बिहार में चमकी बुखार यानी एक्यूट इन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) से लगभग 175 बच्चों की मौत हो गयी, जिनमें सिर्फ मुजफ्फरपुर में ही 132 बच्चे अकाल मौत के शिकार हुए। इससे पहले भी वहाँ 2014 में 139 और 2012 में 178 बच्चों की मौत हुई थी। लगभग हर साल अप्रैल से लेकर जून के बीच वहाँ से बच्चों की मौत की खबरें आती हैं। पिछले साल गोरखपुर में भी दिमागी बुखार से सैकड़ों बच्चों की मौत हुई थी और उस इलाके में भी यह महामारी लगभग हर साल मासूमों की जान लेती है। केंद्रीय संचारी रोग नियंत्रण कार्यक्रम के अनुसार उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, असम और बिहार समेत 14 राज्यों में इन्सेफेलाइटिस का प्रभाव है, लेकिन पश्चिम बंगाल, असम, बिहार और उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में इस बीमारी से हर साल भारी तादाद में बच्चों की मौत होती है। दिल दहला देनेवाली ऐसी विनाशलीला के प्रति सरकार की आपराधिक लापरवाही और स्वास्थ्य सेवाओं की उपेक्षा किसी भी संवेदनशील नागरिक के लिए गम्भीर चिन्ता का विषय है।  

बच्चे ऐसी बीमारियों से कीड़े–मकोड़ों की तरह क्यों मर जाते हैं, जिनका इलाज सम्भव है?

गर्भवती महिलाओं का अपमानजनक और खतरनाक स्थितियों में प्रसव क्यों होता है और हमारे देश में जच्चा–बच्चा की अकाल मौत रोजमर्रे की घटना क्यों है?

अस्पतालों में बेशुमार भीड़ क्यों होती है तथा जाँच और ऑपरेशन की तारीख इतनी देर से क्यों मिलती है, जिससे पहले रोगी की अंत्येष्टि–तेरहवीं की तो बात ही क्या, तीसरी बरसी का भोज भी सम्पन्न हो जाता है?

और सबसे महत्त्वपूर्ण बात आजकल देश के किसी न किसी कोने में किसी न किसी डॉक्टर को लोग क्यों पीट रहे हैं, जबकि रोगी के परिजन उनको दिल से भगवान मानते हैं? डॉक्टरों की हड़ताल से देशभर में हाहाकार क्यों मच गया? रोगी और डॉक्टर एक–दूसरे के जानी दुश्मन क्यों बन गये हैं, जबकि समस्या का असली कारण कुछ और है और उनका असली गुनाहगार उनके निशाने पर कभी नहीं आ पाता?

सच तो यह है कि आज के दौर में हमारे देश में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में एक तरफ नवउदारवादी नीतियों के तहत स्वास्थ्य सेवाओं को निजी मुनाफे का धन्धा बनाया जा रहा है और दूसरी ओर सरकारें सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा मुहैया करने के अपने दायित्व से मुँह मोड़ रही हैं। महँगी होती स्वास्थ्य सेवा और सरकारों की बढ़ती गैरजिम्मेदारी ही इन सारी समस्याओं की जड़ है।

इसे समझने के लिए हमें आजादी के बाद देश के राजनीतिक अर्थशास्त्र और खासकर स्वास्थ्य सेवाओं से सम्बन्धित नीतियों में हुए बदलावों पर एक सरसरी निगाह डालना जरूरी है।

