किसान विरोधी, जन विरोधी तीन काले कृषि कानूनों के खिलाफ किसान संगठनों का अभूतपूर्व ऐतिहासिक आन्दोलन, जो 26 नवम्बर को दिल्ली के सिंघू बॉर्डर से शुरू हुआ, अब गाजीपुर, टीकरी, शाहजहाँपुर और पलवल तक फैल गया है और उसे शुरू हुए डेढ़ महीने से ज्यादा समय बीत चुका है। आजादी के बाद की यह सबसे विराट, सबसे सुसंगठित किसान जत्थेबन्दी है। राजधानी दिल्ली के चारों ओर लाखों की संख्या में टैªक्टर–ट्राली और तम्बुओं में किसान शरण लिये हुए हैं और कड़कती ठण्ड, बारिश, कोहरे और शीतलहर के बावजूद इनकी संख्या दिनों–दिन बढ़ती जा रही है। मौसम की मार और कठिन परिस्थितियों के चलते अब तक इस आन्दोलन में 50 से भी ज्यादा किसान अपनी शहादत दे चुके हैं। इसके बावजूद किसानों के इरादे अडिग हैं। यह आन्दोलन केवल दिल्ली की सरहदों तक सीमित नहीं है, बल्कि पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश के इन आन्दोलनकारियों के समर्थन में सुदूर केरल, कर्नाटक, ओडिसा, पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात और मध्य प्रदेश सहित तमाम राज्यों के किसान भी उठ खड़े हुए हैं।

5 जून 2020 को मोदी सरकार द्वारा कृषि कानूनों से सम्बन्धित अध्यादेश जारी किये जाने के बाद से ही देश के कई हिस्सों में किसानों का छिटपुट आन्दोलन शुरू हो गया था। 20 सितम्बर को उन अध्यादेशों को कानून में बदल दिये जाने के बाद किसान आन्दोलन और तेज हो गया। 25 अक्टूबर को दशहरे के दिन पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के लगभग 1,100 स्थानों पर रावण की जगह मोदी के पुतले जलाये गये। अब तक के इतिहास में यह अनोखी घटना है जब रावण के बदले किसी प्रधानमंत्री का पुतला फूँका गया हो। कई स्थानों पर पीएम मोदी के साथ–साथ बड़े सरमायेदार मुकेश अम्बानी और गौतम अडानी के पुतले भी जलाये गये जो आज किसानों की गाढ़ी कमाई को मुनाफे में बदलने और उनको जमीन से बेदखल करने के मंसूबों का प्रतीक बन गये हैं। अब तक लगभग 13,000 ग्राम पंचायतों ने इन तीन कृषि कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव पारित किये हैं। किसानों ने मोदी, अडानी और अम्बानी के मुखौटे लगाकर अपने खेतों में बिजूखे खड़े कर दिये। पूरे पंजाब में किसानों ने रिलायंस मार्ट की दुकानों के शटर बन्द करवाये और लाखों की संख्या में जियो के सिम तोड़कर अपना विरोध प्रदर्शित किया। धान की कटाई और गेहूँ की बुआई के सबसे व्यस्त मौसम में भी किसानों का रेल रोको आन्दोलन लगातार जारी रहा।

किसान संगठनों के साथ दो चक्र की वार्ताओं से जब कोई नतीजा नहीं निकला तो नवम्बर के आखिरी सप्ताह में पंजाब के आन्दोलनकारी किसानों ने दिल्ली की ओर कूच किया। हरियाणा–पंजाब बॉर्डर पर किसानों को रोकने के लिए खट्टर सरकार ने सड़कें काटकर बड़ी खाइयाँ खोद दी। लोहे और कंक्रीट के भारी–भरकम बैरिकेड, कंटीले तारों की बाड़, गटर से लाये गये गन्दे पानी की तेज बौछार, पुलिस की लाठियों और आँसू गैस के गोलों का अपने फौलादी इरादों से सामना करते हुए किसान ट्रैक्टर–ट्रालियों के काफिले के साथ दिल्ली के सिंघू बॉर्डर पर आ डटे और दिल्ली पुलिस के बैरिकेड को तोड़कर वहीं डेरा डाल दिया। बर्बर दमन और आन्दोलनकारी किसानों को पुलिस के दम पर रोकने का सरकारी मनसूबा धरा का धरा रह गया। यह सारा भव्य दृश्य किसान संघर्षों के बेमिसाल इतिहास में दर्ज हो गया।

