मचायी थी। इस बात को सबने माना था कि इस तबाही का कारण पेड़ों की बेतहाशा कटाई है और यही सिलसिला जारी रहा तो आनेवाले दिनों में इससे भी विकराल आपदा आना तय है। इस समझदारी और चेतना के चलते ही उस क्षेत्र में 1974 में गौरा देवी पन्त की अगुआई में ऐतिहासिक चिपको आन्दोलन शुरू हुआ। उस आन्दोलन के बाद ही सरकार द्वारा पर्यावरण की समस्या को समझाने और उनका हल निकालने के लिए कई कमिटियों का गठन किया गया था। उनमें से एक कमिटी की रिपोर्ट के आधार पर अलकनन्दा के जलागम क्षेत्र और उसके आसपास के इलाके में हरे पेड़ों का कटान पूरी तरह प्रतिबन्धित कर दिया गया था। यह चिपको आन्दोलन की एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी।

उसी दौरान जोशीमठ में भूस्खलन और भूधँसाव के कारणों का अध्ययन करने के लिए 1976 में महेश चन्द मिश्रा कमिटी का गठन किया गया था। कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया था कि जोशीमठ ग्लेशियर से बहकर आये बेहद संवेदनशील और नाजुक मलबे की जमीन पर बसा है, इसलिए यहाँ किसी भी तरह के भारी निर्माण कार्य पर पूरी तरह से रोक लगा देनी चाहिए। साथ ही यहाँ व्यापक पैमाने पर पेड़ लगाना और जल निकासी की व्यवस्था करना भी जरूरी है, लेकिन इन सिफारिशों को गम्भीरता से नहीं लिया गया। मुनाफे की हवस में प्रकृति के साथ खिलवाड़ जारी रहा, बल्कि दिनोंदिन तेज होता गया।

इस संवेदनशील इलाके में बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य का सबसे विनाशकारी उदहारण 520 मेगावाट की तपोवन–विष्णुगाड़ पनबिजली परियोजना है, जिसे विशेषज्ञों द्वारा जोशीमठ में जमीन धँसने का एक महत्वपूर्ण कारण बताया जा रहा है। इसकी भूमिगत सुरंग की वजह से जोशीमठ के आसपास का इलाका खोखला हो गया है। भूवैज्ञानिकों का मानना है कि दिसम्बर 2009 में ब्लास्टिंग और सुरंग काटने वाली मशीन से भीतरी जल स्रोत में सुराख हो गया, जिससे प्रतिदिन लगभग 7 करोड़ लीटर भूजल का बहाव होने लगा, जब तक कि इसे बन्द नहीं किया गया, जो हर रोज तीस लाख लोगों की जरूरत के लिए पर्याप्त था। उसके भीतर आज भी एक सुरंग काटने वाली मशीन फँसी हुई है।

7 फरवरी, 2021 को धौलीगंगा में भीषण बाढ़ आयी थी, जिसने ऋषिगंगा पनबिजली परियोजना को बहा दिया था। उस बाढ़ में 200 से अधिक लोग भी बह गये थे और इससे चिपको आन्दोलन की धरती, रैणी गाँव को भी अपूरणीय क्षति हुई थी। आज भी वहाँ के निवासी पुनर्वास और मुआवजे की लड़ाई लड़ रहे हैं।

इन आपदाओं के बाद स्थानीय लोगों ने इन परियोजनाओं को रद्द करने तथा पर्यावरण और जन–जीवन की रक्षा के लिए लगातार सरकार से गुहार लगायी, आन्दोलन किये, लेकिन इन पर विचार करने के बजाय, हिमालय की छाती पर विकास की अंधी दौड़ जारी रही। पिछले दस सालों में उत्तराखण्ड की नदियों का पानी सुरंग के जरिये निकाल कर पनबिजली बनाने वाली लगभग 70 परियोजनाएँ निर्माणाधीन हैं।

