यूक्रेन पर रूसी हमला शुरू हुए आज एक महीने से भी ज्यादा समय बीत चुका है। इस युद्ध के विनाशकारी परिणामों का सही अनुमान लगाना सम्भव नहीं, लेकिन जो भी जानकारियाँ मिल रही हैं वे दिल दहला देने वाली हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के आँकड़ों के मुताबिक 24 फरवरी, 2022 के बाद इस हमले में 2,685 नागरिक हताहत हुए और 38,66,224 लोग पड़ोसी देशों में शरण लिए हुए हैं, जिनमें करीब 90 फीसदी महिलाएँ और बच्चे हैं। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि अन्य 65 लाख लोग यूक्रेन के भीतर विस्थापित हुए हैं। रूसी सरकार के आँकड़ों के मुताबिक, 2,71,254 शरणार्थी रूस में शरण लिये हुए हैं। इसके आलावा 2,00,000 से अधिक रूसी नागरिक भी वहाँ से पलायन कर चुके हैं।

रूसी हमलों ने घनी आबादी वाले कई इलाकों को तबाह कर दिया है, जहाँ नागरिकों को बंकरों और मेट्रो स्टेशनों में शरण लेनी पड़ी है और लाखों लोग बिजली, पानी, दवा या बुनियादी सुविधाओं से वंचित होकर काल के गाल में समा रहे हैं। रूस की आर्टिलरी, रॉकेट और अन्य हथियारों से लगातार बमबारी के चलते चेर्निहाइव, खारकीव, कीव और मारियुपोल जैसे प्रमुख शहरों और दूसरे नागरिक क्षेत्रों के और भी अधिक नागरिकों के हताहत होने और बुनियादी ढाँचे के नुकसान की सम्भावना है।

निस्सन्देह, हमेशा की तरह यह युद्ध भी भयावह और विनाशकारी है। रूस और यूक्रेन की जनता ही नहीं, दुनियाभर की शान्तिप्रिय और न्यायपसन्द जनता युद्ध नहीं चाहती। यही कारण है कि रूस सहित दुनिया के तमाम देशों में युद्ध विरोधी प्रदर्शन हुए हैं। युद्ध की विनाशलीला को देखते हुए इनसानियत से प्यार करनेवाले किसी भी अमन पसन्द व्यक्ति की भावनाओं का आहत होना, पीड़ा, व्यथा और आक्रोश से भर जाना हमारी अत्यन्त स्वभाविक है, लेकिन युद्ध हमारी भावनाओं और इच्छाओं से स्वतन्त्र परिघटना है। इसलिए जब तक हम एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र पर युद्ध थोपने, हमला करने, कब्जा जमाने, कत्लोगारत करने और वहाँ लूट–खसोट मचाये जाने के असली कारणों को नहीं जानते तथा युद्धोन्मादी शक्तियों के षड़यंत्रों और दुरभिसंधियों को तथ्यों की रोशनी में समझने का प्रयास नहीं करते, तब तक युद्ध की विनाशलीला और उसके कारण हो रही तबाही के प्रति हमारी तात्कालिक करुणा और मानवीय संवेदना का कोई खास अर्थ नहीं। पीड़ा और आक्रोश को सही दिशा देने और अपनी धरती से युद्ध को हमेशा–हमेशा के लिए समाप्त करने के लिए हमें आम तौर पर युद्धों और खास तौर पर मौजूदा युद्ध पर गहराई से विचार करना जरूरी है।

अठारहवीं सदी के प्रशियाई युद्ध विशारद कार्ल वोन क्लौजेविट्ज का मशहूर कथन है–– “युद्ध दूसरे साधनों से राजनीति की निरन्तरता है।” उनका मानना था कि युद्ध का अपने आप में कोई उद्देश्य नहीं, बल्कि यह एक राजनीतिक साधन है। यह दुश्मन पर अपनी इच्छा थोपने के लिए की जानेवाली हिंसा की कार्रवाई है।