कोरोना माहामारी के दौरान “आपदा को अवसर में बदलने वाली” बेहया सरकार ने कोरोना काल में ही कृषि कानूनों को संसद में बहस कराये बिना पास करा दिया। लेकिन उन्हीं कानूनों के खिलाफ किसान आन्दोलन को रोकने के लिए सरकार ने कोरोना का बहाना बनाकर धरना–प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी। कोरोना काल में ही भाजपा के नेता बड़ी–बड़ी चुनावी रैलियाँ करते रहे और हजारों बार महामारी कानून की धज्जियाँ उड़ाते रहे। सरकार के इस दो मुँहेपन और ढोंग–पाखण्ड का मुँहतोड़ जवाब किसानों ने दिया और कोरोना के भूत को पैरों तले रौंदते हुए, तमाम दमन–उत्पीड़न झेलते हुए आखिरकार 26 नवम्बर को राजधानी की सरहद पर अपना डेरा डाल दिया।

भाजपा और उसके समर्थकों ने इस आन्दोलन को धनी किसानों और व्यापारियों तथा सिर्फ पंजाब तक सीमित आन्दोलन बताकर बदनाम करने की कोशिश की। यह सही है कि आन्दोलन की शुरूआत पंजाब के किसानों ने की, लेकिन देखते ही देखते उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखण्ड, राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के किसानों के जत्थे दिल्ली बॉर्डर पर पहुँचने लगे। यही नहीं इस आदोलन के समर्थन में किसानों के विभिन्न तबके, दलित–शोषितों और खेत मजदूरों के संगठन, गुरुग्राम की मजदूर यूनियनें, ट्रांसपोर्टर यूनियन, कर्मचारी संगठन, छात्रों–नौजवानों के संगठन, महिला संगठन और जाने–माने खिलाड़ी, गायक, कलाकार, बुद्धिजीवी, साहित्यकार और पत्रकार भी आकर खड़े होने लगे। इसी दौरान ख्यातिलब्ध कृषि वैजानिक, डॉक्टर वरिन्दर पाल सिंह ने केन्द्रीय रासायन और उर्वरक मंत्री के हाथों पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया और कहा कि जब सरकार किसानों को अनावश्यक कष्ट पहुँचा रही है तो मेरी अन्तरात्मा मुझे पुरस्कार लेने से रोक रही है। पंजाबी भाषा के वरिष्ठ कवि सुरजीत पात्तर ने किसान आन्दोलन के समर्थन में पद्म पुरस्कार लौटाने की घोषणा की। इसी के साथ–साथ अनेक खिलाड़ियों और पूर्व सैनिकों ने भी अपने मैडल लौटाने की घोषणा की। अलग–अलग पेशों से जुड़े लोगों के संगठनों, पूर्व प्रशासनिक अधिकारियों के संगठनों और सर्वोच्च न्यायालय की बार ऐसोशिएशन ने भी किसानों को समर्थन दिया। इस तरह किसान आन्दोलन ने जल्द ही देशव्यापी जनआन्दोलन का रूप ग्रहण कर लिया और इसे “सिर्फ पंजाब के धनी किसानों का आन्दोलन” कहकर बदनाम करने वालों को व्यवहार के जरिये करारा जवाब मिल गया।

भाजपा के सांसदों, विधायकों और मंत्रियों तक ने आन्दोलनकारी किसानों को खालिस्तानी, पाकिस्तानी, आतंकवादी और देशद्रोही कहकर बदनाम करने की भरपूर कोशिशें कीं। गोदी मीडिया ने भी दिन–रात किसानों के खिलाफ जहर उगला, उनको पिज्जा–बर्गर खाने वाले, पिकनिक मनाने आये, अंग्रेजी बोलने वाले, फैशनपरस्त बताते हुए यह प्रचारित किया कि ये लोग किसान हो ही नहीं सकते। दरअसल सरमायादारों और उनके नुमाइन्दों को ही नहीं बल्कि खाये–अघाये पत्रकारों, कलाकारों, चित्रकारों, फिल्मकारों, गीतकारों और उनके योजनाकारों, सिपहसालारों, पेज थ्री के चमकदारों, यानी हर तरह के मुफ्तखोरों को बदहाली के शिकार आत्महत्या करते किसानों की छवि बहुत ही भावपूर्ण और मनभावन लगती है। वे उनके ऊपर अपनी–अपनी प्रतिभा की छटा बिखेर कर धन कमाते हैं और इनाम पाते हैं। लेकिन वही किसान जब अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिए उठ खड़ा होता है तो उन परजीवियों के दिमाग में आदर्श किसान की वह बनी–बनायी छवि बिखर जाती है। उन्हें लगता है कि कोई खाता–पीता, साफ कपड़े पहना और समझदारी की बात करने वाला व्यक्ति भला किसान कैसे हो सकता है।

