हमारे देश की अर्थव्यवस्था गहरे ढाँचागत संकट की गिरफ्त में है। अर्थव्यवस्था की स्थिति बतानेवाले सभी स्थापित पैमाने इस सच्चाई का इजहार कर रहे हैं। काफी समय तक विकास दर और बेरोजगारी के आँकड़े छुपाके और उनमें फेरबदल करके अर्थव्यवस्था के बिगड़ते स्वास्थ्य पर पर्दा डालने के बाद अब सरकारी अर्थशास्त्री और विभिन्न सरकारी संस्थान भी गम्भीर आर्थिक मन्दी की कड़वी सच्चाई को स्वीकार करने पर मजबूर हैं। आर्थिक संकट का सबसे असह्य बोझ और घातक परिणाम मजदूर वर्ग को ही झेलने पड़ते हैं। दिनोंदिन गहराते इस आर्थिक संकट को हल करने के नाम पर केन्द्र सरकार ने पूँजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग के प्रति जो रवैया अपनाया है, उसने इस बात को एक बार फिर सही साबित किया है। एक तरफ, इस संकट से उबारने के बहाने देशी–विदेशी पूँजीपतियों को तरह–तरह की रियायतें, सहूलियतें और करों में छूट का तोहफा दिया गया, तो दूसरी तरफ श्रम कानूनों में भारी फेरबदल करके पहले से ही चरम शोषण के शिकार मजदूरों के रहे–सहे अधिकारों में कटौती की गयी और उन्हें गुलामों से भी बदतर हालात में धकेलने का कुचक्र रचा गया।

देशी–विदेशी पूँजीपति काफी अरसे से “व्यवसाय करने में आसानी” और “विदेशी पूँजी निवेश को रिझाने” के नाम पर श्रम कानूनों मे “पूँजीपतियों के अनुकूल” बदलाव लाने की माँग कर रहे थे। पूँजीपतियों के सबसे बड़े संगठन फिक्की ने 2014 के संसदीय चुनाव से पहले सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के सामने श्रम कानूनों में बदलाव को लेकर अपना प्रस्ताव पेश किया था। उनकी मंशा बिलकुल साफ थी–– मजदूरों को संगठित होने और सघर्ष करने के कानूनी अधिकारों से वंचित करके तथा उनके वेतन–भत्तों और सहूलियतों में भारी कटौती करके उनके खून–पसीने को सिक्के में ढालने की रफ्तार को और ज्यादा तेज करना। 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा गठबन्धन सरकार ने श्रम कानूनों को बदलना शुरू किया। 2019 में दूसरी बार सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने फिक्की के सुझावों पर अमल करते हुए श्रम कानूनों को और तेजी से बदलना शुरू किया। इसके तहत केन्द्र सरकार के दायरे में आनेवाले 44 कानूनों और राज्य सरकारों के अधीन 100 से अधिक कानूनों को चार संहिताओं में सीमित कर दिया। ये सहिताएँ हैं–– (1) मजदूरी के बारे में संहिता 2017, (2) औद्योगिक सम्बन्ध कानून पर श्रम संहिता 2015, (3) सामाजिक सुरक्षा पर मसविदा श्रम संहिता और (4) पेशागत सुरक्षा, स्वास्थ्य और काम की दशा के बारे में श्रम संहिता 2018। इसमें से पहले, यानी मजदूरी से सम्बन्धित संहिता को संसद में चुपके से पास करा लिया गया, बाकी तीनों को पास कराने की तैयारी चल रही है। पिछले दिनों एक के बाद एक, जितने जनविरोधी कानून संसद में पारित किये गये, उन्हें देखते हुए इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये सभी कानून बिना किसी व्यवधान या शोर–शराबे के पास करा लिये जाएँगे।

इन संहिताओं के सैकड़ों पन्नों में भरे हुए शब्दजाल में से मजदूर वर्ग की जिन्दगी को प्रभावित करनेवाले बदलावों को रेखांकित करना एक कठिन काम है। यहाँ हम उनमें से कुछ प्रावधानों और उनके घातक परिणामों को चिन्हित करने का प्रयास करेंगे।

