26 अक्टूबर को मुम्बई में ए डी सर्राफ स्मृति व्याख्यान में रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने सरकार और रिजर्व बैंक के बीच पैदा हुई तनातनी के बारे में अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा कि “जो सरकार अपने केन्द्रीय बैंक का सम्मान नहीं करती वह देर–सबेर वित्तीय बाजार के गुस्से का सामना करती है, अर्थतन्त्र में आग लगाती है और इस बात पर पछताती है कि उसने एक महत्त्वपूर्ण नियामक संस्था को कमजोर किया।” यह राय अकेले विरल आचार्य की नहीं थी क्योंकि अपने उसी भाषण में उन्होंने अपने गवर्नर उर्जित पटेल का इस बात के लिए आभार जताया था कि इस व्याख्यान में केन्द्रीय बैंक की स्वाधीनता की पुनर्व्याख्या किये जाने का सुझाव उन्होंने ही दिया था। आचार्य ने सरकारी हस्तक्षेप के तीन क्षेत्रों का हवाला दिया। पहला, रिजर्व बैंक के मुद्रा भण्डार से एक बड़े हिस्से को सरकारी खजाने में डालने की माँग, दूसरा, सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों पर रिजर्व बैंक की निगरानी और नियंत्रण को ढीला करना और तीसरा, भुगतान बैंकों को विनियमित करने जैसी रिजर्व बैंक की नियामक जिम्मेदारियों को सीमित करना। उन्होंने कहा कि इससे पहले कि बाजार की शक्तियाँ इन अतिक्रमणों की कीमत चुकाने पर मजबूर करें, सरकार को अपने कदम वापस खींच लेने चाहिए।

रिजर्व बैंक की शीघ्र सुधारात्मक कार्रवाई (पीसीए फ्रेमवर्क) को ढीला करवाने के पीछे सरकार का तात्कालिक मकसद अर्थव्यवस्था को उधारी और नगदी संकुचन से निजात दिलाना तथा छोटे और मध्यम उद्यमों को बैंक कर्ज मुहैय्या करवाना है जो खुद मोदी सरकार के गलत फैसलों का नतीजा हैं। सरकार ने पहली बार स्वीकार किया कि नोटबन्दी और जीएसटी की मार से छोटे और मझोले कारोबारी बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, जबकि कर्ज डूबने और घोटालों की चपेट में आकर पहले से ही संकटग्रस्त बैंक अब रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित शर्तों के मुताबिक नये कर्ज देने की स्थिति में नहीं हैं। जाहिर है कि रिजर्व बैंक के साथ सरकार के टकराव का कारण वित्तीय क्षेत्र और अर्थव्यवस्था का गहराता संकट है जिसे छुपाने के लिए आज भी सरकार आँकड़ों की बाजीगरी करने से बाज नहीं आ रही है।

इस विवाद पर रिजर्व बैंक के पूर्व बोर्ड मेम्बर वाई एच मालेगाम का कहना है कि आरबीआई एक्ट में सरकार को रिजर्व बैंक का आरक्षित धन देने का प्रावधान नहीं है, फिर भी मोदी सरकार रिजर्व बैंक के खजाने में जो 9–6 लाख करोड़ रुपये है, उसका एक तिहाई धन सरकारी खजाने में डालने की माँग कर रही है। कानून के मुताबिक रिजर्व बैंक हर साल अपने मुनाफे का एक हिस्सा सरकार को लाभांश के रूप में भुगतान करता है और बाकी बचा हुआ अधिशेष आरक्षित कोष में डाल देता है। इसलिए पिछले साल का अधिशेष सरकार को देना हो तो इसके लिए रिजर्व बैंक कानून 1934 को बदलना पड़ेगा।

सरकार की माँगों के आगे न झुकने का एक कारण यह भी है कि रिजर्व बैंक के लिए पर्याप्त आरक्षित कोष रखना और भारतीय मुद्रा की मजबूती को बरकरार रखना अपरिहार्य है। पहले से ही डॉलर की तुलना में रुपये की बुरी हालत को देखते हुए रिजर्व बैंक की यह चिन्ता और बढ़ जाती है। मालेगाम ने कहा कि कानूनी प्रावधान के विरुद्ध जाकर भी अगर सरकार रिजर्व बैंक पर दबाव डाल रही है कि अपने अधिशेष का एक बड़ा हिस्सा सरकार को सौंप दे तो यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि देश की अर्थव्यवस्था और केन्द्र सरकार एक गम्भीर वित्तीय संकट का सामना कर रही है।

