जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में देशभक्ति बनाम अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर फरवरी माह में जो बवंडर उठा था उसका धूल–गुबार अब काफी हद तक छँट गया है। यह सच्चाई आज सबके सामने है कि 9 फरवरी को जेएनयू के एक कार्यक्रम में कुछ लोगों द्वारा भारत–विरोधी और पाकिस्तान समर्थक नारे लगाते हुए जिस विडियो को कुछ समाचार चैनलों पर बार–बार दिखाकर देशभर में उन्मादी माहौल बनाया गया था, वह विडियो ही फर्जी था। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने हाफिज सईद के जिस ट्वीटर सन्देश के हवाले से यह बयान दिया था कि जेएनयू की घटना को पाकिस्तानी आतंकी संगठन का समर्थन प्राप्त है, उस ट्वीटर अकाउंट को भी गृहमंत्रालय के अधिकारियों ने ही फर्जी बताया। जिन तीन छात्रों पर राजद्रोह का मुकदमा लाद कर गिरफ्तार किया गया था, उन्हें जमानत मिल गयी। केन्द्र सरकार और संघ परिवार द्वारा तमाम मनगढ़न्त और झूठे आरोपों के जरिये जेएनयू को बदनाम करने और देशद्रोही साबित करने के सभी प्रयास विफल हो गये। पूरे प्रकरण ने देशभक्ति और राष्ट्रवाद की दो परस्पर विरोधी अवधारणा को लेकर पुराने विवाद को दुबारा खोल दिया। इस मुद्दे को लेकर देश में जो खेमाबन्दी हुई और तर्क–कुतर्क का जो सिलसिला शुरू हुआ है उसका देश के भविष्य पर दूरगामी असर होना लाजमी है। यह वैचारिक संघर्ष भारत के इतिहास, वर्तमान और भविष्य को लेकर दो परस्पर विरोधी–दृष्टिकोणों के बीच है। हालाँकि प्रगतिशील विचारों के हामी लोगों के मन में इन मुद्दों पर कोई गलतफहमी नहीं है। बहुत पहले ही नकली देशभक्ति और छद्म राष्ट्रवाद की कलई खुल चुकी है। फिर भी आज, जब विचार और व्यवहार के धरातल पर जाँची परखी स्थापित मान्यताओं को लेकर विभ्रम फैलाया जा रहा है तो उन सर्वमान्य सच्चाईयों को फिर से रेखांकित करना जरूरी है, ताकि देशभक्ति और राष्ट्रवाद की आड़ में प्रतिक्रियावादी ताकतों के असली मंसूबों को सामने लाया जा सके।

एक ऐतिहासिक श्रेणी के रूप में राष्ट्रवाद का जन्म यूरोप में राष्ट्र–राज्यों के गठन की माँग के साथ सोलहवीं सदी में हुआ था। यह सामन्तवाद के पतन और पूँजीवाद के उभार का दौर था। इसके मूल में नवोदित पूँजीपति वर्ग द्वारा अपने लिए राष्ट्रीय बाजारों की स्थापना का मंसूबा था। राष्ट्र का आधार किसी एक भौगोलिक क्षेत्र मे एक भाषा बोलने वाले एक समान सांस्कृतिक परिवेश में जीने वाले लोग थे, जिनकी राष्ट्र के रूप में अलग पहचान और उस राष्ट्र राज्य की सम्प्रभुता स्थापित करना उस दौर के पूँजीपति वर्ग का लक्ष्य था। उस खास इलाके के शोषण और लूट पर उसी राष्ट्र के पूँजीपति अपना वर्चस्व चाहते थे, जैसे अंग्रेज ब्रिटेन के ऊपर, फ्रांसीसी फ्रांस के ऊपर, इटालियन इटली के ऊपर अपना एकछत्र राज्य चाहते थे। इस तरह राष्ट्रवाद का प्रेरक विभिन्न इलाकों के राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग का आर्थिक स्वार्थ था। इसमें दूसरी राष्ट्रीयताओं के प्रति नफरत और जोर जबरदस्ती अन्तर्निहित थी। इसी राष्ट्रीयता के चलते यूरोप में विभिन्न इलाकों और भाषाभाषी लोगों के बीच खूनी संघर्ष हुआ। राष्ट्र के नाम पर ही मुट्ठी भर पूँजीपति एक बड़ी आबादी को अपने हितों की रक्षा के लिए एकजुट करने और अपना अनुयायी बनाने में सफल हुए। निश्चय ही राष्ट्रीयता की पहचान ने यूरोपीय राष्ट्रराज्यों के एकीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी, लेकिन इसने वर्गीय आधार पर एक ही राष्ट्रीयता के भीतर होने वाले शोषण, विषमता और भेदभाव पर पर्दा डालने का भी काम किया।