संगठित होने और संघर्ष करने के कानूनी अधिकारों पर हमला

अपने 100 सालों के संघर्षों और कुर्बानियों के दम पर मजदूर वर्ग ने संगठन बनाने तथा उसके माध्यम से सामूहिक मोलभाव और संघर्ष करने का अधिकार हासिल किया था, जिसे इस बदलाव के जरिये एक झटके में छीन लिया गया। अब तक ट्रेड यूनियन का पंजीकरण कराने के लिए किसी उद्योग या कम्पनी के सिर्फ सात कामगारों द्वारा आवेदन किये जाने का प्रावधान था। अब इसके लिए 10 प्रतिशत या कम से कम 100 कामगारों का हस्ताक्षर जरूरी होगा। जाहिर है कि पहले जहाँ सिर्फ 7 लोग अपनी नौकरी को जोखिम में डालकर यूनियन बनाने का बीड़ा उठा सकते थे, वहीं अब बड़ी संख्या में यूनियन बनाने की पहल करने वाले कामगारों की सूची मैनेजमेंट के हाथ लग जाएगी। पिछले कुछ वर्षों के दौरान मारुति उद्योग सहित तमाम उद्योगों में ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं के दमन–उत्पीड़न और उन्हें नौकरी से निकाले जाने की जितनी घटनाएँ सामने आयी हैं, उन्हें देखते हुए यह समझना कठिन नहीं कि इस नये कानूनी बदलाव के कारण यूनियन बनाना असम्भव नहीं भी, तो बेहद दुस्साध्य जरूर हो गया है।

यूनियन बनाने की प्रक्रिया को भी काफी कठोर बना दिया गया है, क्योंकि अब कोई भी सक्षम अधिकारी कामगारों के आवेदन को रद्द कर सकता है। इसके बाद उन्हें लम्बी और खर्चीली कानूनी कार्यवाही में उलझना पड़ेगा, यानी एक बार आवेदन रद्द हो जाने के बाद कामगारों के लिए नये सिरे से यूनियन बनाने की प्रक्रिया पूरी करना दुश्वार हो जाएगा। एक प्रावधान यह भी है कि यूनियन के निकाय में अब केवल दो बाहरी लोग ही रह पायेंगे। पहले मजदूरों–कर्मचारियों का यह जनतांत्रिक अधिकार था कि वे अपने यूनियन में कितने भी बाहरी लोगों को शामिल करें। अब तक का इतिहास यही है कि मजदूरों के नेता या कार्यकर्ता, चाहे वे किसी भी विचारधारा को माननेवाले हों, अपने सांगठनिक अनुभव और समर्पण के दम पर ऐसे मजदूरों को यूनियनों में संगठित करते रहे हैं, जिनकी चेतना और समझदारी यूनियन बनाने तथा अपने सामूहिक हितों की लड़ाई लड़ने तक न पहुँची हो या वे यूनियन बनाने के चलते अपनी नौकरी को दाँव पर लगाने की स्थिति में न हों। इस कानूनी बदलाव के बाद किसी नये प्रतिष्ठान में, खास तौर पर असंगठित क्षेत्र में यूनियन बनाने का काम बेहद कठिन हो गया। दूसरी तरफ, इस संहिता के मुताबिक किसी क्षेत्र के सिर्फ 7 मालिक पूँजीपति मिलकर अपना यूनियन बना लेंगे। इसका सीधा अर्थ यही है कि कानूनी रूप से संगठित मालिक असंगठित मजदूरों के सामने अपनी मनमानी शर्तें रख सकेंगे और उन्हें कम से कम मजदूरी पर ज्यादा से ज्यादा काम करने के लिए मजबूर करेंगे।

हड़ताल से 14 दिन पहले नोटिस देने का नियम पहले सिर्फ उन उद्योगों में था, जिनको ‘आवश्यक सार्वजनिक सेवा’ के अधीन रखा गया हो, लेकिन अब यह सभी क्षेत्रों में लागू होगा। साथ ही, एक दिन की हड़ताल के लिए मालिकों को आठ दिन की मजदूरी काटने का अधिकार होगा। इस तरह मजदूरों के संगठित प्रतिवाद का एकमात्र हथियार हड़ताल को रोकने के लिए इस नये कानूनी बदलाव ने मालिकों के दमनकारी पंजों को काफी मजबूत बना दिया गया। कुल मिलाकर इन बदलावों से मजदूरों को संगठित होने और संघर्ष करने का अधिकार छीनकर सरकार ने पूँजीपतियों के शोषण–उत्पीड़न को पहले से भी ज्यादा क्रूर और नृशंस बना दिया है।