27 नवम्बर को एम वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति के सवालों का जवाब देते हुए रिजर्व बैंक गवर्नर उर्जित पटेल ने एक बार फिर केन्द्रीय बैंक की स्वायत्तता बरकरार रखने पर जोर दिया। उन्होंने अपना जवाब 10–15 दिन में विस्तार से देने का आश्वासन दिया, साथ ही चार मुद्दों को रेखांकित किया। पहला, जमाकर्ताओं के हितों को लेकर स्वायत्तता से कोई समझौता नहीं हो सकता। दूसरा, मौद्रिक नीतियाँ पूरी तरह से रिजर्व बैंक के दायरे में होनी चाहिए। तीसरा, रिजर्व बैंक का आरक्षित कोष बनाये रखने से सम्बन्धित बेसेल 3 पैमाने का पालन करना अत्यन्त जरूरी है क्योंकि देश इसके लिए अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ग्रुप 20 देशों के प्रति वचनबद्ध है। बेसेल 3 पैमाना विश्वस्तर पर स्वीकृत एक स्वेच्छिक ढाँचा है को बैंक में पर्याप्त नगदी रखकर बाजार के जोखिम से बचाने के लिए बनाया गया है। यह 2007–08 के अमरीकी वित्तीय संकट के बाद उत्पन्न विनाशकारी परिस्थितियों के मद्देनजर ग्रुप 20 के देशों की आपसी सहमति से तय किया गया पैमाना है।

ऊपर–ऊपर देखने पर सरकार और रिजर्व बैंक के बीच का यह विवाद और गतिरोध ऐसा आभास कराता है, जैसे इन दोनों संस्थाओं के बीच का संघर्ष अलग–अलग हितों और उद्देश्यों की वजह से है, जबकि सच्चाई ऐसी नहीं है। सरकार और रिजर्व बैंक दोनों ही नवउदारवादी नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए कटिबद्ध हैं, लेकिन दोनों की प्रकृति और चरित्र की अपनी विशिष्टताएँ हैं। सरकार को चुनाव जीतना होता है, उसके लिए कुछ ऐसे काम करने होते हैं जो नवउदारवादी नीतियों से टकराते हैं। भले ही कोई सरकार खुद उन नीतियों के प्रति कितनी भी समर्पित और वचनबद्ध क्यों न हो, उसे कुछ राजनीतिक दबाव भी झेलने होते हैं। वोट लेने के लिए सिर्फ जुमलेबाजी और लफ्फाजी से ही काम नहीं चलता, यह भी दिखाना होता है कि अच्छे दिन भले ही नहीं आये हों लेकिन बुरे दिन भी उतने बुरे नहीं हैं। रिजर्व बैंक के सामने ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती है। उसे नवउदारवादी वित्तीय और मौद्रिक मानदण्डों पर कायम रहना जरूरी होता है। साथ ही रिजर्व बैंक की जिस स्वाधीनता और स्वायत्तता को लेकर इतनी हाय–तौबा मचायी जा रही है, वह भी भ्रामक है, क्योंकि रिजर्व बैंक के गवर्नर सहित पूरे संचालक मंडल की नियुक्ति सरकार ही करती है। और जब वैश्वीकरण के दौर में देश की आर्थिक नीतियों में किसी भी तबदीली के लिए सरकार खुद ही स्वाधीन और स्वायत्त नहीं है, तो उसके काम–काज में सहयोग करने वाली रिजर्व बैंक जैसी कोई संस्था कितनी स्वाधीन और स्वायत्त हो सकती है। सरकार और रिजर्व बैंक दोनों को वित्तीय और मौद्रिक अफरातफरी की चिन्ता है, लेकिन दोनों को अपनी पूर्वनिर्धारित भूमिकाएँ निभानी हैं। निश्चय ही, इस विवाद के कुछ गम्भीर निहितार्थ हैं जो नवउदारवादी नीतियों की असफलता तथा नोटबन्दी और जीएसटी जैसे मोदी सरकार के विनाशकारी फैसलों का नतीजा हैं। सरकार का उतावलापन और बेचैनी अर्थव्यवस्था के गम्भीर संकट की और संकेत करते हैं। सरकार और रिजर्व बैंक दोनों के लिए स्थिति “एक तरफ कुआँ, दूसरी तरफ खाई” वाली हो गयी है। हालाँकि दोनों ही अर्थव्यवस्था को दलदल से निकालने के लिए अपनी–अपनी जिम्मेदारी के अनुसार भरपूर जोर लगा रहे हैं।

