हमारा देश एक विकट अफरातफरी और अराजकता की गिरफ्त में है। चार साल पहले भाजपा गठबन्धन सरकार के सत्ता में आने के बाद से देश का चैतरफा संकट गहराता जा रहा है। महँगाई, बेरोजगारी, भुखमरी और बदहाली लगातार बढ़ती जा रही है। सामाजिक ताना–बाना तनावग्रस्त है और छिन्न–भिन्न होने की ओर बढ़ रहा है। साम्प्रदायिक–जातीय तनाव, फूटपरस्ती और नफरत का जहरीला वातावरण तैयार किया जा रहा है तथा इस मुहिम में मीडिया, सोशल मीडिया और सत्ताधारी पार्टी के छोटे–बड़े नेता बढ़–चढ़कर भूमिका निभा रहे हैं। नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पनसरे, प्रोफेसर कुलबर्गी और गोरी लंकेश जैसे प्रसिद्ध जनपक्षधर बुद्धिजीवियों की हत्या, गोरक्षा के नाम पर शासन–प्रशासन की शह पर मुस्लिमों और दलितों की गिरोह द्वारा पीट–पीट कर हत्या, अपने तमाम विरोधियों को राष्ट्रविरोधी बताकर उन्हें देशद्रोह के मुकदमे में जेल भेजना, विरोधी पार्टी के नेताओं और वैचारिक विरोधियों के खिलाफ जाँच एजेन्सियों को पीछे लगाना, दंगे और आतंकी कार्रवाई में नामजद अपने लोगों को बरी कराना तथा लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और अभिव्यक्ति की आजादी जैसे मूल्यों की धज्जी उड़ाया जाना लगातार जारी है। हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र के नाम पर अतार्किक और समाज को पीछे ले जाने वाली मूल्य–मान्यताओं और रूढ़िवादी विचारों को बढ़ावा दिया जा रहा है। पहले भी इस तरह की छिटपुट घटनाएँ होती थीं, लेकिन अब ऐसा कोई दिन नहीं होता, जब ऐसी मनहूस खबरें अखबार के पन्नों और मीडिया की सुर्खियों में न रहती हों। लगता है, जैसे हमारे देश में जनमानस के एक बड़़़े हिस्से को एक ऐसी मनोव्याधि की ओर, एक मास हिस्टीरिया की ओर धकेल दिया गया हो, जहाँ उनकी अपनी जिन्दगी की दिन–ब–दिन गहराती समस्याएँ और चिन्ताएँ विवेकहीन, विनाशक और हवाई मुद्दों के शोर–शराबे में गायब हो गयी हों।

2014 में भाजपा हिन्दूराष्ट्र के नाम पर नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार, कालाधन, महँगाई और बेरोजगारी मिटाने, देश की सभी समस्याओं का समाधान करने का वादा करके सत्ता में आयी थी। मनमोहन सरकार के दौरान कोयला घोटाला, टेलीकॉम घोटाला और राष्ट्रमण्डल खेल घोटाला जैसे भ्रष्टाचार के नये–नये मामलों से लोगों में काफी आक्रोश पैदा हुआ था। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आन्दोलन में लोगों की बढ़–चढ़कर भागीदारी को भुनाते हुए, भाजपा ने भी भ्रष्टाचार मुक्त भारत का नारा दिया। साथ ही कांग्रेस की नवउदारवादी नीतियों–– निजीकरण, उदारीकरण के चलते लोगों की जिन्दगी बद से बदतर होती जा रही थी। महँगाई, बेरोजगारी, छँटनी–तालाबन्दी से लोग त्रस्त थे। किसान–मजदूर आत्महत्या कर रहे थे। ऐसे में जब नरेन्द्र मोदी की विकास पुरुष और करिश्माई व्यक्तित्व की छवि बनायी गयी तो हताश–निराश लोगों के मन में एक उम्मीद जगी। चुनावी रैलियों और मीडिया में विज्ञापन के जरिये भाजपा ने वादों की झड़ी लगा दी। विदेशों से काला धन वापस लाना, 24 घण्टे बिजली–पानी, फसलों के वाजिब दाम, हर साल दो करोड़ रोजगार, महँगाई पर रोक, अर्थव्यवस्था के विकास में तेजी लाना, टैक्स आतंकवाद खत्म करना, महिलाओं को सुरक्षा की गारंटी, इत्यादि पिछले चार सालों में इन वादों का देश भर जो मजाक बना वह किसी से छिपा नहीं है।