भारत में राष्ट्रवादी चेतना का उदय अंग्रेजी राज में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के दौरान हुआ था। अंग्रेजों के आने के साथ ही भारतीय समाज के ऐतिहासिक विकास की स्वाभाविक गति अवरुद्ध हुई। यहाँ सामन्तवादी समाज से पूँजीवादी समाज में संक्रमण के दौरान स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व के मूल्यों पर आधारित एक स्वस्थ पूँजीवादी समाज के विकास की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई। अंग्रेज उपनिवेशवादियों ने भारतीय सामन्तवाद को मजबूत किया और उसे अपना सामाजिक अवलम्ब बनाया। साथ ही उसने पूरे भारत में एक उपनिवेशवादी संरचना को जन्म दिया और औपनिवेशिक दासता को कायम रखने के उद्देश्य से प्रशासनिक तंत्र, रक्षा तंत्र, शिक्षा व्यवस्था, कानून इत्यादि की स्थापना की। कालान्तर में इस उपनिवेशवादी संरचना के प्रभाव में और उसी के भीतर से एक बहुत ही छोटा सा मध्यम वर्ग पैदा हुआ। साथ ही इस औपनिवेशिक ढाँचे के भीतर से एक विकृत पूँजीवाद भी विकसित हुआ। यही मध्यम वर्गीय तबका राष्ट्रवाद का वाहक बना। राष्ट्रवाद के जन्म के लिए यह जरूरी शर्त है कि समाज और जनमानस में मौजूद जातिवाद, भाषायी और क्षेत्रीय संकीर्णता के विभाजन कमजोर हों और राष्ट्रीय पहचान की चेतना का विकास हुआ हो। सुधारवादी आन्दोलनों और राष्ट्रीय नेताओं ने इस दिशा में एक हद तक प्रयास किया। उन्होंने सामन्ती संस्कृति के संकीर्ण सामाजिक बँटवारों और आपसी भेदभाव पर यथासम्भव प्रहार किया तथा जनता के बीच एकता और देशप्रेम का प्रचार किया। इसके मूल में अंग्रेजों के शोषण–उत्पीड़न और भारतीय जनता को गरीबी, भुखमरी से छुटकारा दिलाने के लिए मिलजुल कर संघर्ष करने का लक्ष्य था। इस सम्बन्ध में 1901 में प्रकाशित दादा भाई नैरोजी की पुस्तक “भारत में गरीबी और गैर–ब्रिटिश शासन” की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी, इसके अलावा अंग्रेजी राज की आलोचना करते हुए कई राष्ट्रीय नेताओं ने लेख और पुस्तकें लिखकर जनता को जागृत किया। राष्ट्रवादी साहित्यकारों ने गीत, कविताएँ, कहानी और उपन्यास लिखे। उन्होंने भारतीय जनता की कंगाली और बदहाली के लिए ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन को जिम्मेदार ठहराया और राष्ट्रवादी विचारों से लैस होकर उसके खिलाफ संघर्ष का आह्वान किया।