पारिस्थितिक–तंत्र की कोमलता और भंगुरता सिर्फ जोशीमठ क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पूरा हिमालयी क्षेत्र की पारिस्थितिक संरचना बेहद संवेदनशील है। हिमालय–हिन्दुकुश पर्वतमाला को दुनिया का तीसरा ध्रुव माना गया है, क्योंकि यह हमारे ग्रह पर ग्लेशियर के बर्फ का तीसरा बड़ा भण्डार है। साथ ही, हिमालय दुनिया की सबसे कम उम्र की पर्वत–मालाओं में से एक है। ग्लेशियर से आये मलबे और भुरभुरी मिट्टी से बने होने के चलते इसके ढलान बहुत ठोस और स्थिर नहीं हैं। इसके अधिकांश हिस्से भूस्खलन प्रभावी और भूकम्प के प्रति संवेदनशील हैं। हिमालय की इन्हीं पारिस्थितिक, भौगोलिक और भूगर्भीय विशिष्टताओं के चलते इस पूरे इलाके में हमेशा कोई न कोई विनाशकारी आपदाएँ आती रही हैं और चेतावनी देती रही हैं कि कि यहाँ के पारिस्थितिक–तंत्र से खिलवाड़ करने की इजाजत नहीं है।

इस इलाके में प्राकृतिक आपदाओं का एक लम्बा इतिहास रहा है। 1880 और 1999 के बीच भूकम्प और भूस्खलन की केवल पाँच प्रतिकूल घटनाओं में 1,300 से अधिक लोगों की जान चली गयी थी। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, भूस्खलन, बादल फटने और अचानक बाढ़ आने से 2000 और 2009 के बीच कम से कम 433 लोगों की मौत हुई थी। 2010 से 2020 के बीच इस तरह की घटनाओं में 1,312 लोग मारे गये। सिर्फ एक साल में, 2021 में उत्तराखण्ड में भूस्खलन, अचानक आयी बाढ़ और हिमस्खलन ने 300 से अधिक लोगों की जान ले ली। इन्हीं कारणों से यहाँ के लगभग 400 गाँवों को रहने के लिए असुरक्षित बताया गया है। लेकिन हमारे अदूरदर्शी और पूँजीपरस्त शासकों ने इन तमाम विभीषिकाओं और खास तौर से केदारनाथ आपदा को पूरी तरह नजरअन्दाज किया और विकास के नाम पर हिमालय के पर्यावरण का विनाश जारी रखा। 2013 में केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट की हाई पावर कमेटी ने सर्वसहमति से यह सुझाव दिया था कि यहाँ के पहाड़ों से छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए। कमिटी की सिफारिशों को 2014 में स्वीकार किया गया था, लेकिन उसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया।

इन तमाम चेतावनियों के बावजूद, आजकल उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र में चारों ओर भारी निर्माण कार्य चल रहा है। लगभग 15,000 करोड़ रुपये की लागत से 889 किलोमीटर तथाकथित ‘ऑल वेदर रोड’ ने इस इलाके की पारिस्थितिकी को भारी नुकसान पहुँचाया है। पहाड़ सीधे 90 डिग्री तक काटे जा रहे हैं, लाखों पेड़ काटे जा चुके हैं, पहाड़ काटने से लाखों टन मलबा निकला है और इस बीच 150 से ज्यादा नये भूस्खलन क्षेत्र बन गये हैं।

यह परियोजना पर्यावरण कानूनों का घोर उल्लंघन करके शुरू की गयी है। राजनीतिक लाभ तथा सड़क निर्माण कम्पनियों और ठेकेदारों के हित में बनायी गयी इस परियोजना की अचानक घोषणा करने से पहले पर्यावरण पर पड़ने वाले इसके दुष्प्रभावों का कोई आकलन नहीं किया गया। पर्यावरणविदों और भूवैज्ञानिकों का मानना है कि यह सड़क परियोजना उत्तराखण्ड हिमालय की छाती पर एक नासूर है, जो आने वाले समय में बहुत ही विनाशकारी साबित होगा।