दो सौ सालों की ब्रिटिश गुलामी के बाद जब 1947 में भारत को राजनीतिक आजादी मिली तो यहाँ के पूँजीवादी शासक वर्गों के सामने दो विकल्प थे या तो वे दूसरे महायुद्ध के बाद अमरीकी चैधराहट वाले विश्व साम्राज्यवादी खेमे में शामिल हो जाते या अपने देश के स्रोत–साधनों और जनता के श्रम के भरोसे पूँजीवादी विकास का रास्ता अपनाते। अपने वर्गीय हितों को ध्यान में रखते हुए टाटा–बिरला प्लान या बॉम्बे प्लान के नाम से 1946 में तैयार की गयी योजना के तहत हमारे शासकों ने दूसरे रास्ते का अनुसरण किया। मूलत: आत्मनिर्भर विकास के इस रास्ते को ही नेहरू की समाजवादी नीति समझा जाता है, हालाँकि इसमें समाजवाद जैसा कुछ भी नहीं था। यह विशुद्ध पूँजीवादी रास्ता था। साम्राज्यवाद से दूरी बनाये रखना इसलिए यहाँ के शासकों हित में था क्योंकि उनकी विराट पूँजी के दम पर विकास का सपना देखने का अर्थ इस देश की अर्थव्यवस्था पर पूरी तरह विदेशी पूँजी का वर्चस्व होता और आजादी नाममात्र की रह जाती।

इन्हीं आर्थिक नीतियों के अनुरूप सरकार ने जनता के लिए अनिवार्य सामाजिक सेवाओं, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी इत्यादि को राज्य की जिम्मेदारी माना। इसी के मद्देेनजर 1946 में जोसेफ भोरे ने भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम तैयार करने के लिए तत्कालीन भारत सरकार को जो सर्वे रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, उसे 1948 में स्वीकार किया गया और उसे ही आजादी के बाद स्वास्थ्य सेवाओं के विकास का आधार माना गया। 1956 में स्वतन्त्र भारत की सरकार द्वारा गठित डॉ ए एल मुदालियर कमिटी ने 1961 में जो रिपोर्ट प्रस्तुत की, उसमें भी सारत: इसी रिपोर्ट की सिफारिशों से सहमति जतायी गयी, जिसकी प्रमुख बातें थीं––—

–– सबके लिए सम्पूर्ण और मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएँ (इलाज और बचाव) उपलब्ध करवाना।

–– स्वास्थ्य सेवाओं का चरणबद्ध विकास, जिसमें पहले हर 40,000 लोगों के लिए एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और हर 1,00,000 लोगों के लिए एक 75 बिस्तर वाला अस्पताल बनाना तथा हर 30 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर 50 बिस्तरों वाला एक अस्पताल बनाना।

–– हर जिला मुख्यालय (10.30 लाख की आबादी) में एक 2400 बिस्तर का अस्पताल और एक मेडिकल कॉलेज बनाना।

–– सरकारी बजट का कम से कम 15 प्रतिशत सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों पर खर्च करना।

–– निवारक स्वास्थ्य सेवा को मेडिकल शिक्षा का एक अंग बनाना।

इन सिफारिशों को सैद्धान्तिक रूप से स्वीकारने के बावजूद सरकारों ने इनको जमीन पर कितना उतारा, इसे सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की मौजूदा स्थिति को देखकर आसानी से जाना जा सकता है। आज प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की हालत बेहद खराब है, बीस से तीस हजार लोगों के लिए केवल एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है, कुछ राज्यों में तो एक लाख लोगों के लिए एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है, लेकिन वहाँ भी न स्वास्थ्यकर्मी हैं, न दवाएँ। यही हाल जिला अस्पतालों और सरकारी मेडिकल कॉलेज के अस्पतालों का है।

आजादी के बाद से ही उपेक्षित सार्वजानिक स्वास्थ्य सेवाओं की इस दुर्दशा को उदारीकरण–निजीकरण की आँधी ने और ज्यादा बेहाल कर दिया। इसकी पटकथा 1991 में नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की नयी आर्थिक नीतियों के रूप में लिखी गयी थी जिसे आज तक हर गठबन्धन सरकार ने आगे बढ़ाया।