किसी भी आंदोलन को बदनाम करने और आन्दोलनकारियों का हौसला पस्त करने के लिए कुत्सा प्रचार और चरित्र हनन करना भाजपा नेताओं, गोदी मीडिया और भाजपा आईटी सेल की आजमायी हुई चाल है जो एनआरसी–सीएए आन्दोलन से लेकर हर जनआन्दोलन पर आजमाया जाता रहा है। लेकिन किसान आन्दोलन के खिलाफ उनका यह दाँव उलटा पड़ गया। किसान नेताओं, कार्यकर्ताओं और यहाँ तक कि आम किसानों और उनके समर्थकों ने भी उनके झूठ का पर्दाफाश किया और सोशल मीडिया के जरिये लोगों को गुमराह होने से बचाया। इस दौरान जन पक्षधर समानान्तर मीडिया का जितनी तेजी से विकास हुआ है वह अभूतपूर्व है। मुख्यधारा की मीडिया के दुश्प्रचार और झूठ–फरेब का मुकाबला करने के लिए हजारों की संख्या में समाचार वेबसाइट और यू ट्यूब चैनल किसान आन्दोलन के समर्थन में आगे आये हैं और कुल मिलाकर उनके दर्शकों की संख्या करोड़ों तक पहुँच गयी है। जन मीडिया का यह उभार इस आन्दोलन की बहुत बड़ी कामयाबी और खासियत है।

हरियाणा की खट्टर सरकार किसान आन्दोलन को दबाने के लिए बर्बरता की सारी हदें पार कर गयी और आज भी किसानों के काफिले पर आँसू गैस के गोले और लाठियाँ बरसा रही है। साथ ही खट्टर सरकार ने एक बेहद कुटिल और घृणित चाल चली। उसने सतलज–यमुना पानी के बँटवारे का दबा मुद्दा उखाड़ा और अपने कार्यकर्ताओं को हरियाणा के प्रमुख शहरों में धरने पर बैठाया ताकि हरियाणा और पंजाब के किसानों में वैमनस्य और फूट पैदा की जाये। लेकिन हरियााणा के किसानों ने अपनी जवाबी कार्रवाई में एक ही दिन में उस फर्जी आन्दोलन की हवा निकाल दी। हरियाणा के किसानों ने “पंजाब–हरियाणा भाईचारा जिन्दाबाद” का नारा दिया और पहले से भी ज्यादा जोशो–खरोश के साथ आन्दोलन में शामिल हो गये जबकि किसान आन्दोलन के नेताओं और उनके समर्थक मीडिया कार्यकर्ताओं ने “फूट डालों राज करो” की इस कुटिलता का जमकर भण्डाफोड़ किया।

इस आन्दोलन में भारी पैमाने पर महिलाओं की भागेदारी इसकी बहुत बड़ी खासियत है, जो आन्दोलन के मंच और सोशल मीडिया चैनलों पर कृषि कानून के खिलाफ और आन्दोलन के समर्थन में प्रभावशाली ढंग से अपनी बात रखती हैं। साथ ही वे धरना स्थल के प्रबन्धन में भी बढ़–चढ़कर हिस्सा लेती हैं। इनमें ऐसी किसान कार्यकर्ता महिलाएँ भी हैं जो लम्बे समय से किसान संगठनों में सक्रिय भूमिका निभाती आ रही हैं।

