30 मई के अखबारों में प्रधान सेवक नरेंद्र मोदी का स्नेहीजन को सम्बोधित एक लम्बा पत्र प्रकाशित हुआ। अवसर था भाजपा सरकार के दूसरे कार्यकाल का, एक साल और कुल मिलाकर छह साल पूरा होना। उनका यह पत्र उन्हीं के शब्दों में स्नेहीजनों के “चरणों में प्रणाम करने और उनका आशीर्वाद लेने” तथा “लगातार दो बार बहुमत की सरकार को जिम्मेदारी सौंपकर भारतीय लोकतंत्र में एक नया स्वर्णिम अध्याय जोड़ने के लिए उनको नमन करने और प्रणाम करने” के इर्द–गिर्द ही मँडराता रहा।

जिस दिन यह पत्र प्रकाशित हुआ उस दिन तक देश में 67 दिन की तालाबन्दी के बावजूद कोरोना महामारी विकराल रूप धारण कर रही थी। उस दिन कोरोना संक्रमित मरीजों की कुल संख्या 1,65,799 तक पहुँच गयी थी और  दिन में सबसे ज्यादा 7,466 मामले सामने आये थे। उसी दिन महामारी से मरने वाले लोगों की कुल संख्या 4,706 तक पहुँच गयी थी, जो चीन में कोरोना से मरने वाले 4,638 लोगों की तुलना में बहुत ज्यादा थी। इस महाविपदा की घड़ी में प्रधानमंत्री का सम्बोधन निश्चय ही इस महामारी से सम्बन्धित चुनौतियों और उनको हल करने की ठोस योजना पर केन्द्रित होना चाहिए था। लेकिन इस विकट स्थिति और कटु सच्चाइयों से आँख चुराते हुए अपने पत्र में “ताली–थाली बजाने और दिया जलाने से लेकर जनता कर्फ्यू और देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान नियमों का निष्ठा से पालन” करने के लिए स्नेहीजनों का आभार जताते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि “भारत आज अन्य देशों की तुलना में ज्यादा सम्भली हुई स्थिति में है,” और यह कि “भारत ने अपनी एकजुटता से कोरोना के खिलाफ लड़ाई में पूरी दुनिया को अचम्भित किया है,” इत्यादि। कोरोना महामारी के उपरोक्त आँकड़ों के साथ प्रधानमंत्री की इन मनभावन बातों का क्या कोई मेल है?

दरअसल, इस पत्र में केन्द्र सरकार की उपलब्धियों का बखान किया गया है, जिनमें कश्मीर में धारा 370 हटाने, राम मन्दिर की बाधाओं को हटाने, तीन तलाक के खिलाफ कानून बनाने, जीएसटी लागू करने, नागरिकता कानून में परिवर्तन जैसे कानूनी बदलावों तथा गरीबों को गैस सिलेण्डर देने और शौचालय बनाने जैसी योजनाएँ प्रमुख हैं। हालाँकि इस पत्र में नोटबन्दी जैसे विनाशकारी फैसले का कोई जिक्र नहीं है। विपत्ति की इस घड़ी में प्रधानमंत्री के आत्ममुग्ध और आत्मप्रशंसा से भरे इस पत्र में जिन उपलब्धियों की बात की गयी है, उनकी असलियत किसी से छिपी नहीं है। यहाँ इन सब पर चर्चा करने का स्थान नहीं, लेकिन उनमें से एक उपलब्धि–– नागरिकता संशोधन कानून जिसे प्रधानमंत्री ने भारतीय करुणा का प्रतीक बताया है, उसे रेखांकित करना जरूरी है।

नागरिकता संशोधन कानून भारतीय संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है। इसके खिलाफ देश भर में आन्दोलन हुए, जिनकी शुरुआत दिल्ली के शाहीन बाग की महिलाओं ने की थी। इसके जवाब में नागरिकता कानून के समर्थकों द्वारा दिल्ली में दंगे भड़काये गये, जिसमें सैकड़ों लोग हताहत हुए और हजारों परिवार तबाह हुए। सरकार ने देश भर में आन्दोलनकारियों का बर्बर दमन किया, उन पर लाठी–गोली चलाई गयी और संगीन आपराधिक मुकदमों में उन्हें जेल भेजा गया। और तो और, लॉकडाउन का लाभ उठाकर इस आन्दोलन में शामिल कार्यकर्ताओं और छात्र–छात्राओं को फर्जी मुकदमे में गिरफ्तार करने का सिलसिला आज भी जारी है। निश्चय ही यह भारत की करुणा का नहीं, बल्कि मौजूदा सरकार की नृशंसता और क्रूरता का प्रतीक है।