दरअसल 1991 में आर्थिक सुधारों को लागू किये जाने के बाद भारतीय शासक वर्ग की जितनी भी पार्टियाँ सरकार में आयीं, सबने विदेशी पूँजी के साथ गठजोड़ और साम्राज्यवादी संस्थाओं द्वारा थोपी गयी नीतियों को बढ़–चढ़कर लागू किया। 2014 में सरकार बनाने के बाद भाजपा ने भी अपनी पूर्ववर्ती कांग्रेस की नीतियों को ही बढ़–चढ़कर लागू किया। नवउदारवादी दौर में भारत में विदेशी पूँजी आने और जाने का सिलसिला जितनी तेजी से बढ़ा, उसी रफ्तार से साम्राज्यवादी वित्तीय संस्थाओं ने एक नियामक संस्था के रूप में रिजर्व बैंक को सरकार से सापेक्षिक स्वाधीनता की वकालत की। सरकारों को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं थी, क्योंकि नवउदारवादी नीतियों और साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी की अधीनता स्वीकार करने के बाद से वे खुद भी उनके ऊपर आश्रित और उनकी हिफाजत के लिए वचनबद्ध हो चुकी थीं। इसलिए विश्व बैंक, मुद्राकोष और अन्य अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा निर्धारित मौद्रिक और वित्तीय नीतियों को लागू करने के लिए जिम्मेदार, रिजर्व बैंक को सरकारों से स्वायत्त बनाये रखने में उनको भी कोई आपत्ति नहीं रही। जाहिर है कि यह स्वायत्तता वैश्विक पूँजी के नीतिगत दायरों के भीतर ही हो सकती है जिनसे अलग हटकर एक भी फैसला लेने के लिए रिजर्व बैंक स्वाधीन नहीं है।

गौरतलब है कि इस वैश्वीकृत दुनिया में भारत जैसे विकासशील देशों की सरकारों के आगे अपनी अर्थव्यवस्था को चाक–चैबन्द रखने और देशी–विदेशी पूँजी के हमलों के खिलाफ जनता के गुस्से को शान्त करने की कुछ मजबूरियाँ होती हैं, जबकि साम्राज्यवादी पूँजी को सिर्फ अपने मुनाफे और हिफाजत की चिन्ता होती है। इसी के मद्देनजर नवउदारवादी नीतियों के नये दौर में मुद्रास्फीति पर नियंत्रण रखना सरकारों की जिम्मेदारी होती है और दुनियाभर में इस पर नजर रखने का काम केन्द्रीय बैंकों को दिया गया है। मुद्रास्फीति बढ़ने का अर्थ है विदेशी पूँजी का मुनाफा कम होना, जो विदेशी पूँजी निवेशकों के लिए अस्वीकार है। इसलिए अपने देश में आर्थिक विनाश और जनता की बदहाली की कीमत पर भी सरकारें मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखती हैं। बजट घाटा कम करना भी मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखने के लिए जरूरी है। चूँकि सरकार ने खुद ही इन कठोर अनुशासनों को स्वीकार किया है, इसलिए उसका दायित्व है कि इसे लागू करे, चाहे अपने देश की अर्थव्यवस्था और व्यापक जनता पर इसका कितना ही घातक प्रभाव क्यों न हो। 