‘अच्छे दिन’ के इन लुभावने नारों के साथ–साथ भाजपा की जीत के दो अन्य महत्त्वपूर्ण कारण थे। पहला, सभी पार्टियों के पदलोलुप और दलबदलू नेताओं की भाजपा में भर्ती और अपने स्थापित नेताओं को किनारे करके अवसरवादी तरीके से दलबदलू नेताओं को टिकट देना, जिसके चलते सौ से ज्यादा गैर भाजपा सांसद भाजपा के टिकट पर जीतकर संसद में आये। दूसरा, मुजफ्फरनगर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई अन्य जिलों में योजनाबद्ध तरीके से कराये गये हिन्दू–मुस्लिम दंगे, जिनके बारे में खुद भाजपा नेताओं ने खुलेआम स्वीकार किया था कि इससे उन्हें चुनाव में लाभ मिलेगा और मिला भी। इस तरह भाजपा को चुनाव में बहुमत हासिल हुआ। नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने, अमितशाह को पार्टी अध्यक्ष बनाया और उन पर चल रहे अपराधिक मुकदमें खत्म कराये।

सत्ता में आते ही मोदी–शाह की जोड़ी ने एक तरफ देशी–विदेशी पूँजी की बेलगाम लूट को जारी रखने वाली नवउदारवादी नीतियों को मनमोहन सिंह से भी तेज और आक्रामक तरीके से लागू किया तथा दूसरी ओर संघ के हिन्दुत्ववादी–फासीवादी एजेण्डे को बढ़–चढ़कर आगे बढ़ाना शुरू किया। दरअसल नवउदारवादी नीतियाँ और साम्प्रदायिक फासीवाद दोनों ही एक–दूसरे के सहायक और पूरक हैं। कारण यह कि लगातार संकट के भँवर में फँसता भारतीय पूँजीवाद अपने इस विकट दौर में अपने ऊपर किसी भी तरह की पाबन्दी और अंकुश बर्दाश्त नहीं कर सकता। 1991 के बाद कांग्रेस की सरकारों ने चरम शोषण और लूट पर आधारित अपनी नग्न पूँजीवादी आर्थिक नीतियों और नेहरू युग की लोकतांत्रिक संस्थाओं के बीच यथासम्भव तालमेल बिठाने का रास्ता अपनाया था। उनके लिए अपनी परम्परागत लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष छवि से पूरी तरह मुँह मोड़ लेना आसान नहीं था। लोकतंत्र नहीं तो उसका मुखौटा और लबादा ही सही। लेकिन यही उनकी सीमा थी, जिसके चलते उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण की नीतियों को वे उतना सरपट नहीं दौड़ा पाये थे, जितना मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही कर दिखाया। सरकार बनाने के कुछ ही दिनों बाद खुदरा व्यापार, रक्षा उद्योग, दवा, खाद्य प्रसंस्करण, उड्डयन सहित 13 क्षेत्रों में 100 प्र्रतिशत विदेशी पूँजी निवेश की इजाजत और इस राह में आने वाली सभी बाधाओं को हटाना इसका सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा था। इसके लिए अपनी विचारधारा के अनुरूप लोकतांत्रिक संस्थाओं को तहस–नहस करना भी जरूरी था क्योंकि उनमें पहले से आसीन अधिकांश व्यक्तियों की उदारवादी, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष विचारधारा और पुरानी कार्यशैली के साथ संघ की निरंकुश, सर्वसत्तावादी, फासीवादी विचारधारा और कार्यशैली का कोई मेल नहीं था।

इस हमले का पहला निशाना बना योजना आयोग, जिसकी जगह नीति (नेशनल इण्डस्ट्रियल फॉर ट्रांस्फोर्मिंग इंडिया) आयोग नाम से तकनीकी सलाहकारों का एक निकाय, संसद से बाहर मंत्री परिषद की बैठक में प्रस्ताव पास करके गठित कर लिया गया। इस निकाय को योजना बनाने या धन आवंटित करने का अधिकार नहीं है। इस निकाय के पहले उपकुलपति अरविन्द पनगढ़िया ने कहा था कि कुछ महत्त्वपूर्ण कानूनों को बदलने के लिए शासनादेश व्यवहार्य होगा। यानी वे कानून बदलने के लिए संसद की औपचारिक स्वीकृति भी जरूरी नहीं मानते।