पिछले 3 महीनों की तालाबन्दी के दौरान देश ने कोरोना बीमारी का जितना कहर नहीं झेला, उससे कहीं ज्यादा आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक तबाही का सामना किया और आज भी कर रहा है। सरकार ने जिस तरह बिना तैयारी और पूर्व चेतावनी के अचानक तालाबन्दी की घोषणा कर दी, उसने देश भर में अफरा–तफरी और बदहवासी का माहौल पैदा कर दिया। करोड़ों लोगों की रोजी–रोटी छिन गयी, लाखों की संख्या में मजदूर सैकड़ों मील की पैदल यात्रा पर अपने घरों की ओर चल पड़े। यह इतिहास की एक अभूतपूर्व त्रासदी थी जिसकी पीड़ा–व्यथा, परेशानी और मौत की दिल दहला देनेवाली अकथ कहानी हर रोज सोशल मीडिया और अखबारों में आती रही। जनता पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा। मुसीबत की इस घड़ी में घर लौटते प्रवासी मजदूरों के प्रति केन्द्र और राज्य सरकारों का रवैया बेहद कठोर और उपेक्षापूर्ण रहा। रोजी–रोजगार गवाँ चुके, अभावग्रस्त मजदूरों को किसी भी तरह की सहायता सरकारों ने नहीं दी। केरल सरकार को छोड़कर किसी ने प्रवासी मजदूरों को आश्वस्त नहीं किया कि वे जहाँ हैं वहीं रहें, उनके रहने–खाने की जिम्मेदारी सरकार की है। मजदूर अपने दूर–दराज के गाँवों से शहरों में रोजी–रोटी की तलाश में आये थे। अचानक लॉकडाउन और काम छूटने के बाद वे पूरी तरह बेसहारा हो गये। सरकार की नीतियों से उनका भरोसा टूट गया और वह अपने दम पर कठिन और जानलेवा सफर पर निकल पड़े। सरकार ने उनकी कोई मदद नहीं की। उल्टे कई जगह उनके ऊपर बर्बर अत्याचार किये गये। भूख–प्यास, थकान, बीमारी और दुर्घटना के चलते सैकड़ों लोगों की मौत के बाद उनकी ओर सरकार का ध्यान गया, लेकिन उपेक्षा और हिला–हवाली फिर भी जारी रही। जो श्रमिक स्पेशल ट्रेनें चलायी गयीं, वे दो दिन की जगह सात–आठ दिनों में मंजिल तक पहुँचीं और एक ट्रेन तो भटक कर गोरखपुर की जगह राउरकेला चली गयी। रेलवे सुरक्षा बल (आरपीएफ) के मुताबिक 7 मई से 27 मई के बीच इन ट्रेनों में 80 लोगों की मौत हुई है। इस बीच लॉकडाउन के दौरान लोगों की मौत का सिलसिला अभी थमा नहीं है। जिंदल ग्लोबल स्कूल और सिराक्युज विश्वविद्यालय के दो प्रोफेसरों ने मीडिया रिपोर्टों के आधार पर 24 मई तक अनियोजित लॉकडाउन के चलते मरने वाले प्रवासी मजदूरों की एक सूची तैयार की जिसमें 667 लोगों की मौत का ब्यौरा है। इनमें भुखमरी से 114, सड़क हादसे से 205, बीमारी और इलाज की कमी से 54, थकान से 42, पुलिस की क्रूरता से 12, खुदकुशी से 50, डर और अकेलेपन से 120 और अन्य कारणों से 70 मजदूरों की मौत दर्ज है। जाहिर है कि यह आँकड़ा वास्तविकता से कम है क्योंकि सभी मौतें मीडिया रिपोर्ट में नहीं आ पाती हैं। प्रधानमंत्री के पत्र में ऐसी किसी अशुभ या असुविधाजनक बातों का कोई जिक्र नहीं है, उनके प्रति शोक–संवेदना या अपने हड़बड़ी में लिये गये लॉकडाउन के फैसले पर अफसोस जाहिर करने की तो बात ही क्या।