किसान आन्दोलन के केन्द्र में, यानी अलग–अलग धरना स्थलों पर जो शानदार इतिहास रचा जा रहा है उससे कहीं ज्यादा परिधि पर घटित हो रहा है। गाँव–गाँव में किसान कानूनों पर चर्चा हो रही है, आन्दोलन के लिए चन्दा जुटाया जा रहा है, अपने परिवार और बाल–बच्चों समेत लोग झुण्ड के झुण्ड पूरे जोशो–खरोश में आन्दोलन में शामिल होने के लिए निकल रहे हैं। पंजाब के गाँवों में शादी में गाये जाने वाले गिद्धा लोक–गीतों में भी आन्दोलन के समर्थन में बोल बोले जा रहे हैं। लोक मानस में यह आन्दोलन लोक पर्व का रूप ग्रहण कर चुका है और सृजनशीलता के नये द्वार खोल रहा है। बच्चे कविता, गीत और भाषण तैयार करके आन्दोलन के मंच से उनकी प्रस्तुति दे रहे हैं और आन्दोलन में इन्द्रधनुषी रंग भर रहे हैं। शहरों–कस्बों की सांस्कृतिक टोलियाँ और गाँवों के लोक गायक अपनी मण्डली के साथ गीत तैयार कर रहे हैं, जिनकी प्रस्तुतियाँ इस सर्द मौसम में गर्माहट और जोश भर रही हैं।

यह आन्दोलन इस मायने में भी पहले के तमाम किसान आन्दोलनों से अलग है कि इसका नेतृत्व किसानों के किसी मसीहा के हाथ में, किसी चमत्कारी–नामधारी नेता के हाथ में नहीं है। पहले के आन्दोलन महेन्द्र सिंह टिकैट, ननजुंदा स्वामी, शरद जोशी के नाम से जाने जाते थे और उनका स्वरूप भी इलाकाई होता था। लेकिन मौजूदा किसान आन्दोलन किसान संगठनों के संयुक्त मोर्चे और समन्वय समिति के नेतृत्व में लड़ा जा रहा है। यह एकता लम्बे दौर की व्यवहारिक कार्रवाइयों के दौरान आपसी तालमेल, बहस–मुबाहिसे और आम सहमति के जरिये मजबूत हुई है जहाँ सामूहिक निर्णय और व्यक्तिगत जिम्मेदारी के आधार पर काम होता है।

आन्दोलन की सभी विशेषताओं से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है इस आन्दोलन की माँग, जो इसे पहले के तमाम किसान आन्दोलनों से कहीं ज्यादा व्यापक और गहरा करार देती है। पहले के आन्दोलनों को हम 1990 के पहले और उसके बाद के चरण में, यानी नेहरू मॉडल और साम्राज्यवादी वैश्वीकरण या नवउदारवादी मॉडल के दौर में बाँटकर देखें तो पहले चरण में किसानों की माँगें, सरकारी नीतियों को लागू कराने की माँग के इर्द–गिर्द सीमित होती थी। 1990 के बाद निजीकरण, उदारीकरण की नयी आर्थिक नीतियाँ लागू होने के चलते खेती की लागत बढ़ती गयी। उस खर्च की पूर्ति के लिए किसानों पर कर्ज का बोझ बढ़़ता गया और नकदी फसलों की कीमत दुनिया के बाजारों में उतार–चढ़ाव की भेंट चढ़ने लगी। यह वही दौर था जब अकाल या सूखे के चलते नहीं बल्कि अच्छी फसल होने के बावजूद सही कीमत न मिलने के चलते किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला शुरू हुआ। हालाँकि उस दौर में भी किसान आन्दोलन की माँग स्थानीय और तात्कालिक ही होती थी जैसे गन्ना, कपास या अन्य नकदी फसलों या गेहूँ–धान के समर्थन मूल्य बढ़ाने की माँग, बिजली बिल माफी या कर्ज माफी की माँग। किसान संगठनों के एजेण्डे में विश्व व्यापार संगठन के दबाव में बनने वाली साम्राज्यवादपरस्त नीतियों का विरोध अभी नहीं आया था। लेकिन जून 2020 से शुरू हुए मौजूदा किसान आन्दोलन के एजेण्डे पर मोदी सरकार के तीन काले कानूनों को पूरी तरह रद्द किये जाने की माँग सर्वोपरी है। दरअसल विश्व व्यापार संगठन द्वारा प्रस्तावित खेती के कॉरपोरेटीकरण की टुकड़े–टुकड़े में बना यी गयी नीतियों को मोदी सरकार ने इन तीन काले कानूनों में मुकम्मिल तौर पर शामिल कर लिया। किसान नेताओं ने यह बात स्पष्ट रूप से सामने रखी है कि यह खेती को कॉरपोरेट घराने के हवाले करने और किसानों को देशी–विदेशी पूँजीपतियों के जुए के नीचे जोतने की एकमुश्त और मुकम्मल नीति है। यही कारण है कि आन्दोलनकारी किसान इन कानूनों में सतही सुधारों के सरकारी प्रस्ताव को हर चक्र की वार्ता में ठुकरा चुके हैं और इन तीन काले कानूनों को पूरी तरह वापस लिये जाने की माँग पर अभी तक डटे हुए हैं।