मालिकों को जब मर्जी भरती करने, जब मर्जी निकालने का अधिकार

मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में किये गये बदलावों में सबसे घातक है –– “निश्चित अवधि के लिए अस्थायी रोजगार देने का प्रावधान”। वैसे तो पिछले 20–25 सालों के दौरान स्थायी रोजगार में भारी कमी आयी है, ज्यादातर नौकरियाँ अस्थायी या ठेका मजदूर या निविदाकर्मी की ही रह गयी हैं, चाहे सरकारी विभाग हो या निजी कम्पनी, संगठित क्षेत्र हो या असंगठित क्षेत्र, लेकिन अब इस अन्यायपूर्ण प्रावधान पर कानूनी मुहर लगा दी गयी है। चूँकि पहले श्रम कानून में अस्थायी ‘नौकरियों को स्थायी करने की व्यवस्था दी गयी थी, इसलिए अस्थायी मजदूर–कर्मचारी अपनी नौकरी को स्थायी करने की माँग उठाते और संघर्ष करते थे। कई मामलों में उन्हें सफलता भी मिलती थी। लेकिन इस कानूनी बदलाव के बाद अब हर जगह अस्थायी और ठेका मजदूर रखने को कानूनी बना दिया गया है।

एक बदलाव यह भी हुआ है कि अब से 300 कामगारों वाली फैक्ट्री में तालाबन्दी और छँटनी के लिए सरकार से इजाजत लेनी जरूरी नहीं होगी। पहले यह प्रावधान 100 कामगारों वाली फैक्ट्री में ही था। जहाँ तक 300 से अधिक कामगारों वाली फैक्ट्री में छँटनी–तालाबन्दी के लिए इजाजत लेने का सवाल है, नये कानून के मुताबिक वहाँ भी अगर सरकारी अधिकारी 60 दिन तक अनुमति नहीं देते तो खुद–ब–खुद स्वीकृति मान ली जायेगी, यानी फर्क बस यही है कि 300 से अधिक कामगारों वाली फैक्ट्री के मालिक यदि अधिकारियों को जल्दी नहीं पटा पाये तो उन्हें 60 दिन तक इन्तजार करना होगा। जाहिर है कि अब रोजगार सुरक्षा की कोइ गारण्टी नहीं रह गयी है।

पिछले कुछ महीनों में ऑटो सेक्टर और उत्पादन के अन्य क्षेत्रों में इसी कानून का फायदा उठाते हुए लाखों मजदूरों की नौकरियाँ रातोंरात छीन ली गयी हैं। हीरो होण्डा, मानेसर के छँटनीग्रस्त मजदूर दो महीने से भी अधिक समय से संघर्षरत हैं, लेकिन उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है। इस कानूनी बदलाव से सरकार ने पूँजीपतियों की इस मनोकामना को पूरा करने में सहायता की है कि जब तक मजदूर अपने श्रम से उनकी तिजोरी भरते रहें, तब तक वे उनका शोषण करें और जब ऐसा न हो तो उन्हें मरने के लिए सड़कों पर फेंक दें।

संसद में पहले ही पारित हो चुके इस नये कानूनी फेरबदल के अनुसार, अब न्यूनतम वेतन पर पाँच साल के बाद ही पुनर्विचार किया जाएगा, भले ही इस बीच महँगाई में जितनी भी बढ़ोतरी क्यों न हो जाये। दूसरी बात यह कि पहले निर्धारित न्यूनतम वेतन न देने वाले मालिकों के लिए जेल की सजा का प्रावधान था, जो अब केवल आर्थिक जुर्माने तक सीमित कर दिया गया है।

अब से पहले न्यूनतम वेतन का निर्धारण करने वाला प्रमुख कारक भोजन में न्यूनतम कैलोरी की मात्रा और उतनी भोजन सामग्री का बाजार मूल्य होता था। इसकी जगह अब काम में कुशलता का स्तर, काम की कठिनाई और कार्यस्थल की भौगोलिक स्थिति जैसे कारकों से न्यूनतम मजदूरी तय होगी। भोजन पर होने वाला खर्च अब गौण कारक हो गया है।

मजदूरों की सभी श्रेणियों–– जैसे स्थायी, अस्थायी, ठेका मजदूर, घरेलू कामगार, दिहाड़ी मजदूर, सबको सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले कोष, जैसे–– पेंशन, प्रोविडेंट फण्ड, इलाज इत्यादि को सरकार के अधीन एक ही कोष में केन्द्रित कर दिया गया है। प्रोविडेंट फण्ड एक्ट 1925 के तहत स्वायत्त संस्था इपीएफओ द्वारा प्रबन्धित सेवानिवृत्ति कोष को अब सीधे श्रम मंत्रालय के अधीन कर दिया गया है। इसकी पूरी कोशिश हो रही है कि उसके एक हिस्से को शेयर बाजार में लगा दिया जाये।