प्रधानमंत्री के पत्र में अचानक लॉकडाउन की घोषणा के बाद विकराल रूप धारण करनेवाली बेरोजगारी की भी कोई चर्चा या चिन्ता नहीं है। प्रतिष्ठित सांख्यिकी संस्था सीएमआईई के अनुसार लॉकडाउन के दौरान सिर्फ अप्रैल के महीने में ही 11.4 करोड़ लोगों को अपना रोजी–रोजगार गँवाना पड़ा। इनमें से 9.1 करोड़ मजदूरों और 1.78 करोड़ कर्मचारियों की नौकरी चली गयी जबकि 1.8 करोड़ छोटे व्यापारियों और कारोबारियों का धन्धा चैपट हो गया। लेकिन इतनी बड़ी आर्थिक तबाही के शिकार इन करोड़ों लोगों के बारे में प्रधानमंत्री ने अपने लम्बे पत्र में एक शब्द नहीं लिखा। 14 अप्रैल के अपने सम्बोधन में उन्होंने नियोक्ता पूँजीपतियों से अनुरोध किया था कि लॉकडाउन के दौरान कोई भी कम्पनी किसी मजदूर या कर्मचारी को नौकरी से न निकाले। इसके बावजूद कम्पनियों ने न सिर्फ मजदूरों–कर्मचारियों को नौकरी से निकाला, बल्कि ज्यादातर ठेका मजदूरों को उनका बकाया वेतन भी नहीं दिया गया। और तो और, मालिकों की अपील पर सर्वाेच्च न्यायालय ने यह फैसला दे दिया कि केन्द्र सरकार ने तालाबन्दी के दौरान पूरा वेतन देने से सम्बन्धित 19 मार्च का जो आदेश जारी किया था उसको लागू नहीं करने वाले मालिकों पर कोई दण्डात्मक कार्रवाई नहीं होगी। इस फैसले से उन करोड़ों परिवारों पर कोरोना से भी कहीं ज्यादा जानलेवा मुसीबत पड़ी, जिनके जीने का रहा–सहा जरिया भी छिन गया।

प्रधानमंत्री के पत्र में अर्थव्यवस्था की तबाही के बारे में भी कोई ठोस बात नहीं कही गयी है। इस साल की पहली तिमाही (जनवरी–मार्च) में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 3.1 प्रतिशत रही जो पिछले 11 साल में सबसे कम थी। इसमें लॉकडाउन के सिर्फ 7 दिन ही शामिल हैं, यानी कोरोना संकट से पहले ही अर्थव्यवस्था का हाल बदहाल था। लॉकडाउन के बाद की स्थिति के बारे में रिजर्व बैंक ने नकारात्मक विकास दर की आशंका जतायी है। लेकिन प्रधानमंत्री के पत्र में इस गम्भीर आर्थिक संकट और इसके समाधान का कोई जिक्र नहीं है। पत्र में “अपने पैरों पर खड़ा होने” और “लोकल उत्पादों के भरोसे आयात पर निर्भरता कम करने” जैसे जुमलों के बाद “आर्थिक क्षेत्र में मिसाल कायम करने” और “दुनिया को चकित और प्रेरित करने” जैसी हवाई बातें जरूर हैं, लेकिन यह सब कैसे होगा इसकी कोई ठोस रूपरेखा नहीं है।