दरअसल इन तीनों कृषि कानूनों को एक साथ मिलाकर ही इसके भावी खतरों को समझा जा सकता है। पहला कानून सरकारी मण्डियों और सरकारी खरीद की जगह निजी अनाज व्यापारियों को बढ़ावा देने वाला है। इसके रहते न्यूनतम समर्थन मूल्य का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। इसी साल खरीफ की फसलों की हालत यह थी कि मक्के का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2150 रुपये प्रति क्विण्टल तय हुआ था जबकि मक्का 1200 से 1600 रुपये के बीच बिक रहा था और बाजरा भी अपने न्यूनतम समर्थन मूल्य 2150 रुपये की जगह 1300 से 1400 रुपये के बीच बिक रहा था। यही हाल काला चना, सोयाबीन और धान की कीमतों का भी था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस कानून के बनने से कृषि उपज बाजार पर निजी पूँजीपतियों का एकाधिकार कायम हो जायेगा। दूसरा कानून ठेका खेती के जरिये किसानों को कॉरपोरेट के कब्जे में कर देगा और उनको जमीन से बेदखल करने की ओर ले जायेगा जबकि तीसरा कानून जीने के लिए जरूरी कृषि उपजों की जमाखोरी, कालाबाजारी और सट्टेबाजी को बढ़ावा देता है और पहले से ही जर्जर खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल देता है। दरअसल यह तीसरा कानून ही देश की व्यापक जनता को किसान आन्दोलन के पक्ष में खड़ा होने के लिए पे्ररित करता है जिसके चलते अनाज की खरीद, भण्डारण, प्रसंस्करण और विपणन के ऊपर मुट्ठी–भर निजी पूँजीपतियों का एकाधिकार कायम करने वाला है। इसके चलते पहले से ही भुखमरी के शिकार लोगों की थाली से चावल, दाल, खाद्य तेल और आलू–प्याज जैसी जरूरी चीजें भी गायब हो जाएँगी।