संकीर्ण सामाजिक भेदभाव और बँटवारों से ऊपर उठकर व्यापक जनता की एकता पर आधारित राष्ट्रवादी आन्दोलन की धारा काँग्रेस में मूर्त हुई। गाँधी के आह्वान पर राष्ट्रीय आन्दोलन में बड़े पैमाने पर जनता की भागीदारी शुरू हुई। साथ ही भावी भारत की तस्वीर भी सामने आयी, जो काँग्रेस के कराची अधिवेशन में स्वीकृत प्रस्ताव में अभिव्यक्त हुई। इसमें राजनितिक स्वतंत्रता को असंख्य भूखे लोगों की आर्थिक स्वाधीनता के साथ जोड़ा गया। सार्विक मताधिकार, धर्मनिरपेक्षता, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, स्त्री–पुरुष समानता और सामाजिक न्याय को लोकतांत्रिक राष्ट्र की बुनियाद बताया गया। राष्ट्रवाद की इसी अवधारणा के साथ सहमती जताते हुए उस दौर के समाजवादी और साम्यवादी नेता और कार्यकर्ता भी काँग्रेस के कार्यक्रमों में शामिल हुए और उसका समर्थन किया। इस समझ के आधार पर राष्ट्रीय आन्दोलन तेजी से आगे बढ़ा तथा इसमें मजदूरों, किसानों, महिलाओं और शोषित–पीड़ित तबकों की भागीदारी बढ़ती गयी। लेकिन इसी दौरान राष्ट्रवाद की इस अवधारणा के प्रति साम्प्रदायिक हिन्दु–मुस्लिम संगठनों और नेताओं का विरोध भी सामने आया। साइमन कमीशन की रिपोर्ट में धर्म और भाषा के भेद को आधार बताते हुए कहा गया था कि भारत एक राष्ट्र नहीं है। इसने दो राष्ट्र के बेबुनियाद और मनगढंत सिद्धान्त को मजबूती प्रदान की क्योंकि यह सर्वविदित है कि राष्ट्रवाद का आधार केवल भाषा संस्कृति और निश्चित भूभाग होता है, धर्म इसका घटक नहीं होता। एक ही राष्ट्र के भीतर कई धर्मों के अनुयायी शामिल होते हैं। बहरहाल अंग्रेजों की चाल सफल रही। 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने “हिन्दू राष्ट्र” को अपना आदर्श बना लिया जिसमें मुसलमानों या अल्पसंख्यकों के लिए कोई जगह नहीं थी। दूसरी ओर रहमत अली ने 1930 में पाकिस्तान की अवधारणा प्रस्तुत की, जिसे मुस्लिम लीग ने 1940 में स्वीकार किया। इस तरह अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक साम्प्रदायिक शक्तियों ने धर्म के आधार पर दो राष्ट्र के सिद्धान्त और भारत के विभाजन को बढ़ावा दिया। इसने राष्ट्रीय आन्दोलन को कमजोर किया और ‘अंग्रेजों के बाँटो और राज करो’ के मंसूबे को मजबूत किया। यही नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने स्वाधीनता आन्दोलन से हमेशा अपने आप को अलग रखा। जिस समय पूरा देश आपसी भेदभाव भुलाकर आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, उस समय वे हिन्दुओं के तथाकथित स्वाभिमान को जगाने, अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत फैलाने और दंगे कराने में लिप्त थे।

मुख्य धारा की राष्ट्रवादी राजनीति के प्रयासों और दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भी विशेष राष्ट्रीय–अन्तरराष्ट्रीय परिस्थिति के संयोग से 1947 में भारत को राजनीतिक आजादी हासिल हुई। संविधान में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के आदर्शों को शामिल किया गया। लेकिन भारतीय राज्य लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय को अमलीजामा पहनाने में अक्षम साबित हुआ। पूँजीपति वर्ग को दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की का मौका दिया, लेकिन व्यापक जनता की बदहाली दिनों–दिन बढ़ती गयी। सामन्तवाद से समझौते के कारण उसके आर्थिक आधार को निर्मूलन नहीं किया गया। साथ ही प्रतिगामी सांस्कृतिक मूल्य–मान्यताएँ भी कायम रहीं। नये शासक वर्ग ने जनता से किये गये वादों को पूरा करने से मुँह मोड़ लिया। फलस्वरूप, राष्ट्रीय आन्दोलन की सकारात्मक ऊर्जा आजादी मिलने के साथ ही क्षरित होनी शुरू हो गयी। जन आकांक्षाओं को पूरा करने और जनता के जीवन में खुशहाली लाने में अक्षम तमाम पूँजीवादी पार्टियों ने धर्म और जाति के नाम पर जनता के मन में फूट डालने का काम किया। काँग्रेस से मोहभंग का लाभ उठाते हुए साम्प्रदायिक हिन्दू संगठनों ने अपना आधार जमाना शुरू किया। बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात नरसंहार घटनाओं को काँग्रेस ने मौन समर्थन दिया, जिसने हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण और भाजपा के सत्तासीन होने में सहायता पहुँचायी। 1982 में भाजपा के केवल दो सांसद थे जो बढ़ते साम्प्रदायिक विद्वेष के साथ यह बढ़ते–बढ़ते अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकार और 2014 में नरेन्द्र मोदी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार के रूप में परिणत हुआ।