नयी आर्थिक नीति आने के पीछे देश–दुनिया में हुए महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों की चर्चा यहाँ जरूरी है। दरअसल, 1990 के आसपास दुनिया भर में कुछ ऐसी घटनाएँ हुर्इं, जिसने विश्वस्तर पर वर्ग शक्ति संतुलन को पूरी तरह बदल दिया–– सोवियत संघ और युगोस्लाविया का बिखराव, रूसी साम्राज्यवादी खेमे का विघटन और अमरीकी चैधराहट में एकधु्रवीय विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का अस्तित्व में आना। यह नयी विश्व परिस्थिति 1947 के दूसरे महायुद्ध के बाद वाली परिस्थिति से बिलकुल अलग थी। उस समय एक मजबूत समाजवादी खेमा मौजूद था और तीसरी दुनिया के तमाम देशों में या तो मुक्ति संघर्ष में जीत हासिल हुई थी या वहाँ की जनता जीत की ओर बढ़ रही थी। अमरीका को छोड़कर, जिसे अपनी जमीन पर युद्ध नहीं झेलना पड़ा था, अधिकांश साम्राज्यवादी देश विश्व युद्ध में तबाह हो चुके थे। अमरीका शुरू से ही अपनी साम्राज्यवादी लूट के लिए किसी देश को सीधे–सीधे गुलाम बनाने की जगह उस देश में विराट पूँजी–निवेश के जरिये उसे नवउपनिवेश बनाने की रणनीति अपनाता था। लेकिन उसकी यह रणनीति शोषण–उत्पीड़न के मामले में किसी भी साम्राज्यवादी देश से कम नहीं थी। लातिन अमरीकी देश इस क्रूरता के स्पष्ट उदाहरण रहे हैं। यही कारण है कि अमरीकी खेमे में जाने के बजाय ज्यादातर नवस्वाधीन देश समाजवादी खेमे के सहयोग से आत्मनिर्भर आर्थिक विकास का रास्ता अपनाना ज्यादा सुरक्षित समझते थे। भारत में नेहरू की नीतियों के लागू हो पाने में उस समय की अनुकूल विश्व परिस्थिति काफी मददगार साबित हुई थी। अब इस बदली हुई परिस्थिति में भारत सहित तीसरी दुनिया के तमाम शासकों ने अपनी आत्मनिर्भर आर्थिक नीतियों को तिलांजलि देकर विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का हिस्सा बनना स्वीकार कर लिया।

उधर अमरीका की अगुआई में विश्व साम्राज्यवादी समूह बहुत पहले से एक नयी आर्थिक विश्व व्यवस्था बनाने के मंसूबे बाँध रहा था। विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी साम्राज्यवादी संस्थाएँ 1985 के आसपास से ही डंकल प्रस्ताव के जरिये गैट को विश्व व्यापार संगठन में बदलने का प्रयास कर रही थी। इस प्रस्ताव में सेवा क्षेत्र और कृषि क्षेत्र को विश्व व्यापार का हिस्सा बनाना और अमरीकी पेटेंट कानून को पूरी दुनिया पर थोपना शामिल था। शुरू में इसके प्रस्तावों पर काफी मतभेद थे। खुद मनमोहन सिंह और जुलियस नरेरे जो साउथ कमीशन के क्रमश: सचिव और अध्यक्ष थे, डंकल प्रस्ताव को साम्राज्यवादी वर्चस्व का दस्तावेज मानते थे और उसके प्रबल विरोधी थे। लेकिन विडम्बना देखिये कि उन्हीं दोनों महानुभावों ने बदली हुई परिस्थितियों में खुद अपनी अगुआई में ही अपने–अपने देशों को उन्हीं शर्तों के आधार पर विश्व व्यापार संगठन का अंग बनाने की ओर कदम बढ़ाया और अपनी–अपनी अर्थव्यवस्थाओं को विश्व साम्राज्यवाद के साथ नत्थी कर दिया। नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह सरकार की नयी आर्थिक नीति इसी का परिणाम थी।