सरकार की मंशा पूँजीपतियों के हित में मजदूरों को नौकरी के दौरान कम से कम मजदूरी तय करना और सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें कम से कम भविष्यनिधि का भुगतान करना है। उलटे सरकार उनकी जीवन भर की बचत और भविष्यनिधि कोष को सट्टेबाजी में दाँव पर लगाने का भी मंसूबा बना रही है।

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि मजदूरों की जिन्दगी को बुरी तरह प्रभावित करने वाले इन कानूनी बदलावों के पीछे किन ताकतों का हित है और सरकार किसके इशारे पर ये कारगुजारियाँ कर रही है। सच तो यह है कि मोदी सरकार की डोर साम्राज्यवादी वैश्विक पूँजी और उनके देशी संश्रयकारियों के हाथों में है। जैसा कि पहले जिक्र किया गया है, 2014 के संसदीय चुनाव से पहले भारतीय पूँजीपतियों के सबसे बड़े संगठन फिक्की ने नियोक्ताओं के अखिल भारतीय संगठन एआईओई के समर्थन से “श्रम कानूनों को पूँजी निवेश और रोजगार हितैषी बनाने” के उद्देश्य से “श्रम कानूनों में बदलाव के बारे में टिप्पणी” नाम से अपना प्रस्ताव चुनावी मैदान में उतरी प्रमुख पार्टियों के सामने रखा था। उनकी प्रमुख माँगें थीं–– (1) सभी श्रम कानूनों को चार शीर्षकों में सरल ढंग से समेटा जानाय (2) मालिकों को निश्चित अवधि के लिए, न कि स्थायी रूप से कामगारों की नियुक्ति करने का अधिकार देनाय (3) सभी तरह के कामों के लिए ठेका मजदूरों की भर्ती का अधिकार देनाय (4) फैक्टरी में तालाबन्दी और छँटनी के लिए सरकार से पूर्व अनुमति लेने की अनिवार्यता को खत्म करना और (5) सभी उद्योगों में हड़ताल के लिए 14 दिन पहले सूचना देना अनिवार्य बनाना। मोदी सरकार ने इन सुझावों पर 2014 से ही काम करना शुरू कर दिया था। दूसरी बार सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने इन कानूनी बदलावों के लिए एँड़ी–चोटी का जोर लगा दिया।

सच तो यह है कि फिक्की और एआईओई जैसी देशी पूँजीपतियों की संस्थाओं ने भी सरकार को श्रम कानूनों में बदलाव के लिए जो सुझाव दिये हैं, उसका असली स्रोत विश्व बैंक जैसी साम्राज्यवादी संस्थाओं के सुझाव हैं, जो मौजूदा नव–उदारवादी, यानी आर्थिक नव–औपनिवेशवादी दौर की नीतियों को सूत्रबद्ध करती है। विश्व बैंक के परिप्रेक्ष्य दस्तावेज “इण्डिया डेवलपमेंट अपडेट”, मार्च 2018 में यह निष्कर्ष दिया गया है कि “भारत को अपनी प्रतिस्पर्धा बेहतर बनाने के लिए कई पूर्वशर्तों में से प्रमुख है–– अवरचनागत ढाँचे को बढ़ावा देना” ताकि इसे विश्व के मौजूदा विनिर्माण केन्द्रों के स्तर पर लाया जा सके। इसके साथ ही जमीन, श्रम और वित्तीय बाजार में बदलाव भी जरूरी हैं, ताकि प्रमुख उत्पादन लागत की प्रतिस्पर्धी आपूर्ति का जारी रखना सुनिश्चित हो, जैसे–– “मजदूर, जमीन, वित्त और कौशल”। इस सुझाव पर भारत सरकार ने कितने काम किये, इस बारे में स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया की शोध टीम ने जून 2019 को बताया कि “वैसे तो देश में औद्योगिक विवाद के मामले पहले ही काफी कम हुए हैं, लेकिन दूसरे देशों की तुलना में आज भी बहुत ज्यादा हैं––– एक साथ कई लोगों को नौकरी से बर्खास्त करने के लिए पहले स्वीकृति लेने की जरूरत भारत और श्रीलंका को छोड़कर किसी भी दूसरे देश में नहीं होती––– मौजूदा श्रम कानूनों का पालन करने में नियोक्ताओं द्वारा चुकायी जाने वाली ऊँची कीमत तथा केन्द्र और राज्य स्तर के विभिन्न श्रम कानूनों की जटिलता को ध्यान में रखते हुए केन्द्र सरकार ने हाल ही में उन्हें आसान और प्रभावी बनाने वाली नीतियाँ लागू की हैं। सरकार श्रम कानूनों को कहीं ज्यादा सरल और तार्किक बनाने के लिए प्रयासरत है।”