1991 में नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से ही कुछ छोटे–मोटे अपवादों को छोड़कर सरकार और रिजर्व बैंक के बीच अब तक नवउदारवादी सुर–ताल की संगत सामान्य रूप से चलती रही। फिर ऐसा क्या हो गया कि वह जुगलबन्दी बेसुरी हो गयी? दरअसल आज देश की अर्थव्यवस्था जिस आर्थिक संकट में फँसी हुई है उसे देखते हुए सम्बन्धों में दरार पड़ना लाजिमी था। मोदी के सरकार में आते ही खुदरा व्यापार, प्रतिरक्षा और वित्तीय क्षेत्र सहित तमाम क्षेत्रों में 100 प्रतिशत तक विदेशी निवेश की छूट देने और पूँजी निवेश आकर्षित करने के लिए दुनिया भर में किये गये विदेशी दौरों के बावजूद विदेशी पूँजी निवेश में अपेक्षित बढ़ोत्तरी नहीं हुई। उलटे आज विदेशी पूँजी बाहर जा रही है क्योंकि दुनिया भर में ब्याज दर बढ़ रही है। पूँजीपतियों द्वारा बैंको के कर्जे लेकर विदेश भागने और देश में रहते हुए भी कर्ज न लौटाने की वजह से बैंकिंग क्षेत्र की हालत खराब है। रिजर्व बैंक के मुताबिक 2012 से 2017 के बीच ऐसे 8670 मामले सामने आये हैं जिनमें बैंकों के 61,260 करोड़ रुपये पूँजीपतियों ने मार लिये। इसमें इस साल के आँकड़े शामिल नहीं हैं, जिनमें नवम्बर महीने में ही ऐसे 21,000 करोड़ रुपये का फ्रॉड सामने आया था। हर तिमाही रिपोर्ट में बैंकों के घाटे की रिपोर्ट आती हैं। बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों की हालत तो और भी खस्ता है जिसका सबसे बड़ा प्रमाण इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग एंड फाइनान्शियल सर्विसेज का डूबना है। इसके चलते नगदी और उधारी का जो संकट पैदा हुआ, उसके चलते छोटे और मझोले कारोबार को नये कर्ज देना मुश्किल है। अब तक सरकार नोटबन्दी के दुष्परिणामों पर पर्दा डालती रही लेकिन अब खुलकर स्वीकार रही है कि नोटबन्दी और जीएसटी की मार से पहले से खस्ता हाल छोटे–मझोले उद्यमों को नये कर्ज देना बेहद जरूरी है। बड़े बैंक तो पहले ही नये कर्ज देने की स्थिति में नहीं थे, अब वित्तीय संस्थाओं की मौजूदा हालत को देखते हुए प्रधानमंत्री द्वारा 24 घण्टे के भीतर कर्ज की बरसात के वादे का क्या होगा? कुल मिलाकर बैंकों और गैरबैंकिंग वित्तीय संस्थानों को बचाने, बजट घाटा कम करने, नये निवेश को आकर्षित करने, अर्थव्यवस्था में नगदी उढ़ेलने और संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था को तत्काल राहत देने के लिए सरकार ने रिजर्व बैंक का दरवाजा खटखटाया है।

सरकार ने रिजर्व बैंक से माँग की कि वह अपने 9.59 लाख करोड़ आरक्षित कोष में से 3.6 लाख करोड़ सरकार की तिजोरी में डाले, ताकि सरकार इस चुनावी वर्ष का बजट घाटा कम करे, अपने चहेतों को ज्यादा सरकारी सहायता दे और वित्तीय संस्थाओं को दुबारा खड़ा करे। रिजर्व बैंक एक्ट 1934 और मौद्रिक नीति कमिटी का मामला बताते हुए उसने इसे टाल दिया। सरकार ने घाटे में चल रहे बैंकों पर रिजर्व बैंक द्वारा लगाया गया नियंत्रण कम करने की माँग की, ताकि वे नये कर्जे दे सकें। इस मामले में रिजर्व बैंक ने एक हद तक छूट दी लेकिन पहले से ही कर्ज डुबाकर संकटग्रस्त बैंकों को एक हद से ज्यादा नियंत्रण मुक्त करने के लिए तैयार नहीं है। बैंकिंग क्षेत्र से अर्थव्यवस्था में नगदी के प्रवाह को बढ़ाना सरकार की तात्कालिक जरूरत है, लेकिन रिजर्व बैंक अपने नियामक दिशानिर्देश में एक हद से ज्यादा ढील देने को तैयार नहीं।