नयी आर्थिक नीति का मकसद भारतीय अर्थव्यवस्था में बुनियादी बदलाव लाना था, ताकि इसे साम्राज्यवादी पूँजी के हितों के अनुरूप ढाला जा सके। इसके प्रमुख प्रावधान थे–– ढाँचागत समायोजन करके विदेशी पूँजी निवेश और आयात–निर्यात पर सभी प्रतिबन्धों को हटाना, शिक्षा, स्वास्थ्य, सार्वजानिक परिवहन, बिजली–पानी, जैसी सेवाओं को पूरी तरह निजी मुनाफे के लिए खोलना, सार्वजानिक उद्यमों, खदानों, शोध संस्थानों इत्यादि को निजी पूँजीपतियों के हवाले करना और देशी–विदेशी पूँजी के रास्ते की सभी बाधाओं को हटाना, इत्यादि।

सच तो यह है कि देश में आज जितनी भी पक्ष–विपक्ष की पार्टियाँ हैं, उनमें से सभी ने किसी न किसी गठबन्धन के साथ सरकार में हिस्सा लिया और सबने 1991 की नयी आर्थिक नीतियों को ही लागू किया है। नीतिगत मामलों में उन सबकी आम सहमति है। यही कारण है कि इन नीतियों के चलते जनता की बढ़ती दुर्दशा और मौतों पर विपक्ष–धर्म की मजबूरी में घड़ियाली आँसू भले ही बहायें, इनके खिलाफ कभी कोई आवाज नहीं उठाते हैं।

वैसे तो पिछले तीस वर्षों में केन्द्र या राज्यों में जो भी सरकारें आयीं, सबने इन्हीं नीतियों को लागू किया लेकिन मोदी सरकार के दौरान देशभक्ति और राष्ट्र गौरव की आड़ में साम्राज्यवाद परस्त ‘आक्रामक सुधारों’ की आँधी ने उन सबको पीछे छोड़ दिया है। अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में शत–प्रतिशत विदेशी पूँजी निवेश, एफडीआई के लिए श्रम कानूनों और पर्यावरण मानदंडों में फेर–बदल, हर कीमत पर डॉलर महाप्रभु को निमंत्रण। इसके घातक नतीजे भी गोरखपुर और मुजफ्फरपुर जैसे दिल दहला देनेवाले हादसों के रूप में रोज–रोज सामने आ रहे हैं। स्वास्थ्य सेवाएँ ही नहीं, इन प्राणघातक सुधारों के दुष्परिणामों से हमारे सामाजिक जीवन का कोई भी कोना अछूता नहीं है।

पिछले लगभग तीन दशकों से देश की जनता इन नीतियों के घातक नतीजे झेल रही है। एक तरफ मुट्ठी भर धनवानों और नवोदित मध्यम वर्ग के लिए सुख–सुविधा और विलासिता का भरपूर बन्दोबस्त है, तो दूसरी तरफ करोड़ों मजदूरों पर छँटनी, तालाबन्दी की मार, लाखों किसानों की आत्महत्या, हर साल लाखों लोगों का इलाज के आभाव में मर जाना, बेरोजगारों की दिनोंदिन बढ़ती तादाद और उनकी हताशा–निराशा, खेती–किसानी, मिलों–फैक्ट्ररियों और परम्परागत पेशों से उजड़े लोगों का अनौपचारिक क्षेत्र के निकृष्टतम कामों के भरोसे जानवरों से भी बदतर जिन्दगी गुजारना। एक तरफ स्वर्ग को भी मात देने वाली चकाचैंध, तो दूसरी ओर साक्षात रौरव नरक।