2014 में भाजपा ने हिन्दू राष्ट्र के नाम पर नहीं, बल्कि नरेन्द्र मोदी को विकास पुरुष के रूप में प्रस्तुत करके चुनाव लड़ा। मनमोहन सिंह की सरकार की नव उदारवादी नीतियों–– निजीकरण, उदारीकरण के चलते लोगों का जीना दूभर हो गया था। ऐसे में लोगों के सामने नरेन्द्र मोदी की छवि सारी समस्याओं का हल करने वाले करिश्माई व्यक्ति के रूप में पेश की गयी तो लोगों को निराशा के माहौल में इससे उम्मीद जगी और इसका भरपूर लाभ भी भाजपा को मिला। लेकिन सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने मनमोहन सिंह की पूँजीपरस्त नव उदारवादी नीतियों को बढ़–चढ़कर लागू करना शुरू किया। चुनाव में किये गये वादे खोखले साबित हुए। तीन महीने में काला–धन वापस लाने वाले विकास पुरुष ने सरकार में आने पर काला–धन के मालिकों और सरकारी कर्ज हड़पने वालों के नाम बताने से भी इन्कार कर दिया। भ्रष्टाचार का दानव पहले की तरह ही दहाड़ता रहा। अदानी, अम्बानी जैसे चहेते पूँजीपतियों के लिए सरकारी खजाने का मुँह खोल दिया गया। हर क्षेत्र में विदेशी पूँजी को न्योता और उनके लिए हर तरह की छूट की घोषणा की गयी। 24 घंटे बिजली, फसलों के वाजिब दाम, नौजवानों के लिए रोजगार, महँगाई पर रोक जैसे वादे उलटे अर्थ में सामने आये। रोजगार देना तो दूर, हर जगह छँटनी तालाबन्दी शुरू हुई, बेरोजगारी पहले से भी तेजी से बढ़ने लगी। पहले से भी अधिक संख्या में किसानों ने आत्महत्या की। अच्छे दिन लाने का जुमला मजाक में बदल गया। सरकारी स्कूल बन्द किये गये, कॉलेज, विश्वविद्यालय की फीस में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई, छात्रों के वजीफे बन्द किये गये। शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सहूलियतों और सरकारी सहायता में भारी कटौती करके बदले में पूँजीपतियों के टैक्स माफ किये गये और उन्हें हर तरह की सहूलियतें दी गयीं। दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्याकों ओर वैचारिक विरोधियों पर हमला तेज हुआ। यही नहीं सरकार की तरफ उठने वाली हर आवाज को दबाने के लिए देश में अघोषित आपातकाल जैसी स्थिति पैदा कर दी गयी। एक साल बीतते–बीतते विकास पुरुष की कलई खुल गयी।

आर्थिक क्षेत्र में काँग्रेस सरकार से भी खराब प्रदर्शन और उससे उत्पन्न जनता के असन्तोष से ध्यान हटाने वाले मुद्दे उछालने और हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे को आगे बढ़ाने का प्रयास 2014 में सरकार बनने के बाद से ही शुरू हो गया। देशी–विदेशी पूँजी की सेवा के समान्तर लव जेहाद, घर वापसी, गो मांस पर रोक, पाठ्यक्रमों में फेर बदल, भारत के अतीत का महिमामंडन, विश्वविद्यालयों का साम्प्रदायीकरण, अकादमिक संस्थानों में अयोग्य व्यक्तियों की नियुक्ति और उन संस्थाओं का अवमूल्यन, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष कला–संस्कृति पर हमले और उन पर रोक जैसी कार्रवाइयों में संघ से जुड़े संगठनों को भरपूर सरकारी संरक्षण दिया गया। देशभक्ति बनाम देशद्रोह का विवाद और हिन्दू राष्ट्रवाद का उन्मादी प्रचार इसी की अगली कड़ी है। आज हमारे देश में गम्भीर आर्थिक संकट, बढ़ती बेरोजगारी, खेती की तबाही, भुखमरी, गरीबी, सामाजिक विघटन, भ्रष्टाचार, लूट–खसोट, प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन और पर्यावरण विनाश जैसी समस्याएँ अपने चरम पर हैं। इन असली समस्याओं से ध्यान हटाकर फर्जी राष्ट्रवाद का गर्द–गुबार फैलाना और इसके खिलाफ उठने वाली आवाज को दबाना क्या यही देशभक्ति है?