यह विडम्बना ही है कि कुछ जन पक्षधर कहे जाने वाले लोग किसान आन्दोलन का इसलिए विरोध कर रहे हैं कि यह कृषि उपज में अपने मुनाफे का हिस्सा बढ़ाने के लिए सम्पत्तिशाली किसानों की कॉरपोरेट पूँजी के खिलाफ मित्रतापूर्ण लड़ाई है। उनकी राय में मजदूर वर्ग का शोषण करने वाले किसानों की इस लड़ाई में हिस्सेदारी करना या समर्थन करना राजनीतिक रूप से गलत है। इसमें कोई दो राय नहीं कि किसान और मजदूर दो वर्ग, दो ऐतिहासिक श्रेणियाँ हैं जिनके बीच अन्तरविरोध भी निर्विवाद है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि किसान एक मिश्रित समुदाय है जिसके अन्तर्गत कई वर्ग हैं। उनके अलग–अलग आर्थिक हित हैं और उनके बीच हितों का टकराव भी मौजूद है, उसके एक छोर पर भूमिहीन खेत मजदूर हैं तो दूसरे छोर पर बड़ी जोत वाले धनी किसान हैं और उनके बीच मध्यम, लघु और सीमान्त किसान हैं। धनी किसान को छोड़कर बाकी सभी वर्गों की संख्या किसान आबादी का 90 प्रतिशत से अधिक है। धनी किसान की खेती मजदूरों पर निर्भर होती है जबकि मध्यम, लघु और सीमान्त किसान खुद अपने और अपने परिवार की मेहनत से खेती करते हैं। जाहिर है कि इन अलग–अलग किस्म के किसानों के आर्थिक हित एक समान नहीं है। पहले के किसान आन्दोलनों में यह आर्थिक बँटवारा ही किसानों की आन्दोलन में भागेदारी सुनिश्चित करता था। धनी किसानों का जोर उपज की कीमत बढ़ाने की माँग पर होता है, जबकि बहुसंख्य सीमान्त और लघु किसानों का मसला कृषि लागत का महँगा होना और कर्जजाल में फँसना होता है। खेत मजदूर किसानों की ऐसी किसी भी माँग के साथ नहीं आते हैं क्योंकि उनको न तो लागत बढ़ने से परेशानी है और न ही समर्थन मूल्य ज्यादा होने से कोई लाभ होता है। लेकिन तीन काले कानूनों के खिलाफ मौजूदा आन्दोलन में उन सभी वर्गों के हित और उनकी माँगे एक हैं क्योंकि तीनों कानूनों को समग्रता में देखें तो यह सभी किस्म के किसानों, खेत मजदूरों और यहाँ तक कि गैर खेतीहर समुदायों के भी खिलाफ है। किसान आन्दोलन में सभी वर्गों और तबकों की बढ़चढ़कर भागीदारी और समर्थन का यही आर्थिक आधार है। लेकिन मौजूदा किसान आन्दोलन का विरोध करनेवाले जन पक्षधर बुद्धिजीवी चीजों को टुकड़े–टुकड़े में देख रहे हैं और संकीर्णतावादी गलती कर रहे हैं। वे भारतीय समाज की वर्गीय सच्चाई के एक अंश की समझदारी तो रखते हैं, लेकिन वे या तो भारत की जनता के साम्राज्यवादी उत्पीड़न को नहीं देखते या उसे कम करके आँकने की गलती करते हैं।   

लेकिन इन बातों के अलावा भी किसान आन्दोलन के विरोध में खड़े लोगों के लिए कुछ असुविधाजनक सच्चाइयाँ हैं जो भारतीय समाज के ऊपर इतिहास द्वारा आरोपित हैं। मसलन हम एक ऐसे देश में जी रहे हैं जो पूँजीवाद के दौर में प्रवेश करने से पहले ही गुलाम हो गया था। यहाँ पूँजीवाद तब पैदा हुआ जब विश्व पूँजीवाद अपने जर्जर बुढ़ापे यानी साम्राज्यवाद के दौर में प्रवेश कर चुका था। तभी से हमारे देश की उत्पादक शक्तियों का विकास अंग्रेज उपनिवेशवादियों के स्वार्थ से संचालित होने लगा था जो इस राह में सौ–सौ रोड़े अटकाते थे। उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ने वाले हमारे पूँजीवादी शासकों ने आजादी के बाद अपनी वर्गीय सीमाओं के चलते रेडिकल भूमि सुधार के बिना ही पूँजीवाद का एक अधकचरा रास्ता अपनाया। बौने विकलांग पूँजीवाद की यह परियोजना 1990 तक आते–आते ध्वस्त हो गयी। उसके बाद हमारे शासकों ने भी स्वावलम्बी आर्थिक विकास और आत्मनिर्णय के अधिकार को तिलांजली देकर एक धु्रवीय वैश्विक अर्थव्यवस्था और अमरीकी चैधराहट के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। देशी–विदेशी पूँजी के गठजोड़ से आर्थिक उपनिवेश बनाने की एक विश्वव्यापी परियोजना के साथ नत्थी हो गये जो विश्व बैंक, मुद्रा कोष और आगे चलकर विश्व व्यापार संगठन द्वारा पूरी दुनिया पर थोपी गयी। 1991 की आर्थिक नीति से लेकर अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की ढाँचागत समायोजन नीति, आयात विस्थापन नीति की जगह निर्यात केन्द्रित अर्थव्यवस्था बनाने की नीति और अब मोदी सरकार के दूसरे–तीसरे चरण के सुधार इसी सिलसिले की कड़ी हैं। इन तीन नये कृषि कानूनों के साथ ही श्रम कानूनों में बदलाव की भी यही पृष्ठभूमि है।