सच तो यह है कि रूस–यूक्रेन युद्ध सिर्फ राजनीति की ही नहीं, बल्कि पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा दुनिया के अलग–अलग देशों पर थोपे गये उन तमाम युद्धों की भी निरन्तरता है जो अब से लगभग तीन दशक पहले जर्मनी के एकीकरण और सोवियत साम्राज्यवादी खेमे के पतन के बाद से ही लगातार जारी रहा है। इस घटना के बाद दुनिया के शक्ति सन्तुलन में जो बदलाव हुआ उसके परिणामस्वरूप अमरीकी चैधराहट में एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था और वाशिंगटन आमसहमति से दुनिया का संचालन शुरू हुआ, दावा तो यह किया गया कि अब शीत युद्ध की समाप्ति के बाद शान्ति का एक नया दौर शुरू होगा और दुनिया को शान्ति लाभांश हासिल होगा। लेकिन इस दौरान कोई ऐसा दिन नहीं गुजरा जब अपने साम्राज्यवादी वर्चस्व और लूट–खसोट के लिए दुनिया के किसी न किसी भाग में पूर्ण या आंशिक युद्ध जारी न रहा हो।

सोवियत संघ के पतन से पहले गोर्वाचोव ने अमरीका और यूरोप की यात्रा की। वे उन साम्राज्यवादी देशों के साथ एक नयी सुरक्षा संधि करना चाहते थे, जिसमें रूस को भी साझेदार बनाया जाता। रीगन प्रशासन के विदेश मंत्री जेम्स बेकर और पश्चिमी जर्मनी के विदेश मंत्री हांस डी जेंस्चर ने उनसे वादा किया कि जर्मनी के एकीकरण के बाद मौजूदा सरहदों से आगे नाटो का एक इंच भी विस्तार नहीं किया जाएगा, जिसका समर्थन ब्रिटेन और फ्रांस ने भी किया। कहा गया कि जो खर्च शीत युद्ध के काल में हथियारों पर खर्च होता था, अब नयी विश्व व्यवस्था में उसे सामाजिक सुरक्षा और कल्याणकारी योजनाओं पर किया जायेगा। दुनिया शान्ति के नये युग में प्रवेश करेगी, शान्ति का लाभांश वितरित होगा, इत्यादि–––।

लेकिन जैसा कि हम जानते हैं, साम्राज्यवादी देशों के नेताओं की नकेल उन देशों के कार्पाेरेट घरानों के हाथों में होती है। युद्ध उद्योग और हथियारों के सौदागरों के लिए युद्ध और कत्लो–गारत अकूत मुनाफे का जरिया रहा है। वे शान्ति लाभांश जैसे जुमलों से ज्यादा युद्ध लाभांश की हकीकत में यकीन रखते हैं। इसलिए संधिपत्र की स्याही सूखने से पहले उन्होंने वारसा संधि और सोवियत संघ से अलग हुए देशों को यूरोपीय संघ और नाटो में शामिल करने की मुहीम तेज कर दी। अब तक वारसा पैक्ट में शामिल देश और पूर्व सोवियत संघ के खेमे से अलग हुए–– पोलैंड, हंगरी, बुल्गारिया, लिथुआनिया, लाटविया, एस्तोनिया, रोमानिया, स्लोवेनिया, स्लोवाकिया, चेक गणराज्य, अल्बानिया, क्रोएसिया, मोन्तेगारो आदि नाटो में शामिल कर लिये गये। इन देशों की सैनिक शक्ति को बढ़ाने के नाम पर उनको भारी कर्ज दिया गया और वहाँ के नागरिकों की सामाजिक सुरक्षा और जरूरी सेवाओं में कटौती की गयी। अकेले पोलैंड ने अपनी शैन्य शक्ति बढ़ाने के लिए अमरीकी युद्ध सामग्री खरीदने पर 6 अरब डॉलर खर्च किया। नाटो के इस विस्तार का नजीजा यह हुआ कि रूस की घेरेबन्दी जारी रही और उसकी सरहद से लगभग 150 किलोमीटर दूर पोलैंड में नाटो का मिसाइल बेस स्थापित कर दिया गया।