आज के दौर में भारत सहित दुनिया भर के राष्ट्रवाद के अलम्बरदारों ने वैश्वीकरण करने और राष्ट्रवाद को तिलांजलि देने का सामूहिक निर्णय लिया। यूरोप के एकीकरण से इसे समझा जा सकता है, जहाँ किसी दौर में भाषाई–भौगोलिक इलाके के बँटवारे के लिए खूनी संघर्ष चला था, लेकिन अब सभी राष्ट्रों के शासक–पूँजीपति आपस में मिलकर लूटने–खाने पर सहमत हो गये। यानी राष्ट्रवाद जो राष्ट्रीय मंडियों में पैदा हुआ था और अब विश्वव्यापी मंडी में तिरोहित हो गया।

भारत के काथित राष्ट्रवादी भी जो कभी स्वदेशी का राग अलापते थे, अब विदेशी बाजार से अपना भाग्य जोड़े हुए हैं। डॉलर महाप्रभु की आरती करते हैं और देश में विदेशी पूँजी निवेश के लिए लालायित रहते हैं। लेकिन जनता को धोखा देने के लिए उसे राष्ट्रवाद ही नहीं, बल्कि अंधराष्ट्रवाद की घुट्टी पिलाते हैं। उनका राष्ट्रवाद पाकिस्तान और मुसलमान के खिलाफ विषवमन से शुरू होता है और वहीं जाकर खत्म हो जाता है। लेकिन जब नीतिगत फैसला लेना होता है तो राष्ट्रवाद नहीं बल्कि वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियाँ ही लागू की जाती हैं। दूसरी ओर जनता के असन्तोष और आक्रोश की दिशा भटकाने के लिए छद्म राष्ट्रवाद का सहारा लिया जाता है। देश की असली समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए जनता को देशभक्ति की अफीम चटायी जाती है।

यह छद्म देशभक्ति कुर्सी पाने और बचाने तक ही सीमित है। इसमें देश के गरीब किसानों, मजदूरों, दलितों–शोषितों और महिलाओं के लिए कितनी जगह है, इसे इन देशभक्तों के शब्दजाल से नहीं, बल्कि उन लोगों के प्रति उनके रोज–ब–रोज के रवैये से समझा जा सकता है।

जैसा की पहले बताया गया है, हमारे देश में राष्ट्रवाद का जन्म उपनिवेशवादी विदेशी शासकों के खिलाफ संघर्ष में जनता की एकता के अस्त्र के रूप में हुआ था। विडम्बना है कि आज के शासक जो यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों और सस्ती श्रम शक्ति को लूटने का प्रलोभन देकर खुद ही विदेशी पूँजी को निमंत्रित कर रहे हैं, वे आज राष्ट्रवाद के सबसे बड़े पैरोकार बन गये हैं। वे विदेशी हमलावरों के लिए लाल कालीन बिछा रहे हैं और उनके हमले का शिकार होने वाली और उनके विरोध में खड़ी आम जनता के खिलाफ राष्ट्रवाद का नारा लगाते हुए दमन चक्र चला रहे हैं। वे जनता के ऊपर अंग्रेजों द्वारा बनाया गया 1898 का देश–द्रोह कानून लाद रहे हैं। उनका यह राष्ट्रवाद देश और जनता को एकजुट करने वाला नहीं बल्कि विघटनकारी है, शत्रु सहयोगी है।

साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में अपनी ऐतिहासिक प्रासांगिकता से रहित राष्ट्रवाद भले ही हिन्दू राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवरण में दिखता हो, लेकिन वह छद्म राष्ट्रवाद, संकीर्ण राष्ट्रवाद, अतिवादी राष्ट्रवाद, आक्रामक राष्ट्रवाद, अंधराष्ट्रवाद और सही मायने में फासीवादी राष्ट्रवाद ही हो सकता है। यहाँ फासीवादी राष्ट्रवाद की अवधारणा पर विचार कर लेना भी समीचीन होगा। मुसोलिनी ने फासीवाद के पाँच सिद्धान्त गिनवाये थे–– पहला, राजसत्ता के हितों को व्यक्तियों के अधिकार से ऊपर रखनाय दूसरा, राष्ट्र के ऊपर राजसत्ता की वरीयताय तीसरा, लोकतंत्र का परित्यागय चैथा, राजसत्ता का धर्मनिरपेक्ष न होकर किसी एक खास धर्म को सम्मान और सरंक्षण देना तथा पाँचवा, राजसत्ता को पूरे राष्ट्र की अन्तस्चेतना मानना। इन बातों का निचोड़ यही है कि जो राजसत्ता यानी सरकार के खिलाफ है, वह राष्ट्र के खिलाफ है यानी राष्ट्रद्रोही है और उसके खिलाफ अभियोग लगाना जरूरी है। जाहिर है कि राष्ट्रवाद का यह पाठ संविधान की प्रस्तावना में वर्णित “हम भारत के लोग–––” अथार्त देश के करोड़ों लोगों को मूलभूत अधिकारों से वंचित कर देश की सम्प्रभुत्ता को केवल सरकार और उसके अंध समर्थकों तक सीमित कर देता है। न्यायपालिका, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक और रिजर्व बैंक जैसी संवैधानिक संस्थाएँ जो संसद के प्रति जवाबदेह नहीं है, उनको नियंत्रित करने के प्रयास और उनके खिलाफ बौखलाहट भरे बयानों को भी इसी रोशनी में समझा जा सकता है।

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि राष्ट्रीयता एक जहर है। रवीन्द्र नाथ टैगोर का कहना था कि ‘‘मैं हीरे की कीमत पर शीशा नहीं खरीदूँगा, जब तक में जीवित हूँ, देशभक्ति को मानवता के ऊपर जीत हासिल करने की इजाजत नहीं दूँगा। शान्ति निकेतन देशभक्तों के लिए नहीं, शान्तचित्त विश्व नागरिकों के लिए है।’’ टैगोर ने यह विचार राष्ट्रवाद के उत्थान के दौर में व्यक्त किया था। आज जब भारत का शासक वर्ग साम्राज्यवाद के आगे निर्लज्ज आत्मसमर्पण कर रहा है और इस कुकृत्य को छद्म राष्ट्रवाद के आवरण में छुपा रहा है, तब उनका यह कथन और भी महत्त्व ग्रहण कर लेता है। पूँजीवादी राष्ट्रवाद की अवधारणा के बरक्श आधुनिक युग के सबसे प्रगतिशील वर्ग–– मेहनतकश ने अन्तरराष्ट्रीयतावाद, यानी विश्व बंधुत्व की अवधारणा को स्थापित किया। इसकी सघन अभिव्यक्ति “दुनिया के मजदूरों, एक हो जाओ” के नारे में हुई। यह एक अलग अध्ययन का विषय है कि संकीर्ण स्वार्थों से प्रेरित राष्ट्रवाद के नाम पर दुनिया भर में जितने खून खराबे और कत्लोगारत हुए उनके समनान्तर मेहनतकशों के विश्व बंधुत्व की धारा ने आपसी सहयोग और भाईचारा के इतने कीर्तिमान स्थापित किये। जाहिर है कि राष्ट्रवाद आज अपनी सारी नकारात्मकताओं के साथ मुठ्ठी भर परजीवियों और शोषक वर्गों की विचारधारा के रूप में ही कायम है। अपनी हिफाजत के लिए वह काले कानूनों और दमन–उत्पीड़न का सहारा लेने से भी बाज नहीं आता। दूसरी ओर आज दुनिया भर में न्याय, समानता और स्वतंत्रता का सपना देखने वाले करोड़ों लोगों की विचारधारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद यानी विश्व बधुत्व ही है। यह ऐतिहासिक रूप से सही, विज्ञान सम्मत और तार्किक विचारधारा है। यही इतिहास को आगे गति देगा। यही भविष्य की दिशा है।