जोशीमठ से 13 किमी पहले इसकी तलहटी में हेलंग–मारवाडी बाईपास रोड चार धाम ‘आल वेदर रोड’ के तहत ही बनना शुरू हुआ, जिसका जोशीमठ कि जनता और पर्यावरणवादियों ने काफी विरोध किया था और सुप्रीम कोर्ट तक कानूनी लड़ाई लड़ी थी। लेकिन फिर भी इस सड़क का निर्माण कार्य जारी रहा, जिसके बारे में पर्यावरणविदों ने पहले ही आशंका जतायी थी और  मौजूदा जोशीमठ आपदा के लिए भी इसे जिम्मेदार ठहराया है। इसके अलावा, जोशीमठ–औली रोप–वे का भी निर्माण शुरू हुआ जो 4–15 किलोमीटर लम्बा है। आपदा आने के बाद फिलहाल इन दोनों परियोजनाओं का निर्माण कार्य रोक दिया गया है क्योंकि जमीन धँसने का प्रभाव इन पर भी हुआ है।

यही हाल ऋषिकेश–कर्णप्रयाग रेल परियोजना का है। 23,000 करोड़ की लागत से बन रही इस 124 किलोमीटर लम्बी रेल लाइन की 105 किलोमीटर लाइन सुरंग और पुल से होकर गुजरेगी। इस परियोजना का सबसे बड़ा सुरंग लगभग 14 किलोमीटर लम्बा है जो भारत का सबसे लम्बा सुरंग मार्ग है। इस परियोजना पर काफी तेजी से काम हो रहा है, जबकि उत्तराखण्ड की जिस संवेदनशील पारिस्थितिकी की पहले चर्चा की गयी है, उसे देखते हुए यह परियोजना चार धाम ‘आल वेदर रोड’ से कहीं ज्यादा विनाशकारी है। अभी यह परियोजना पूरी भी नहीं हुई कि इसकी तबाही के संकेत मिलाने लगे हैं। सुरंगों की खुदाई ने उसके आसपास के कई गाँवों में तबाही मचायी है। स्थानीय लोगों की जिन्दगी और रोजगार खतरे में पड़ गया है, पानी के सोते सूखते जा रहे हैं, खेतों में फसल कम हो रही है, जमीं धँस रही है और घरों में दरारें दिखायी दे रही हैं।

इन सारे निर्माण के पीछे उत्तराखण्ड में पर्यटन और तीर्थयात्रा को बढ़ावा देने की अदूरदर्शी और एकांगी सरकारी नीति है, जो भारी पूँजी निवेश और मुनाफे को केन्द्र में रख कर, वहाँ के पर्यावरण विनाश की कीमत पर लागू की जा रही है। इस समय जोशीमठ पर्यटन विकास का दंश झेल रहा था, कड़कड़ाती ठण्ड में बेघर–बार लोगों में अपने अस्तित्व बचाने के लिए हाहाकार मचा हुआ था, उसी दौरान उत्तराखण्ड सरकार अखबारों में बड़े–बड़े विज्ञापन छपवा कर पर्यटन के विकास को बढ़ावा देने का संकल्प दुहरा रही थी।

सरकार की एक ही चिन्ता है कि अधिक से अधिक तीर्थ यात्रियों और पर्यटकों को रिझाने और उनके लिए हर तरह की आरामदेह सुविधा मुहैय्या करने के लिए बुनियादी ढाँचा कैसे बनाया जाये–– इसका अर्थ है सड़के, रेलवे, हवाई अड्डे, हेलीपैड, हेलीकॉप्टर, टैक्सी, होटल, रेस्तरां, अस्पताल और मनोरंजन के साधन मुहैय्या करना। इस तरह अंग्रेजी राज में अपने माल की आवाजाही के लिए अंग्रेजों द्वारा बिछायी गयी रेल लाइनों का कुछ फायदा यहाँ की जनता को भी मिल गया था, उसी तरह उत्तराखण्ड की जनता को भी इसका कुछ लाभ मिल जाएगा, लेकिन चार धाम यात्रा मार्ग से इतर इस विकास की कोई झलक भी नहीं मिलने वाली और इस यात्रा मार्ग के निवासियों को भी इसकी कीमत अपनी तबाही से चुकानी पड़ेगी, जिसका जीता–जागता उदाहरण जोशीमठ आपदा है।