अमरीकी चैधराहट में जिस नयी विश्व व्यवस्था और नव उदारवादी व्यवस्था की बुनियाद रखी गयी, उसके एक पैरोकार थॉमस फ्रीडमैन ने 1999 में यूगोस्लाविया पर बमबारी के बाद लिखा था–– “बाजार का छिपा हुआ हाथ कभी भी अदृश्य घूँसे के बिना काम नहीं करेगा। अमरीकी वायु सेना एफ–15 के डिजाइनर मैकडॉनेल डगलस के बिना मैकडॉनल्ड्स फूड का कारोबार फल–फूल नहीं सकता। और सिलिकॉन वैली की प्रौद्योगिकियों के फलने–फूलने के लिए दुनिया को सुरक्षित रखने वाले अदृश्य घूँसे को अमरीकी सेना, वायु सेना, नौसेना और मरीन कॉर्प्स कहा जाता है।” यह साम्राज्यवादियों के असली मकसद, मुनाफाखोरी और सामरिक शक्ति के विस्तार पर बेबाक टिप्पणी है। साथ ही यह ख्रुश्चेव से लेकर गोर्वाचेव तक शान्ति के पुजारियों की हकीकत को जमीन पर पटक देने वाला वक्तव्य भी है।

जहाँ तक यूक्रेन में पश्चिमी साम्राज्यवादियों की दखलन्दाजी का सवाल है, इसका मकसद रूस को घेरने और वहाँ नाटो का सैनिक अड्डा स्थापित करना है। अमरीकी सरकार ने पिछले बीस वर्षों के दौरान वहाँ दो बार तख्तापलट करवाया और एक गृह युद्ध को हवा दी जिसमें 14,000 यूक्रेनी, खास तौर पर रूसी भाषा–भाषी नागरिक मारे गये। यूक्रेन में पहला अमरीका समर्थित तख्तापलट 2004 में हुआ, जब साम्राज्यवाद समर्थित राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार विक्टर युश्चेन्को चुनाव हार गये। चुनाव में जीत हासिल करने वाले विक्टर यानुकोविच को पश्चिमी सरकारों ने रूस समर्थक बताते हुए चुनाव में धाँधली का बहाना बनाकर उनकी जीत को अस्वीकार किया। उसके बाद अमरीका और यूरोप समर्थित ताकतों ने यूक्रेन में “नारंगी क्रान्ति” को अंजाम दिया और दिसम्बर में वहाँ दुबारा चुनाव करवाया तथा अपने चहेते युश्चेन्को को राष्ट्रपति घोषित किया।

‘द गार्जियन’ ने “ऑरेंज रिवोल्यूशन” को “एक अमरीकी साजिश का नतीजा” बताया था जिस पर कम से कम 1–4 करोड़ डॉलर खर्च किया गया। ‘द गार्जियन’ ने लिखा था कि “अमरीकी सरकार के पैसे, अमरीकी सलाहकारों, राजनयिकों, दो बड़े अमरीकी दलों और अमरीकी गैर–सरकारी संगठनों के दम पर संगठित इस तख्तापलट मुहीम के जरिये चार वर्षों में “चार देशों में” सरकारों को गिराने का प्रयास किया गया–– सर्बिया, जॉर्जिया, बेलारूस और यूक्रेन।

अपने पहले कार्यकाल के दौरान युश्चेन्को ने आईएमएफ की नीतियों–– आर्थिक मितव्ययिता कार्यक्रम को लागू किया, सामाजिक सेवाओं पर खर्च कम कर दिया, बड़े बैंकों को बचाने के लिए पैसा दिया, कृषि को नियंत्रित किया, नाटो सदस्यता की वकालत की, और रूसी बोलने वाले भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन किया। अगले राष्ट्रपति चुनाव, 2010 में, युश्चेन्को को केवल 5 प्रतिशत वोट मिला, जिससे जाहिर होता है कि युश्चेन्को जनता में कितने अलोकप्रिय थे। 2010 के राष्ट्रपति चुनाव में विक्टर यानुकोविच विजयी हुए, जिन्हें पश्चिमी मीडिया रूस समर्थक बताता था, लेकिन वास्तव में वे कभी रूस और कभी अमरीका की ओर झुक जाते थे।

लेकिन 2013 में, यानुकोविच ने यूक्रेन को यूरोपीय संघ में मिलाने से सम्बन्धित एक समझौते पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया। बु्रसेल्स ने माँग की थी कि कीव नव उदारवादी ढाँचागत समायोजन लागू करे, सरकारी सम्पत्तियों को बेच दे और वाशिंगटन के नेतृत्व वाले अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) को यूक्रेनी सरकार के खर्च पर और पहले से ज्यादा नियंत्रण कायम करने दे।