वैसे देखा जाये तो प्रधानमंत्री का यह पत्र कोरोना महामारी को लेकर उनकी सरकार के रवैये से पूरी तरह मेल खाता है। भारत में कोरोना का पहला मामला 21 जनवरी को इटली से राजस्थान लौटे एक व्यक्ति में मिला था। 24 मार्च को लॉकडाउन शुरू होने तक 500 मामले सामने आ चुके थे। उससे पहले सरकार कोरोना को लेकर बिल्कुल गम्भीर नहीं थी। संघ परिवार के संगठन और नेता गोमूत्र पिलाने का सार्वजनिक कार्यक्रम आयोजित कर रहे थे, यज्ञ–हवन कर रहे थे और एक से एक अजीबोगरीब नुस्खे सुझा रहे थे। इस बीच मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिराने के लिए विधायकों को अगवा करने और आखिरकार भाजपा की सरकार बनाने का काम जारी रहा। 24–25 फरवरी को अहमदाबाद में नमस्ते ट्रम्प के आयोजन में 1,00,000 लोगों की भीड़ जुटायी गयी थी। ऐसे में जिन देशों में कोरोना फैल चुका था, वहाँ से लोगों का भारत आना लगातार जारी रहा जिनकी जाँच या निगरानी का कोई खास इन्तजाम नहीं किया गया। महामारी को लेकर सरकार की लापरवाही का आलम यह था कि 13 मार्च को केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने बयान दिया था कि कोरोना संक्रमण के चलते भारत में स्वास्थ्य आपातकाल जैसी कोई स्थिति नहीं है। और उसके 5 दिन बाद ही, 18 मार्च को रात 8 बजे प्रधानमंत्री ने 22 मार्च को जनता कर्फ्यू लगाने तथा ताली और थाली बजाने का आह्वान किया जिसे उनके समर्थकों ने एक उत्सव में बदल दिया, जगह–जगह जुलूस निकाला और “गो कोरोना गो” के नारे लगाये। 2 दिन बाद 23 मार्च के सम्बोधन में प्रधानमंत्री ने अचानक लॉकडाउन की घोषणा कर दी जिसके बाद से ही पूरे देश में अफरा–तफरी मच गयी।

दरअसल लॉकडाउन, सामाजिक दूरी या मास्क पहनना कोरोना महामारी का कोई हल नहीं है। इसका असली समाधान जाँच, निदान और समुचित इलाज है। तालाबन्दी के अगले ही दिन से देश भर में चिकित्साकर्मियों, सफाईकर्मियों और अन्य कर्मचारियों के लिए निजी सुरक्षा उपकरण (पीपीई) और यहाँ तक कि मानक स्तर के मास्क की भी भारी कमी सामने आने लगी। घटिया उपकरणों का ऊँची कीमत पर आयात और शिकायत आने पर उनको निरस्त करने तथा उपकरणों की खरीद में घोटाले के मामले भी सामने आये। इसका नतीजा यह हुआ कि कई अस्पतालों के स्वास्थ्यकर्मी कोरोना पॉजिटिव पाये गये। इसका चरम रूप 3 जून को दिल्ली के एम्स में सामने आया जहाँ 19 डॉक्टरों और 38 नर्सों सहित 480 लोग कोरोना संक्रमित पाये गये। सरकार की बदइन्तजामी और लापरवाही का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है?

कोरोना काल में देश की लगातार विकट होती स्थिति और सरकार के उपेक्षापूर्ण रवैये के बारे में इस अंक में कई लेख दिये गये हैं, इसलिए उन पर विस्तार से बात करना यहाँ जरूरी नहीं है। असली सवाल यह है कि 135 करोड़ जनता के प्रति इस सरकार के हृदयहीन व्यवहार की वजह क्या है?

निश्चय ही सरकार की इस लापरवाही के पीछे नवउदारवादी नीतियों के प्रति उनकी घनघोर आस्था है। 1990 से दुनिया की अर्थव्यवस्था जिस नवउदारवादी, चरम पूँजीवादी रास्ते पर चल पड़ी है उसका एक ही मंत्र है–– मुनाफा, विकास का एक ही लक्ष्य है–– मुनाफा, सफलता का एक ही पैमाना है–– मुनाफा। हमारे देश में शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सामाजिक सेवाएँ पूरी तरह बाजार और मुनाफाखोरी के हवाले कर दी गयी हैं। ऐसी स्थिति में कोरोना महामारी से लड़ने के रास्ते में नवउदारवादी नीतियाँ ही सबसे बड़ी बाधा हंै, जिनको लागू करने वाले शासकों के लिए अपनी बहुसंख्यक जनता की जान से कहीं ज्यादा चिन्ता मुट्ठी भर मुनाफाखोरों की दौलत बढ़ाना है।