2022 में, लगभग 45 लाख तीर्थयात्रियों ने चार धाम यात्रा की, जिसे उत्तराखण्ड सरकार और उसके पर्यटन विभाग की उल्लेखनीय उपलब्धि के रूप में प्रचारित किया गया था।

हालाँकि, इन पर्यटकों के कारण हिमालय की संवेदनशील और नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को होने वाले नुकसान की चिन्ता सरकार को नहीं है। वाहनों से होने वाला कम्पन्न, कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन, पर्यटकों द्वारा फैलायी जाने वाली गन्दगी और पहाड़ की पारिस्थितिकी को होने वाली अपूरणीय क्षति की भी सरकार को परवाह नहीं।

एक समाचार के मुताबिक, 2022 में 27 दिनों की चार धाम यात्रा के दौरान ही 102 यात्रियों और 400 से भी ज्यादा घोड़े–खच्चरों की मौत हो चुकी थी। केदारनाथ पैदल मार्ग पर प्रतिदिन पाँच से छह हजार घोड़ा खच्चर की आवाजाही होती है, क्योंकि लगभग 40 प्रतिशत श्रद्धालु घोड़ा–खच्चर से ही केदारनाथ पहुँचते हैं। इसके अलावा सामान ढोने का काम भी घोड़ा खच्चर से ही होता है।

उत्तराखण्ड में तीर्थयात्रियों और पर्यटकों का आना कोई नयी बात नहीं है। सैकड़ों साल पहले से ही चार धाम यात्रा और दुर्गम पहाड़ों पर ट्रैकिंग के लिए लोग यहाँ आते रहे हैं। आज भी चार धाम पैदल यात्रा मार्ग के निशान मौजूद हैं जहाँ से अब केवल गिने–चुने प्रकृति प्रेमी ट्रैकर ही गुजरते हैं। बाद में जब सड़क मार्ग बना, तब भी लोगों का आवागमन चलता रहा और यहाँ की पारिस्थितिकी को भी बहुत कम नुकसान हुआ। लेकिन पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर जो पूँजी केन्द्रित योजनाएँ पिछले कुछ सालों में बनी हैं, जितने दैत्याकार मशीनें पहाड़ काटने में लगायी गयी हैं, उसने हिमालय के पर्यावरण को जर्जर बना दिया है। आये दिन होने वाली प्राकृतिक आपदाएँ इसी का नतीजा हैं।

जहाँ तक उत्तराखण्ड में रोजगार को बढ़ावा देने की बात है, पर्यटन के जरिये रोजगार का यह एकांगी मॉडल चैतरफा विकास की जगह नहीं ले सकता। यहाँ की स्थानीय परिस्थितियों और जलवायु के अनुरूप खेती, बागवानी, लघु उद्योग, पशुपालन और अन्य उत्पादक गतिविधियों को बढ़ावा देकर, स्थानीय लोगों की जरूरत और परम्परागत जीवन शैली का अनुसरण करते हुए यहाँ के चैतरफा विकास की योजना बनायी जा सकती है। लेकिन पूँजी निवेश और मुनाफे को ही अपना आराध्य देव समझाने वाले लोगों से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती।

जोशीमठ में आयी मानव निर्मित तबाही विकास के नये पैगम्बरों को एक चेतावनी है कि प्रकृति आप की जागीर नहीं है। प्रकृति के भीतर ही समाज और मानवता का अस्तित्व है। उसके प्रति की गयी लापरवाही और दुर्व्यवहार का वह बदला लेती है उसके साथ सामंजस्यपूर्ण व्यवहार ही टिकाऊ विकास की गारंटी हो सकती है।

पूँजीपरस्त शासक भले ही इस चेतावनी पर ध्यान न दें, लेकिन उत्तराखण्ड की जनता अपनी जिन्दगी की तबाही से सबक ले रही है। जोशीमठ के लोगों ने आपदा आने से पहले भी लगातार आन्दोलन करके सरकार को आगाह किया और आज भी वे आन्दोलन की राह पर हैं। उनके सामने दोहरी समस्या है–– आपदा पीड़ित लोगों के लिए पुनर्वास और उनकी फौरी जरूरतों की आपूर्ति उनकी पहली और तात्कालिक माँग है, जबकि ऐसी आपदाओं के स्थायी निदान के लिए यहाँ की स्थानीय पारिस्थितिक संरचना के अनुरूप विकास की योजना बनाने और विनाशकारी परियोजनाओं को रद्द करवाने की माँग दूरगामी महत्व की है। जोशीमठ के जागरूक आन्दोलनकारी इन दोनों माँगों को लेकर संघर्षरत है, यह एक उम्मीद जगाने वाली बात है।