यहाँ एक बात पर ध्यान देना जरूरी है कि बैंकिंग क्षेत्र की दुर्दशा के लिए रिजर्व बैंक भी कम जिम्मेदार नहीं है। उसने तमाम वित्तीय और मौद्रिक अनियमितताओं और मनमानी शर्तों पर हद से ज्यादा कर्ज बाँटने से बैंकों को रोकने के लिए कुछ नहीं किया। चार–पाँच सालों में कर्ज डूबने की घटनाएँ लगातार बढ़ती गयीं, जिस पर कोई लगाम नहीं लगायी गयी और आखिर में जब पानी सर से ऊपर जाने लगा तो रिजर्व बैंक स्वायत्तता की आड़ में कठोर कदम उठाने, तत्काल सुधार कार्रवाई (पीसीए) और बेसेल ढाँचे की बात करने लगा। इन कठोर कदमों से नवउदारवादी ढाँचे के अनुरूप मौद्रिक मापदण्ड पर कायम रह कर भले ही साम्राज्यवादी संस्थाओं से अच्छे अंक हासिल हो जायें, लेकिन इससे उधारी और नगदी की कमी जो पहले ही विकट स्थिति में है, वह और बढ़ेगी। इसका सीधा असर देश की अर्थव्यवस्था और खासतौर से नोटबन्दी और जीएसटी की मार झेल रहे छोटे और मझोले कारोबार पर होगा। रिजर्व बैंक की तत्काल सुधार कार्रवाई से सरकार की तत्काल सुधार कार्रवाई खटाई में पड़ जायेगी। विवाद और तनातनी की वजह यही है।

सवाल यह है कि अगर रिजर्व बैंक अपनी शर्तों में थोड़ी ढील दे दे तो क्या संकट हल हो जायेगा? इसको एक उदाहरण से समझ सकते हैं। सरकार और रिजर्व बैंक के बीच 19 नवम्बर को हुई बैठक में बैंकों को कर्ज देने के लिए खुद की जरूरी पूँजी में 0.625 प्रतिशत की छूट मिल गयी। इसका मतलब यह कि 100 रुपये कर्ज देने के लिए पहले बैंकों के पास 9 रुपये अपनी पूँजी जरुरी थी, लेकिन अब 8.375 रुपये पूँजी की ही जरूरत होगी। इस छोटी सी रियायत से सरकार लगभग एक लाख करोड़ पूँजी बैंक में डालने से बच गयी और बैंक भी लगभग तीन लाख करोड़ नये कर्ज बाँटने के अधिकारी हो गये। लेकिन उधारी और नगदी संकुचन की दशा को देखते हुए बैंकों के लिए यह राहत कुछ खास नहीं है। राष्ट्रीय आवास बैंक जो भवन निर्माण के लिए कर्ज देनेवाली वित्तीय संस्थाओं का वित्तपोषण करता है, उसका मानना है कि इस शर्त में ढील दिये जाने से उसे 30,000 करोड़ नये कर्ज देने कि इजाजत मिली है, जबकि उसे तत्काल 50,000 करोड़ कर्ज देने की जरूरत है। उसने कर्ज के लिए आवश्यक पूँजी सीमा और घटाने की माँग की है। यह तो सिर्फ एक बैंक की समस्या है, यही हाल पूरे वित्तीय क्षेत्र की है। कुल मिलाकर इस छूट से समस्या थोड़ी टल जरूर गयी, हल होना तो बहुत बड़ी बात है।

समस्या कितनी गहरी है, इसे समझने के लिए अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की हकीकत को जानना जरूरी है। इसी अंक में देश की आर्थिक स्थिति का जायजा लेनेवाले तीन लेख प्रकाशित किये गये हैं, जिनकी रोशनी में हम अर्थव्यवस्था की मौजूदा हालत और मोदी सरकार की बदहवासी का सबब समझ सकते हैं। यह संकट नवउदारवादी नीतियों का ही नहीं, बल्कि मोदी सरकार के अदूरदर्शी फैसलों का भी परिणाम है।