हमारे देश के ज्यादातर छोटे–बड़े शहरों में मैक्स, फोर्टिस, अपोलो, एस्कोर्ट, मेदांता जैसे विश्व स्तर के सुपर स्पेशलिटी अस्पताल हैं, जिनके बारे में हम तभी जान पाते हैं, जब किसी बड़े आदमी के बीमार होने और उसके किसी ऐसे ही अस्पताल में भर्ती होने की खबर मिलती है। सरकार मेडिकल टूरिज्म को बढ़ावा देकर इन अस्पतालों के मालिकों के हित में विदेशी मरीजों के इलाज से डॉलर कमाने की योजना चला रही है। लेकिन अगर कोई खाता–पीता भारतीय नागरिक गलती से इन अस्पतालों में चला जाए, तो जिन्दगी भर कर्ज से उबार नहीं पाता। इन बड़े अस्पतालों की तो बात ही क्या, एक अध्ययन के मुताबिक किसी भी प्राइवेट नर्सिंग होम में इलाज के चलते, हर साल चार करोड़ लोग एक ही झटके में गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। आज ग्रामीण इलाके की 70 प्रतिशत आबादी इलाज के लिए प्राइवेट अस्पतालों पर निर्भर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की पिछले साल की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में स्वास्थ्य पर होनेवाले कुल खर्च का 67.78 प्रतिशत लोगों की जेब से आता है, जबकि दुनियाभर का औसत 18.2 प्रतिशत है। सरकारी खर्च में लगातार कटौती और सरकारी अस्पतालों की बदहाली को देखते हुए लोगों का निजी अस्पतालों पर निर्भर होना और उनकी मनमानी लूट का शिकार होना लगातार बढ़ रहा है। मुनाफे की हवस में इन अस्पतालों के मालिक हर तरह की बेईमानी और अनैतिक व्यवहार का सहारा लेते हैं। आये दिन मरीजों के साथ उनकी निर्मम लूट और धोखाधड़ी की खबरें आती हैं और शायद ही कोई परिवार हो, जिसके पास इन अस्पतालों के कड़वे अनुभव न हों।

और तो और, मेडिकल की पढ़ाई का निजीकरण और बाजारीकरण भी भ्रष्टाचार और लूट का नया धन्धा बन गया है। प्राइवेट मेडिकल कॉलेज की फीस करोड़ों रुपये है। जाहिर है कि वहाँ से पढ़कर निकलने वाले डॉक्टर जनता की सेवा करने के बजाय मुनाफे का धन्धा करेंगे।

साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में एक तरफ जहाँ सरकारों ने स्वास्थ्य की जिम्मेदारी से मुँह मोड़ लिया, वहीं इन नीतियों के चलते विकास के नाम पर पर्यावरण विनाश में तेजी आने, नयी–नयी नौकरियों में रात की पाली में काम, कार्यस्थल पर खराब हालात, काम के घंटों में मनमानी बढ़ोतरी, जोखिम के कामों में सुरक्षा उपाय न होना, जीवन शैली में बदलाव और सबसे बढ़कर भारी आबादी की कंगाली–बदहाली के चलते नयी–नयी बीमारियाँ पैदा हो रही हैं, जबकि पुरानी बीमारियाँ फिर से पाँव पसार रही हैं। 2017 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य परीक्षण कार्यक्रम की जाँच के दौरान सिर्फ एक साल में मधुमेह और हाइपरटेंशन के मरीजों की संख्या दुगनी होने का पता चला। एक साल में कैंसर के मामले भी 36 प्रतिशत बढ़े हैं। हर साल किसी न किसी इलाके में डेंगू, चिकनगुनिया, दिमागी बुखार जैसी कोई न कोई बीमारी मौत का तांडव करती है।