इन तथ्यों की रोशनी में यह समझना कठिन नहीं कि किनके सुझावों का अक्षरश: पालन करते हुए मोदी सरकार ने श्रम कानूनों में इतने भारी बदलाव किये हैं। ये बदलाव देशी–विदेशी पूँजीपतियों के लिए वरदान और मेहनतकश जनता के लिए अभिशाप हैं। मोदी के “न्यूनतम शासन, अधिकतम प्रशासन” का नारा पूँजीपतियों के लिए है, मजदूरों के मामले में इस नारे का मतलब कठोर शासन और निष्ठुर प्रशासन ही है।

आज दुनिया भर में अर्थव्यवस्था जिस असाध्य संकट की गिरफ्त में है, उससे निजात पाने के लिए पूँजीपति वर्ग मजदूर वर्ग के शोषण की रफ्तार बढ़ाने के अलावा अपने आपको बचाने का कोई और उपाय नहीं देखता है। श्रम कानून में बदलाव की यही वजह है।

दुनिया भर में मजदूर वर्ग के संघर्षों का इतिहास बताता है कि किसी वर्ग के हित में या उसके खिलाफ बनने वाले कानून उस दौर के वर्ग शक्ति सन्तुलन को प्रतिबिम्बित करते हैं। अब तक मजदूरों को जो भी कानूनी सुरक्षा हासिल थी, वह मजदूरों के संगठित सामूहिक संघर्ष का परिणाम थी। आज अगर मोदी सरकार इसे इतनी आसानी से छीन ले रही है तो यह इस बात का नतीजा है कि आज देश और दुनिया में मजदूरों और पूँजीपतियों के बीच के शक्ति सन्तुलन में मजदूर वर्ग का पलड़ा हल्का हुआ है। इस स्थिति को पलटने के लिए मजदूर वर्ग को अपनी चेतना, एकजुटता और संगठन का स्तर ऊँचा करना अनिवार्य होगा। मजदूर वर्ग अपनी ही नहीं, पूरी दुनिया की स्थिति को बदल सकता है, बशर्ते वह अपने ऐतिहासिक मिशन को एक बार फिर जमीन पर उतारने के लिए संकल्पबद्ध हो जाये।

श्रम कानून में मजदूर विरोधी चरम शोषणकारी बदलावों को लेकर देश भर के मजदूरों में आक्रोश व्याप्त है। छँटनी–तालाबन्दी के खिलाफ देश के अलग–अलग हिस्सों में आन्दोलन हुए और आज भी चल रहे हैं। 8 जनवरी को भाजपा समर्थक भारतीय मजदूर संघ को छोड़कर शेष सभी प्रमुख ट्रेड यूनियनों ने संयुक्त रूप से देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया, जिसमें करोड़ों मजदूरों ने हिस्सेदारी की। हालाँकि ऐसी आनुष्ठानिक कार्रवाइयों के दम पर पूँजी के चैतरफा हमले से मजदूर वर्ग की हिफाजत नहीं हो सकती।

लम्बे समय तक यूनियनों की लड़ाई जिस अर्थवाद, कानूनवाद के दायरे में सीमित रही है, वह मरणासन्न पूँजीवाद के इस दौर में कारगर नहीं रह गया है। निश्चय ही नव उदारवादी दौर में जिस तरह पूँजीपति वर्ग अपनी रणनीति बदलता जा रहा है, उसी के अनुरूप मजदूर संगठनों को भी अपने संघर्ष के तौर–तरीकों में तब्दीली लाना निहायत जरूरी है। पूँजी के चैतरफा हमले के खिलाफ मजदूर वर्ग की लड़ाई का देशव्यापी, व्यवस्था विरोधी प्रतिरोध संघर्ष की ओर बढ़ना लाजिमी है। यही इतिहास की गति है।