जब यानुकोविच ने रूस के प्रति झुकाव दिखाते हुए पश्चिमी ताकतों के शर्तनामों को अस्वीकार कर दिया, तब  एक बार फिर, पश्चिम समर्थित संगठनों ने सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए अपने समर्थकों को कीव के ‘मैदान स्क्वायर’ में उतारा।

जिस तरह 2004 में “नारंगी क्रान्ति” के दौरान किया था, अमरीका ने 2013 के अन्त और 2014 की शुरुआत में सरकार विरोधी प्रदर्शन के नेताओं से मिलने के लिए अपने राजनेताओं को भेजा। अमरीकी सीनेटर जॉन मैक्केन, क्रिस मर्फी इत्यादि ने मैदान में भारी भीड़ के सामने अपनी बात रखी। उन के साथ मिलकर यूक्रेन के स्वोबोदा (एक नव–नाजी पार्टी) और राइट सेक्टर (फासीवादी संगठनों का गठबन्धन) जैसे संगठनों के नेताओं ने प्रदर्शनकारियों से बात की। फरवरी 2014 के हिंसक तख्तापलट में इनकी अगुआ भूमिका थी।

अमरीका समर्थित बलों और फासीवादियों की सफलता के साथ, राष्ट्रपति यानुकोविच देश छोड़कर रूस भाग गये। अमरीकी सरकार के अधिकारियों ने तख्तापलट के नेताओं से मुलाकात की और नयी सरकार का नेतृत्व करने के लिए दक्षिणपंथी नवउदारवादी, आर्सेनी यात्सेन्युक को नियुक्त किया।

2014 के तख्तापलट के बाद आयी सरकार ने देश में वामपंथी दलों पर प्रतिबन्ध लगाया और रूसी भाषाभाषी–अल्पसंख्यकों के अधिकारों को पहले से भी कम कर दिया। दूसरी ओर, यूक्रेनी नव–नाजीवादियों ने पूरे देश में सड़कों पर किये जा रहे तख्तापलट विरोधी प्रदर्शनों पर हमला किया। इन्हीं प्रदर्शनों के दौरान, डोनेट्स्क और लुहान्स्क की जनता ने, जहाँ रूसी भाषियों की संख्या ज्यादा है, यूक्रेन सरकार का विरोध करना शुरू किया और यूक्रेन से दोनों इलाकों की स्वतंत्रता की घोषणा की। तख्तापलट से बनी यूक्रेनी सरकार ने वहाँ सेना भेजकर विद्रोह का दमन शुरू कर दिया।

कई यूक्रेनी सैनिकों ने अपने ही देशवासियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। यूक्रेनी सेना की बेअदबी को देखते हुए, वहाँ अजोव, ऐदर, निप्रो, टॉरनेडो, जैसे नव–नाजीवादी “प्रादेशिक रक्षा बटालियन” का गठन किया गया। उनको डोनेट्स्क और लुहान्स्क में तैनात किया गया, जिन्होंने हजारों रूसी भाषी यूक्रेनियन को मार दिया। मई 2014 में, नव–नाजियों और प्रान्तीय बलों ने वहाँ के प्रमुख शहर ओडेसा में तख्तापलट विरोधी प्रदर्शन पर हमला किया और श्रमिक संघ की इमारत में 48 लोगों को जिन्दा जला दिया। इस हत्याकांड ने गृहयुद्ध की आग में घी का काम किया। यूक्रेनी सरकार ने इस घटना की जाँच करने का वादा किया, लेकिन वास्तव में कभी जाँच नहीं की।

2014 के दक्षिणपंथी तख्तापलट के बाद, यूक्रेन में एक फर्जी चुनाव कराया गया, और पश्चिम समर्थित अरबपति पेट्रो पोरोशेंको को राष्ट्रपति बनाया गया। उसने कई विपक्षी दलों पर प्रतिबन्ध लगा दिया और जब उन्होंने संगठित होने की कोशिश की, तो उन पर सरकारी मदद से अमरीकापरस्त धुर दक्षिणपंथियों ने हमला किया।

अपने पश्चिमी आकाओं को खुश करने के लिए पोरोशेंको ने विश्व युद्ध के उन दिग्गजों को पुरस्कार दिया, जो नाजी जर्मनी गठबन्धन मिलिशिया जैसे फासीवादी यूक्रेनी संगठन और यूक्रेनी विद्रोही सेना में शामिल थे।