अब से डेढ़ सौ साल पहले प्रकृति और इनसान के आपसी सम्बन्धों के बारे में फ्रेडरिक एंगेल्स ने कहा था––

प्रकृति पर अपनी इनसानी जीत को लेकर हमें बहुत ज्यादा डींग नहीं हाँकनी चाहिए, क्योंकि ऐसी हरेक जीत के बदले प्रकृति हमसे बदला लेती है। यह सही है कि हरेक जीत से पहले–पहल वे ही नतीजे हासिल होते हैं जिनकी हमें उम्मीद थी, लेकिन दूसरी–तीसरी मंजिल में उससे बिलकुल अलग किस्म के अनदेखे नतीजे सामने आते हैं जो अक्सर पहले वाले नतीजों को बेअसर कर देते हैं। मेसोपोटामिया, यूनान, एशिया माइनर और दूसरे इलाकों में जिन लोगों ने खेती की जमीन के लिए जंगलों को तबाह कर डाला, उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि उन जंगलों के साथ–साथ नमी इकट्ठा करने और उसे हिफाजत से रखने वाले खजाने को खाली करके वे इन देशों की मौजूदा तबाही की बुनियाद डाल रहे हैं। आल्प्स के इटलीवासियों ने जब दक्षिणी इलाकों से चीड़ के जंगलों को काट–काटकर पूरी तरह इस्तेमाल कर लिया, जिन्हें उत्तरी इलाकों ने बड़ी हिफाजत से पाला–पोसा था, तब उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि ऐसा करके वे अपने इलाके के पशुपालन की जड़ खोद रहे हैं। इस बात का तो उन्हें और भी कम अहसास था कि इसके चलते वे हर साल कई महीने के लिए अपने पहाड़ी झरनों के पानी से खुद को महरूम कर रहे हैं और दूसरी ओर उन स्रोतों को ऐसी हालत में पहुँचा रहे हैं कि ये बरसात के मौसम में मैदानी इलाकों में भयावह बाढ़ ला दे। इस तरह हर कदम पर हमें आगाह किया जाता है कि हम प्रकृति पर विदेशी हमलावरों की तरह हकूमत बिलकुल नहीं करते, जैसे कि हम प्रकृति से बाहर के लोग हों, बल्कि अपने खून, मांस और दिमाग के साथ हम प्रकृति का अपना हिस्सा हैं, हम उसके भीतर ही मौजूद हैं और इसके ऊपर हमारी सारी हकूमत इस बात में शामिल है कि दूसरे सभी जानवरों से हम इस मायने में बेहतर हालत में है कि हम प्रकृति के नियमों को सीख सकते हैं और उन्हें सही ढंग से लागू कर सकते हैं। (फ्रेडरिक एंगेल्स, मानवाभ वानर से नर बनने की प्रक्रिया में श्रम की भूमिका, 1876)

उपरोक्त बातें उस जमाने की हैं जब पूँजीवाद अपने शैशव काल में था। आज के नवउदारवादी दौर में जब पूँजीवाद अपने अत्याधुनिक औजारों और उन्नत तकनीक के दम पर प्रकृति को तबाह करने पर आमादा है, तब इस बात की अहमियत और बढ़ जाती है। जोशीमठ का सवाल पूरे हिमालयी क्षेत्र और पूरी धरती की हिफाजत से जुड़ा हुआ है। पूँजी और मुनाफे को केन्द्र में रख कर किया गया विकास टिकाऊ नहीं है, यह विनाशकारी विकास है। इसका विकल्प मानवकेन्द्रित प्रकृति–रक्षक, जनोन्मुख विकास ही हो सकता है।