सरकार 5 ट्रिलियन (5000 अरब) डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का सपना परोसती है, विश्व की पाँचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनने पर इठलाती है, देश में अरबपतियों–खरबपतियों की संख्या बढ़ने को अपनी नीतियों की उपलब्धि बताती है, लेकिन देश में बढ़ती कंगाली–बदहाली उसके लिए कोई मुद्दा नहीं है। वह यह नहीं बताती कि देश तरक्की कर रहा है तो सबके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी, टीकाकरण और रोजगार क्यों नहीं है? अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए वह आयुष्मान जैसे कार्यक्रमों को रामबाण बताते हुए उसका बढ़–चढ़ कर प्रचार करती है, जबकि वह सिर्फ एक स्वास्थ्य बीमा योजना है। कोई भी बीमा कम्पनी अपने मुनाफे के लिए कार्यक्रम चलाती है, जनकल्याण के लिए नहीं। आयुष्मान बीमा योजना कितनी कारगर है, इसका खुलासा तो मुजफ्फरपुर, असम और देश के तमाम इलाकों में महामारी से हुई मासूमों की मौत ने ही कर दिया। बीमा कम्पनियों के मुनाफे के लिए उनको सरकारी योजना का तोहफा देने और महज 10 करोड़ लोगों का बीमा करवाकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने के बजाय यह सरकार सरकारी अस्पतालों को बेहतर बनाने और सबके लिए इलाज की बात क्यों नहीं करती?

सच तो यह है कि अपने उद्भव के दौर से ही पूँजीवाद खुद ही एक बीमारी रहा है। जैसे–जैसे पूँजी का आकार बढ़ता है, वैसे–वैसे समाज में गरीबी, भुखमरी और बीमारी भी बढ़ती जाती है। यह पर्यावरण का विनाश करता है, हवा–पानी को प्रदूषित करता है, कचरे का ढेर लगता है, यानी वे सारे हालत पैदा करता है, जिनसे नयी–नयी बीमारियाँ पैदा होती हैं और पुरानी बीमारियाँ महामारी का रूप धारण कर लेती हैं। औद्योगिक क्रान्ति के बाद का इतिहास इस बात का गवाह है और हमारे देश में भी पूँजीवाद के साथ–साथ जानलेवा बीमारियों का आना सबकी जानकारी की बात है।

लेकिन आज के नवउदारवादी दौर में आकर पूँजीवाद अब एक असाध्य रोग, मानवता के लिए एक प्रकोप बन गया है। पूँजीवाद विकट समस्याएँ पैदा करता है और उनके समाधान के नाम पर भरपूर मुनाफा कमाता है। दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवाओं का धन्धा करने वाली धनी देशों की बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनियाँ, चिकित्सा उपकरण और सर्जरी के सामान बनाने वाली कम्पनियाँ, जाँच उपकरण बनाने वाली कम्पनियाँ, दुनियाभर में अत्याधुनिक अस्पतालों की श्रृंखला चलाने वाली कम्पनियाँ और बीमा कम्पनियाँ भारत जैसे देशों में अपने साझेदार पूँजीपतियों के साथ साँठ–गाँठ करके अरबों–खरबों का मुनाफा कमाती हैं। अपनी इस लूट को आसान बनाने के लिए वे यहाँ के शासकों को प्रलोभन देकर अपने हित में योजनाएँ बनवाती हैं तथा स्वास्थ्य पर सरकारी खर्चे में कटौती और निजीकरण के पक्ष में मीडिया के जरिये राय कायम करवाती हैं। ये डॉक्टर से लेकर एजेन्टों तक को भारी कमीशन देती हैं, जिसका सारा बोझ मरीजों की कमर तोड़ देता है। सबके लिए स्वास्थ्य की गारन्टी के लिए इसे पूँजी की बेड़ियों से आजाद करवाना बेहद जरूरी है। विश्व जनगण को अपनी सभी तरह की बीमारियों से मुक्ति पाने के लिए इस नवउदारवादी पूँजीवाद से मुक्ति का संघर्ष शुरू करना लाजिमी है ताकि एक स्वस्थ समाज व्यवस्था की बुनियाद रखी जा सके। मेहनतकश जनता के लिए यह जीवन–मरण का प्रश्न है।