यूक्रेनी सरकार ने उन नेताओं को भी सम्मानित किया, जिन्होंने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हजारों यहूदियों, रूसियों और अन्य अल्पसंख्यकों का नरसंहार करवाया था।

यूक्रेनी सरकार के आँकड़ों के अनुसार, 2014 से 2019 तक, लुहान्स्क और डोनेट्स्क के संयुक्त भौगोलिक क्षेत्र डोनबास में पाँच वर्षों के गृह युद्ध में 13,000 से अधिक लोग मारे गये थे और कम से कम 28,000 घायल हुए थे। ये रूसी भाषी यूक्रेनियन थे जिन पर अपनी ही सरकार द्वारा कहर ढाया गया था, जिसके लिए यूक्रेन के नव–नाजी शासक जिम्मेदार थे। संयुक्त राज्य अमरीका ने इस नरसंहार में यूक्रेनी सरकार का पुरजोर समर्थन किया।

2019 के चुनाव में, यूक्रेन की जनता ने पोरोशेंको के खिलाफ भारी मतदान करके इस नरसंहार का विरोध किया। वर्तमान यूक्रेनी राष्ट्रपति व्लादिमिर जेलेंस्की को 73 प्रतिशत वोट मिले, जबकि पोरोशेंको को केवल 24 प्रतिशत।

जेलेंस्की ने पहले बढ़–चढ़कर शान्ति की बात की, लेकिन सत्ता में आने के बाद उसका सुर बदल गया। अपने पश्चिमी आकाओं के इशारे पर नाचते हुए उसने नव–नाजियों के कहर और गृह युद्ध का समर्थन करना जारी रखा।

यूक्रेनी सरकार सीधे नाजीवादियों द्वारा नहीं चलायी जाती है, लेकिन यूक्रेन में नाजीवादी ताकतों का राज्य में महत्त्वपूर्ण प्रभाव है। 2014 के अमरीकी समर्थित तख्तापलट के बाद, नव–नाजियों को यूक्रेन की सेना, पुलिस और सुरक्षा तंत्र में शामिल कर लिया गया था। यही कारण है कि चुनाव में भले ही उनको बहुत कम वोट मिलते हों, लेकिन राज्य की संस्थाओं और सुरक्षा बलों से इनको भरपूर समर्थन मिलता है।

2014 से 2022 तक, गृहयुद्ध के आठ वर्षों में यूक्रेन में नाजीवादियों की स्थिति काफी मजबूत हुई। जेलेंस्की यहूदी है, लेकिन वहाँ राज्य सुरक्षा तंत्र में नव–नाजियों का प्रबल प्रभाव है। उन्होंने सेना और पुलिस में सुनियोजित तरीके से घुसपैठ की है और उन्हें पश्चिमी साम्राज्यवादी सरकारों और नाटो से सहयोग और प्रशिक्षण भी मिलता है।

जेलेंस्की अमरीका और नाटो की सभी शर्तों का आँख मूँद कर पालन करता है, चाहे अपने चुनावी वादों के विपरीत यूक्रेन में गृह युद्ध जारी रखना हो, नाटो सदस्यता का समर्थन करना हो, 2015 के मिन्स्क समझौते की अनदेखी करनी हो, या पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों से युद्ध सामग्री खरीदना हो। जाहिर है कि इन सभी शर्तों का मकसद रूस की सामरिक घेरेबन्दी और यूरेशिया में नाटो की पैठ बढ़ाना है।

ऊपर जितने तथ्य दिये गये हैं उनके आलोक में यह समझना कठिन नहीं कि रूस ने यूक्रेन पर सुरक्षात्मक हमला किया है, क्योंकि अमरीकी खेमे और नाटो ने उसे धक्के मारते–मारते दीवार से सटा दिया जिससे पीछे जाना सम्भव ही नहीं था। युद्ध छिड़ने के बाद नाटो गठबन्धन ने यूक्रेन के साथ क्या किया, किस तरह पुदीने की डाल पर चढ़ाकर हाथ खींच लिया, यह जगजाहिर है। क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि वे सीधे रूस के खिलाफ मोर्चे पर खड़े हों और तीसरे युद्ध को न्योता दें, जो तय है कि नाभिकीय महायुद्ध होता।