भाजपा के वैचारिक हमले का अगला निशाना न्यायपालिका को बनाया गया, जहाँ न्यायाधीशों की नियुक्ति कोलेजियम की जगह नेशनल ज्यूडीसियरी अप्वाइंटमेंट कमीशन की स्थापना करके न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका के हाथों में सौंपने का प्रयास जारी है। ऐसी ही कोशिश नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) जैसी संवैधानिक और स्वायत्त संस्थाओं को संसद और सरकार के अधीन लाने की भी हो रही है। कैग ने पिछली सरकार के बड़े–बड़े घोटालों को उजागर किया था और इस सरकार के लिए भी आँख की किरकिरी बनी हुई है।

हिन्दुत्व की विचारधारा का सबसे बड़ा और चैतरफा हमला उच्च शिक्षण संस्थाओं और साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थानों पर हुआ। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष पद पर आरएसएस से जुड़े एक ऐसे व्यक्ति को बैठाया गया जिनका इतिहासकार के रूप में कोई पहचान नहीं है। उनकी इच्छा रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक ग्रंथों की ऐतिहासिकता प्रमाणित करनी है। भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद के प्रमुख पद पर नियुक्त लोकेश चन्द्रा नरेन्द्र मोदी को महात्मा गाँधी से भी महान और भगवान का अवतार मानते हैं। इसी तरह फिल्म एण्ड टेलीविजन इन्स्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई), भारतीय प्र्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), भारतीय प्रबन्धन संस्थान (आईआईएम), भारतीय सांख्यिकी संस्थान (आईएसआई), भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (आईआईएएस) सहित कई विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति में योग्यता और अर्हता का मापदण्ड गिराने को लेकर विवाद सामने आया।

पहले भी सरकारें अपने पसन्द के लोगों की नियुक्ति ऐसे महत्त्वपूर्ण पदों पर करती रही हैं, लेकिन यहाँ विवाद उच्च पदस्थ व्यक्तियों की वांछित योग्यता को लेकर सामने आया, क्योंकि इन पदों पर पहले विश्वविख्यात विद्वानों ने ज्ञान–विज्ञान के नये क्षितिज खोलने में अपनी अप्रतिम सेवाएँ दी हैं। यह सवाल दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं का ही है। धर्म–केन्द्रित चिन्तनधारा यथास्थिति की पोषक, अतीतग्रस्त और परम्परा पूजक होती है। प्राचीन काल की श्रेष्ठ संस्कृति में हर अच्छाई की तलाश करना और परम्परागत ज्ञान को महिमामण्डित करना ही इनकी बौद्धिकता का अन्तिम लक्ष्य होता है। हालाँकि उस ज्ञानयुग को वापस लाना या वर्तमान युग के साथ उसका समन्वय स्थापित करना भी व्यवहार्य नहीं, क्योंकि आज मानव–ज्ञान उससे सादियों आगे निकल चुका है। इस तरह उनके सामने ज्ञान–विज्ञान को उन्नत करने की चुनौती नहीं होती। दूसरी ओर मानवकेन्द्रित सांसारिक चिन्तनधारा अतीत के सकारात्मक तत्वों को लेकर आगे बढ़ती है तथा अब तक के समस्त ज्ञान–विज्ञान का सदुपयोग वर्तमान के गतिरोध को तोड़ने और उसे भविष्य के प्रगति पथ पर ले जाने में करती है। वह पुरातन मूल्य–मान्यताओं, विधि–निषेधों और परम्पराओं को समय सापेक्ष नये अनुसंधानों की रोशनी में परिष्कृत करके लोकहित के अनुरूप ढालती है। यही कारण है कि दक्षिण–पंथी विचारधारा के खेमे में बुद्धिजीवियों का अभाव है। जो लोग हैं भी, उनकी विचारधारा संविधान सम्मत उदारवादी, लोकतांत्रिक विचारों के विपरीत है। जिन संस्थाओं में उन्हंे स्थापित किया गया, उनको अपने विचारों के अनुरूप ढालने के उनके प्रयासों से यह स्पष्ट होता है कि ज्ञान–विज्ञान को लेकर उनकी समझ और उनका उद्देश्य क्या है?