कोरोना से लड़ने के लिए जाँच उपकरण, मास्क, ग्लव्स, वेन्टीलेटर, अस्पताल के बेड इत्यादी का उत्पादन और उनका रखरखाव करना मोटे मुनाफे का धन्धा नहीं। कारण यह कि इनको तब तक गोदाम में रखना होता है जब तक कोई महामारी न फैले और इनकी जरूरत न आ पड़े। जिन पूँजीपतियों का उद्देश्य लगातार मुनाफा बटोरते रहना हो, वे ऐसे साधनों पर धन बर्बाद करने के बजाय ऐसे धन्धों में धन लगाते है जिससे भरपूर मुनाफा कमाया जा सके।

भारी मात्रा में आपातकालीन चिकित्सा उपकरणों का निर्माण, भण्डारण और रखरखाव का काम वही सरकार कर सकती है, जिसका लक्ष्य जन कल्याण हो, मुनाफा कमाना नहीं। इस पर जो भारी धन खर्च होता है और उसके बेकार हो जाने के चलते जो जोखिम उठाना पड़ता है उसे सरकार करदाताओं से वसूले गये सार्वजनिक कोष से वहन कर सकती है। लेकिन जिन देशों के शासकों ने नवउदारवादी लूटतन्त्र को अपना मन्त्र बना लिया, चाहे अमरीका हो, ब्रिटेन हो या भारत, उन्होंने अपनी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को निजी मुनाफे के हवाले कर दिया। यह काम रीगन–थ्रेचर के जमाने से होता आ रहा है। दूसरी ओर, जिन देशों की सरकारों ने जिस हद तक अपने खर्च पर जन–स्वास्थ्य का ढाँचा बरकरार रखा, वहाँ कोरोना महामारी का मुकाबला करना उतना ही आसान रहा। उदाहरण के लिए क्यूबा, ताइवान, चीन इत्यादि। हमारे देश में तो स्वास्थ्य सेवाओं का यह हाल है कि ऑक्सीजन के अभाव में सैंकड़ों बच्चे जापानी बुखार से मर जाते है, लाखों लोग ऐसी बीमारियों से मरते हैं जिनका इलाज बहुत आसानी से किया जा सकता है।

नवउदारवाद का अनुगमन करने वाली जिन सरकारों ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेदारी निजी मुनाफाखोरों को सौंप दी है और खुद आपातकालीन स्वास्थ्य उपकरणों का उत्पादन, भण्डारण और रखरखाव नहीं करती हैं, उनका रक्षा क्षेत्र के प्रति क्या रवैया होता है? क्या वे भारी तादात में टैंक, मिसाइल, रायफल लड़ाकू विमान और युद्ध सामग्री की खरीद, निर्माण, भण्डारण और रखरखाव या भारी धन नहीं खर्च करती हैं? अपने खर्च और जोखिम के दम पर वे साम्राज्यवादी देशों के विराट रक्षा उद्योगों का मुनाफा बढ़ाती हैं और इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर उचित ठहराया जाता है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा और छोटी–बड़ी महामारियों से अपनी जनता को बचाने के मामले में वे ऐसी मुस्तैदी क्यों नहीं दिखाती हैं?

नवउदारवाद की निगाह में निजी क्षेत्र देवता और सार्वजनिक क्षेत्र दानव है, लेकिन उनकी कोशिश हमेशा उन सरकारी क्षेत्र के उद्यमों को हथियानें में लगी रहती है जहाँ कम पैसे लगाकर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाया जा सके। सरकारें भी अपनी राज्य मशीनरी चलानेवाले कामों को छोड़कर, बाकी सभी आर्थिक गतिविधियाँ निजी मुनाफे के हवाले, बाजार के हवाले कर रही है, जिन पर कोई अंकुश न रहे और वे बेलगाम मुनाफा बटोरने के लिए आजाद हों।