रूस हमला कर रहा है और अमरीकी खेमा प्रतिबन्ध लगा रहा है, डॉलर के मुकाबले रूस का रूबल ऊँचा उठ रहा है, उसका खनिज तेल बिक रहा है, उसका खोया हुआ आत्मविश्वास वापस आ रहा है।

लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि यह युद्ध साम्राज्यवादी गुटों के बीच का युद्ध है। यह एकधु्रवीय विश्व व्यवस्था के भीतर उथल–पुथल का इजहार है। यह युद्ध बदलते विश्व शक्ति सन्तुलन की ओर एक महत्त्वपूर्ण संकेत है। यानी, दुनिया अब उसी ढर्रे पर, अमरीकी चैधराहट वाले एकधु्रवीय विश्व व्यवस्था के ढर्रे पर नहीं चलेगी जिस पर 1990 के बाद उसे चलाने का दावा और प्रयास किया जा रहा था।

पहले विश्व युद्ध के दौरान लेनिन ने कहा था, “यह युद्ध किस लिए लड़ा जा रहा है, जो इनसानियत को बेपनाह तकलीफ दे रहा है ? युद्ध में शामिल हर देश की सरकार और पूँजीपति वर्ग, लोगों का ध्यान भटकाने के लिए समाचार पत्रों पर लाखों रूबल बर्बाद कर रहे हैं ताकि दुश्मन पर इल्जाम लगाया जा सके, दुश्मन के प्रति लोगों के मन में नफरत पैदा किया जा सके, और झूठ का अम्बार खड़ा किया जा सके ताकि खुद को इस रूप में चित्रित किया जा सके, कि उस पर अन्यायपूर्ण तरीके से हमला किया गया है और अब वह अपना “बचाव” कर रहा है। वास्तव में, यह लुटेरी महाशक्तियों के दो समूहों के बीच एक युद्ध है, और यह उपनिवेशों के बँटवारे, दूसरे राष्ट्रों को गुलाम बनाने और विश्व बाजार में अपने फायदे और सहूलियतों के लिए लड़ा जा रहा है। यह सबसे प्रतिक्रियावादी युद्ध है, आधुनिक गुलाम–मालिकों का युद्ध है जिसका उद्देश्य पूँजीवादी गुलामी को बचाना और मजबूत करना है।” मेरी राय में यही आज भी हो रहा है।

पूँजीवाद के साम्राज्यवादी युग में प्रवेश करने के बाद से ही दुनियाभर में अपना प्रभुत्व कायम करने तथा बाजारों और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा जमाने के लिए साम्राज्यवादी देशों और उनकी खेमेबंदियों द्वारा दुनिया की शान्तिप्रिय जनता पर निरन्तर युद्ध थोपा जाता रहा है। यूक्रेन पर रूसी हमला भी अमरीकी साम्राज्यवादी खेमे और उभरते रूसी साम्राज्यवाद के बीच वर्चस्व की लड़ाई है।

जब तक दुनिया में एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का और एक आदमी द्वारा दूसरे आदमी का शोषण जारी रहेगा, तब तक विश्व शान्ति असम्भव है। शोषण मुक्त विश्व ही युद्ध और नरसंहार से मुक्त विश्व होगा।

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रूस–यूक्रेन युद्ध और उसके विश्वव्यापी प्रभावों को विस्तार और गहराई से समझने के लिए इस अंक के अन्त में तीन तथ्यपूर्ण लेख दिये गये हैं–– 

(1) रूस–चीन धुरी और अमरीकी खेमे के बीच बढ़ती दुश्मनी के भावी परिणाम,

https://deshvidesh.net/entries/view/consequences-growing-hostility-between-russia-china-axis-us-camp

(2) पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने यूक्रेन युद्ध को अपरिहार्य बना दिया और 

https://deshvidesh.net/entries/view/western-imperialists-make-ukraine-war-inevitable

(3) यूक्रेन संकट : अमरीकी चौधराहट वाली विश्व व्यवस्था में चौड़ी होती दरार

https://deshvidesh.net/entries/view/ukraine-crisis-rift-american-chauvinistic-world-order

उम्मीद है कि उनके आलोक में इस युद्ध को समझने में हमारे पाठकों को सहूलियत होगी।