भाजपा के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपने विरोधियों के बारे में कहा था कि “अगर मैं इस देश को सोने से पोलिश कर दूँ तो भी वे खुश नहीं होंगे। उनको हमसे एक ही समस्या है, हमारी विचारधारा।’’ (द वीक, 16 जुलाई 2017) निश्चय ही संघ–भाजपा की विचारधारा ही है जो उनकी आर्थिक–राजनीतिक–सांस्कृतिक राणनीति के रूप में सामने आती है। हिन्दूराष्ट्र के रूप में धार्मिक या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की उनकी विचारधारा संविधान के अन्तर्गत सर्वस्वीकृत लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और मानवाधिकार की विचारधारा से कदम–कदम पर टकराती है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री से लेकर संघ परिवार का आम कार्यकर्ता तक, धर्मनिरपेक्षता और धर्मनिरपेक्ष लोगों का मजाक उड़ाते हैं। प्रधानमंत्री द्वारा जापान के सम्राट को ‘गीता’ भेंट करते हुए धर्मनिरपेक्ष लोगांे का मजाक उड़ाना और जर्मनी में संस्कृत पर बोलते हुए धर्मनिरपेक्षता को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना इसका उदाहरण है। संविधान की कसम खाकर संसद में प्रवेश करने  गृहमंत्री ने संसद में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता पर आक्रामक भाषण दिया था। राष्ट्रपति कोविन्द ने ईसाई और मुस्लिमों के साथ भेदभाव को इस आधार पर जायज ठहराया था कि वे भारत के लिए पराये हैं। उन्होंने कहा था कि अनुसूचित जाति के लोगों द्वारा धर्म परिवर्तन किये जाने पर उनके विशेष अधिकार छीन लिये जायें। जाहिर है कि ये सभी विचार संविधान में निहित बहुलतावादी धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध हैं। यही कारण है कि संघ और भाजपा की ओर से संविधान को गुलामी का दस्तावेज बताते हुए अक्सर इसकी जगह नया संविधान बनाने की बातें भी उठती रहती हैं।

यह विचारधारा अचानक प्रकट नहीं हुई है। इसका इतिहास काफी पुराना है। गाँधी की हत्या करने वाले गोडसे ने इसी विचारधारा को व्यवहार में उतारा था। उसने अदालत में दिये गये अपने बयान में कहा था कि उसने गाँधी और सावरकर की विचारधारा को पढ़ा और सावरकर से प्रभावित हुआ, गाँधी को खारिज कर दिया। गाँधी की विचारधारा के बढ़ते प्रभाव से निराश होकर उसने उनकी हत्या कर दी। उसके भाई गोपाल गोडसे ने भी स्वीकार किया था कि वे दोनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा के सदस्य थे जो हिन्दू राष्ट्रवाद की वकालत करते थे। (जीडी खोसला, मनोहर मूलगाँवकर)।

गाँधी हत्या के मामले में 27 फरवरी 1948 को नेहरू को लिखे अपने पत्र में सरदार पटेल ने बताया था––“बापू की हत्या के मामले में मैं रोज–ब–रोज खुद उसकी प्रगति को देख रहा हूँ–––– हिन्दू महासभा के उन्मादी गिरोह ने सीधे सावरकर के अधीन यह षडयन्त्र रचा और उसे अंजाम दिया।” आजादी के पहले और बाद के कई जाँच आयोगों की रिपोर्टों मेंे भी साम्प्रदायिक दंगे कराने में इस विचारधारा की भूमिका की पुष्टि हुई।

जहाँ तक राष्ट्रवाद का सवाल है आज पूरी दुनिया में यह विचारधारा गुजरे जमाने की बात हो चुकी है, क्योंकि 1990 के बाद राष्ट्रवाद के अलम्बरदारों ने खुद ही वैश्वीकरण करने और राष्ट्रवाद को तिलांजलि देने का सामूहिक निर्णय ले लिया। यूरोप के एकीकरण से इसे साफ तौर पर समझा जा सकता है, जहाँ भाषाई–भौगोलिक इलाके के बँटवारे और राष्ट्रराज्य की स्थापना के लिए खूनी संघर्ष हुए थे। राष्ट्रवाद का आधार अलग–अलग राष्ट्रीय पूँजीपतियों द्वारा अपने लिए अलग बाजार की माँग था। इस तरह राष्ट्रवाद जो कभी राष्ट्रीय मंडियों में पैदा हुआ था, अब विश्वव्यापी मंडी में तिरोहित हो गया। भारत में राष्ट्रवाद विदेशी गुलामी के खिलाफ संघर्ष में जनता को एकजुट करने के अस्त्र के रूप में उभरा था। विडम्बना यह है कि आज के शासक जो विदेशी पूँजी की नयी गुलामी को आगे बढ़ा रहे हैं, वे आज राष्ट्रवाद के सबसे बड़े पैरोकार बने हुए हैं। भारत के कथित राष्ट्रवादी जो कभी स्वदेशी का राग अलापते थे, अब विदेशी बाजार से अपना भाग्य जोड़े हुए है, डॉलर महाप्रभु की आरती उतारते हैं और देश में विदेशी पूँजी निवेश के लिए लालायित रहते हैं। लेकिन जनता को धोखा देने के लिए राष्ट्रवाद ही नहीं, अंध राष्ट्रवाद की घुट्टी पिलाते हैं। नीतिगत फैसले राष्ट्रवाद से नहीं बल्कि वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण के आधार पर होते हैं। लेकिन जनता के आक्रोश और असंतोष की दिशा भटकाने और असली समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए छद्म राष्ट्रवाद का सहारा लिया जाता है। उन्हें देशभक्ति की अफीम चटायी जाती है। यही नहीं, जनविरोधी नीतियों के खिलाफ लड़ने या सरकार का विरोध करने वालों पर अंग्रेजों द्वारा 1870 में बनाया गया देशद्रोह कानून थोपा जाता है।

साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में अपनी ऐतिहासिक प्रासंगिकता से रहित राष्ट्रवाद, भले ही वह हिन्दू राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवरण में दिखता हो, लेकिन वह छद्म राष्ट्रवाद, संकीर्ण राष्ट्रवाद, आक्रामक राष्ट्रवाद, अन्ध राष्ट्रवाद और सही मायने में फासीवादी राष्ट्रवाद ही हो सकता है। यहाँ फासीवादी राष्ट्रवाद की अवधारणा पर विचार कर लेना भी समीचीन होगा। मुसोलिनी ने फासीवाद के पाँच सिद्धान्त गिनवाये थे–– राजसत्ता के हितों को व्यक्ति के अधिकार के ऊपर रखना, राष्ट्र के ऊपर राजसत्ता की वरीयता, लोकतंत्र का परित्याग, राजसत्ता का धर्मनिरपेक्ष न होकर किसी एक खास धर्म को सम्मान और संरक्षण देना तथा राजसत्ता को पूरे राष्ट्र की अन्तश्चेतना मानना। इन बातों का हमारे संविधान की मूल भावना और उसके द्वारा जनता को दिये गये मूलभूत अधिकारों से कोई लेना देना नहीं है। एक बात और विचारणीय है कि फासीवाद उस जर्मनी में आया था जिसकी उत्पादक शक्तियाँ काफी उन्नत थीं, वह दुनिया भर में कच्चे माल के स्त्रोतों और अपने तैयार माल के लिए बाजार पर कब्जे का सपना देखता था। आज के संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था के मालिक, हमारे देश के शासक जो दुनिया भर में पूँजी और तकनीक के लिए दौड़–भाग कर रहे हैं और उसी के भरोसे अपनी अर्थव्यवस्था में जान फूँकने का सपना देखते हैं, वे उस विनाशकारी फासीवाद का हौवा खड़ा करके सिर्फ जनता को नकली मुद्दों में उलझाकर अपनी नाकामियों को छिपाने की कोशिश कर सकते हैं। वे यही कर रहे हैं।

आर्थिक संकट और जनता की बुनियादी समस्याओं को हल करने में नाकाम शासक उस पर पर्दा डालने के लिए तरह–तरह के उपायों के साथ–साथ हर तरह के जनान्दोलन और राजनीतिक विरोध का दमन करते हैं। इससे आर्थिक संकट तो असमाधेय होता ही है, राजनीतिक संकट भी गहराता है। ऐसी स्थिति में आमूल परिवर्तन के लिए मनोगत शक्तियाँ कमजोर हों और अपनी भूमिका न निभा पायें तो चारों ओर अराजकता और तबाही का आलम छा जाता है। आज देश की लगभग ऐसी ही स्थिति है। सामाजिक जीवन का हर पहलू संकट की गिरफ्त में है। सही विकल्प के अभाव में यह व्यवस्था महज अपनी जड़ता के आवेग से घिसट रही है। ऐसे ही माहौल के बारे में शहीदे आजम भगत सिंह ने कहा था––

“जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है तो वे किसी भी प्रकार की तब्दीली से हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रान्तिकारी स्पिरीट पैदा करने की जरूरत होती है। अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है। लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ जनता को गलत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती हैं और उनमें गतिरोध आ जाता है।

इस परिस्थिति को बदलने के लिए जरूरी है कि क्रान्ति की भावना ताजा की जाये, ताकि इंसानियत की रूह में हरकत पैदा हो।”

आज इसी काम को आगे बढ़ाने की जरूरत है।