जो लोग इन ऐतिहासिक विकृतियों और विडम्बनाओं को ध्यान में रखे बगैर, भारतीय समाज की जटिलता को ध्यान में रखे बगैर, विशुद्ध आर्थिक सिद्धान्तों की कसौटी पर विशुद्ध अवस्थिति अपना रहे हैं और मौजूदा किसान आन्दोलन को सिर्फ धनी किसानों का आन्दोलन और न्यूनतम समर्थन मूल्य की लड़ाई बताते हुए खारिज कर रहे हैं, वे दरअसल मोदी सरकार की इन नीतियों और खेती के कॉरपोरेटीकरण का चाहे–अनचाहे समर्थन कर हैं। जैसा कि पहले ही कहा गया है कि इन तीन कृषि कानूनों को एक साथ मिलाकर देखें तो यह समझना कठिन नहीं कि दरअसल यह आन्दोलन नवउदारवादी कृषि नीतियों के खिलाफ, देशी–विदेशी एकाधिकारी पूँजीपतियों के गठजोड़ के खिलाफ देश के मेहनतकशों की साझी लड़ाई है जिसका नेतृत्व आज किसान संगठनों के संयुक्त मोर्चे और सैकड़ों की संख्या में छोट–बड़े किसान संगठन कर रहे हैं।

इस आन्दोलन में शामिल ज्यादातर किसान यूनियनें काफी हद तक जनता के अपने और सच्चे संगठन की कसौटी पर खरी उतरती हैं। यही यूनियनें किसान मोर्चा और इस आन्दोलन की असली ताकत हैं जो तमाम स्वत:स्फूर्त और प्रायोजित आन्दोलनों से इन्हें अलग करती हैं, जैसे अन्ना हजारे का भ्रष्टचार विरोधी आन्दोलन या समय–समय पर लोकरंजक नारों के साथ शुरू हुए आन्दोलन। किसान आन्दोलन के नेता, कार्यकर्ता, समर्थक, आर्थिक स्रोत सब उनके अपने जन समुदाय के बीच से आते हैं, जैसे कोई विशाल वृ़क्ष जमीन में गहराई से धँसी और फैली हुई अपनी मजबूत जड़ों से जीवन रस जुटाकर पोषित और पुष्पित–पल्लवित होता है। मुद्दे, माँगे, नारे, हिकमत अव्वल, हिकमत अमली सब कुछ सामूहिक आम सहमति से तय होते हैं, जैसे कोई जन संगठन अपनी कतारों के साथ मछली–पानी का रिश्ता हमेशा बनाये रखता है। हालाँकि यह आन्दोलन 32 किसान यूनियनों के संयुक्त मोर्चे और लगभग 500 किसान संगठनों के समर्थन से चलाया जा रहा है लेकिन फिर भी उनमें न्यूनतम साझा कार्यक्रम के मुद्दे पर यानी तीनों काले कानूनों को पूरी तरह वापस लेने से कम पर कोई समझौता नहीं होगा, एक आम सहमति कायम है। इसी मामले में यह आजादी के बाद के किसी भी जन आन्दोलन से भिन्न है और अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है।

अब तक की नौ चक्र की वार्ताओं में सरकार की कुटिलता और झाँसापट्टी तथा आन्दोलनकारी किसानों के दृढ़ निश्चय को देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि किसान आन्दोलन अपनी माँगें मनवाने में सफल होगा या नहीं। इस आन्दोलन को हार–जीत के वैकल्पिक वस्तुनिष्ठ प्रश्नों से आगे जाकर देखना जरूरी है। इस ऐतिहासिक, अपूर्व और अनोखे किसान आन्दोलन ने भारतीय समाज और जनमानस को झकझोर कर जगा दिया है, निराशा, पस्तहिम्मती और निष्क्रियता के कोहरे को चीरकर एक नयी उष्मा और प्रकाश से भर दिया है। इसने एक नये महाप्रस्थान की पूर्वपीठिका लिख दी है, इतिहास को त्वरान्वित कर दिया है। अब हमारा देश, समाज और जनगण वैसा ही नहीं रह पायेगा, वहीं ठहरा नहीं रहेगा जहाँ इस आन्दोलन के शुरू होने से पहले था।