कोरोना हमले के दौरान भारत ही नहीं, पूरी दुनिया ने इन नवउदारवादी नीतियों की भारी कीमत चुकायी है, जिनके तहत स्वास्थ्य सेवाएँ सरकार की जिम्मेदारी न होकर मुनाफे का धन्धा हो चुकी हैं, जिनके लिए लाखों लोगों की मौत भी कोई मायने नहीं रखती, जिनको सिर्फ अपने मुनाफे से मतलब है। हद तो यह है कि कोरोना काल में, जब कुछ देशों की सरकारों ने निजी स्वास्थ्य सेवाओं का सरकारीकरण किया और उन्हें आपदा के काल में तैनात किया, वहीं हमारे देश में सरकार इस दौरान भी स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण को आगे बढ़ाती रही। केन्द्र सरकार आज भी सरकारी मेडिकल कॉलेजों और जिला अस्पतालों के निजीकरण के काम को तेजी से आगे बढ़ा रही है। लॉकडाउन के दौरान ही केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्रालय ने सभी राज्यों के स्वास्थ्य सचिवों को निर्देश दिया कि वे जिला अस्पतालों के निजीकरण की रफ्तार तेज करें।

लॉकडाउन के दौरान करोड़ों रोजी–रोजगार गँवा चुके लोगों के लिए भुखमरी की समस्या कोरोना से कहीं ज्यादा जानलेवा साबित हुई है। रोज कमाने और घर चलनेवाले लोगों के लिए बेरोजगारी का एक ही मतलब है–– भुखमरी और मौत। लेकिन इस विकट समस्या के प्रति भी सरकार का रवैया बेहद खराब रहा है। सरकार चाहती तो एक भी आदमी भूखा नहीं रहता क्योंकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली और राशन दुकानों के रूप में इसका एक व्यापक ढाँचा हमारे देश में आज भी कायम है। केरल सरकार ने सबके लिए मुफ्त राशन की व्यवस्था करके इसे सफलतापूर्वक साबित भी कर दिया। लेकिन केन्द्र सरकार ने लोगों को भुखमरी से बचाने के लिए ठोस कदम उठाना तो दूर, इस रही–सही सार्वजनिक वितरण प्रणाली और खाद्य सुरक्षा को इसी दौरान नवउदारवाद की बलि–वेदी पर कुर्बान कर दिया।

प्रधानमन्त्री का पत्र प्रकाशित होने के तीन दिन बाद ही, 3 जून को केन्द्र सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव किया। इसके चलते अनाज, दाल, तेलहन, खाद्य तेल, आलू और प्याज जैसी रोजमर्रे की जरूरी चीजों को आवश्यक वस्तु की सूची से बाहर कर दिया। इस अधिनियम के तहत जिन चीजों को आवश्यक वस्तु माना जाता है उस पर सरकार का नियन्त्रण होता है, ताकि अभाव के समय इन चीजों की जमाखोरी और कालाबाजारी रोकी जा सके। हालाँकि सरकार पहले भी व्यापारियों के हित में इस कानून का कड़ाई से पालन नहीं करवाती थी। लेकिन अगर सरकार चाहती तो आपूर्ति बाधित होने की स्थिति में कुछ समय के लिए उस चीज के स्टॉक की सीमा तय कर सकती थी। इससे उन वस्तुओं के थोक या खुदरा विक्रेता, या आयातकर्ता को जमाखोरी से रोका जा सकता था। ऐसे में उनके लिए अतिरिक्त माल बाजार में बेचना जरूरी हो जाता और आपूर्ति पटरी पर आ जाती और कीमत गिर जाती। अगर ऐसा नहीं करते तो सरकार जमाखोरों के गोदामों पर छापे मारकर उनको सजा देती और उनके माल को नीलाम करती। लेकिन इस कानून में बदलाव करके, जीवनोपयोगी सामानों को उससे बाहर करके सरकार ने जमाखोरी और कालाबाजारी करने वालों को बेलगाम बना दिया।

 

बंगाल का अकाल (1942–43) जिसमें लगभग 40 लाख लोगों की मौत हुई थी, हमारे इतिहास की सबसे त्रासद घटनाओं में से एक है। अंग्रेज सरकार ने किसानों से कम दाम पर अनाज खरीद कर गोदामों में भर लिया और उसकी कालाबाजारी शुरु कर दी। अकाल के समय अनाज की कीमत आसमान छूने लगी, फिर भी अंग्रेज और भारतीय व्यापारियों ने अनाज सस्ता नहीं किया। इसके चलते गरीब जनता ही नहीं ऊपरी तबके के लोग भी भारी संख्या में भुखमरी के शिकार हुए थे।

सोचिये, अंग्रेजों के राज और इस नवउदारवादी शासन में क्या फर्क रह गया है। पिछले दिनों कोरोना आर्थिक पैकेज के तहत वित्तमन्त्री ने जिन सुधारों की घोषणा की थी, उसका असली उद्देश्य कृषि उत्पादों की खरीद, भण्डारण और व्यापार को मुक्त बाजार यानी मुनाफाखोरी के हवाले करना ही था। आवश्यक वस्तु कानून में इस बदलाव ने एक तरफ करोड़ों लोगों को भूख से मरने और दूसरी ओर आयात–निर्यात और सट्टेबाजी में लगे देशी–विदेशी पूँजीपतियों के बेलगाम मुनाफे की गारण्टी कर दी। वह दिन दूर नहीं, जब लोग कोरोना से बच भी गये, तो बंगाल के अकाल जैसी भुखमरी के शिकार होंगे।

प्रधानमन्त्री ने अपनी जिन उपलब्धियों को भारत की आन–बान–शान बताकर आत्म–प्रशंसा की है, जैसे–– धारा 370, राम मन्दिर, तीन तलाक, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ की भर्ती, नागरिकता कानून इत्यादि, वे इस देश को एक खास दिशा में ले जाने वाले भाजपा के पुराने एजेण्डे हैं, जनता की माँग नहीं। इसी के साथ–साथ मोदी सरकार उन नवउदारवादी नीतियों को भी धड़ल्ले से आगे बढ़ा रही है, जिनका मकसद देश के प्राकृतिक संसाधनों, सार्वजनिक क्षेत्र और समाजिक सेवाओं को देशी–विदेशी पूँजीपतियों के हवाले करना है। पिछले 30 वर्षों से केन्द्र और राज्यों में जितनी भी पार्टियों और गठबन्धनों की सरकार बनी, सबने यही किया। मजदूरों के अधिकारों में लगातार कटौती करना और उनके साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार करना, देशी–विदेशी पूँजीपतियों के हित में आर्थिक नीतियों को बदलना और उनके मुनाफे की गारण्टी करना, आम जनता से झूठे वादे करके ठगना और बरगलाना, उन्हें आपस में जाति–धर्म–क्षेत्र के नाम पर लड़वाना, जनता की बदहाली की कीमत पर अपनी सहूलियतों और अय्यासी को चाक–चैबन्द रखना, विदेशी आकाओं के सामने दुम हिलाना और अपने देश में विरोधियों, अल्पसंख्यकों, दलितों–शोषितों, आदिवासियों और आन्दोलनकारियों का निर्मम दमन–उत्पीड़न करना, कुर्सी बचाने और सरकार बनाने के लिए तीन–तिकड़म, जालसाजी–फरेब और तमाम ऐसी ही हरकतें करना। फर्क सिर्फ यही है कि जो काम पिछले बीस सालों में एक–एक करके, टुकड़े–टुकड़े में हो रहा था, वह पूँजीवादी व्यवस्था के इस चरम संकट को देखते हुए और कोरोना तालाबन्दी की आड़ में महामारी से भयाक्रान्त जनता की मजबूरी का फायदा उठाते हुए आज बेहद कायराना तरीके से, एकमुश्त और धड़ल्ले से किया जा रहा है।

इस संकट से निजात पाने का एक मात्र रास्ता है इस लुटेरी व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव। यही पहले भी देश की तमाम समस्याओं का एकमात्र सही समाधान था और आज भी है, लेकिन आज के नये दौर में इस जिम्मेदारी को जल्दी से जल्दी पूरी करना जीवन–मरण का प्रश्न है। कोरोना से तो हम बच जाएँगे लेकिन कोरोना से भी विनाशकारी इस नवउदारवादी वायरस को काबू किये बिना हमारा कोई भविष्य नहीं। कोरोना काल में मेहनतकश जनता के ऊपर मुसीबत का जो पहाड़ टूट पड़ा, उसने इस ऐतिहासिक कार्यभार के अहसास को गहरा किया है। हमारे सभी प्रयास इसी दिशा में केन्द्रित हों, तभी हम एक ऐसे भारत का निर्माण कर सकते हैं जहाँ मुनाफे से अधिक इनसान की जान को महत्व दिया जाये, जहाँ समाज का संचालन लूट खसोट और चरम निजी स्वार्थ के हित में नहीं, बल्कि न्याय और समता के उसूलों पर हो।