30 अगस्त को कन्नड के प्रख्यात विद्वान एम एम कुलबर्गी की धारवाड़ शहर में गोली मारकर हत्या कर दी गयी। कन्नड़ वचना साहित्य के विद्वान साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कुलबर्गी को अंधविश्वास की तीखी आलोचना के कारण दक्षिणपंथी हिन्दूवादी संगठनों ने जान से मारने की धमकी दी थी। उनकी हत्या के ठीक बाद बजरंग दल और राम सेना से जुड़े दो स्थानीय नेताओं ने ट्वीटर पर लिखा कि अलगा निशाना के एस भगवान हैं। पुलिस ने उन दोनों को गिरफ्तार कर जमानत पर छोड़ दिया। वैचारिक असहमति के लिए मौत के घाट उतारे जानेवाले कुलबर्गी पहले विद्वान नहीं हैं। इससे पहले 2013 में हिन्दूवादियों ने अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के तर्कशील लेखक नरेन्द्र दाभोलकर की पुणे में हत्या कर दी थी। इसी वर्ष महाराष्ट्र के जाने–माने जुझारू कार्यकर्ता गोविन्द पानसारे की हत्या भी इसी सिलसिले की कड़ी है। इन तीनों मामलों में हत्यारे मोटरसाइकिल पर सवार थे, तीनों प्रगतिशील जनपक्षधर और अंधविश्वास के विरोधी थे। नरेन्द्र दाभोलकर और गोविन्द पानसारे के हत्यारे अभी तक पुलिस की गिरफ्त से बाहर हैं। हमारे देश में पिछले कुछ वर्षों से एक तरफ वैचारिक असहमति को लेकर दक्षिणपंथी संगठनों की असहिष्णुता, कट्टरता और हिंसक हमले तेजी से बढ़ रहे हैं वहीं दूसरी ओर प्रगतिशील तार्किक और वैज्ञानिक विचारों और संस्थाओं पर संगठित हमले हो रहे हैं। जिस किसी पुस्तक, कला कृति, सिनेमा, नाटक या विचारक से हिन्दूवादियों की असहमति हो उस पर गैरकानूनी तरह से रोक लगाने, उनके खिलाफ उग्र प्रदर्शन और उसे नष्ट कर देने की कार्रवाई आये दिन सुनने को मिल रही है। दूसरी ओर बिना किसी वाद–विवाद या असहमति की अनुमति दिये अंधश्रद्धा को स्थापित करने का आक्रामक अभियान भी चल रहा है इसके लिए राज्य मशीनरी का भरपूर उपयोग तो किया ही जा रहा है राज्येतर शक्तियों को भी खुलकर खेलने की छूट है। संघ से जुड़े संगठनों के नेताओं द्वारा भड़काऊ बयान, साम्प्रदायिक भाषण, गाली–गलौज भरी टिप्पणियाँ और हिंसक घटनाएँ अक्सर चर्चा के केन्द्र में होती हैं। आम तौर पर इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती। लेकिन अगर भारी दबाव के बाद मामला दर्ज भी हो जाय तो जल्दी ही उसे रफा–दफा भी कर दिया जाता है। हमारे देश को धर्मोन्माद और साम्प्रदायिक ध्रुविकरण के सहारे दक्षिणपंथी फासीवादी रास्ते पर ले जानेवाली ये सभी कार्रवाइयाँ एक मुकम्मल योजना का अंग हैं। इसकी जड़ें वैसे तो इतिहास में काफी पीछे तक जाती हैं। निकट अतीत में आडवाणी की रथ यात्रा, बाबरी मस्जिद विध्वंश, मुम्बई के दंगे और उसके बाद बम विस्फोट की घटनाओं और भाजपा गठबंधन के सत्ता में आने के रूप में देखी जा सकती है। लेकिन जब से इसने रफ्तार पकड़ी उसकी जड़ें दो–तीन साल पहले की घटनाओं में है। आर के राघवन के नेतृत्व में विशेष जाँच दल द्वारा गुजरात 2002 के नरसंहार में नरेन्द्र मोदी को क्लीन चिट दिया जाना। उसके ठीक बाद उनको 2014 के संसदीय चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाना। विभिन्न प्रचार माध्यमों और विदेशी विज्ञापन कम्पनियों की सहायता से मोदी की चमत्कारी छवि और ‘गुजरात मॉडल’ का धुँआधार प्रचार। भ्रष्टाचार, काला धन, बेरोजगारी, महँगाई और जनता की हर समस्या का समाधान करने का वादा। सभी पार्टियों से पदलोलुप, दलबदलू नेताओं पार्टी में भर्ती और अपनी पार्टी के स्थापित नेताओं को किनारे कर के अवसरवादी तरीके से उन्हें भाजपा का उम्मीदवार बनाया जाना। देश के कई हिस्सों में और खासकर मुजफ्फरनगर और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में हिन्दू–मुस्लिम दंगे। दंगों के बारे में भाजपा नेताओं की स्पष्ट स्वीकारोक्ति कि दंगे होने का लाभ भाजपा को मिलेगा। संसदीय चुनाव में भाजपा की भारी बहुमत से जीत। इस तरह नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने। उन्होंने भाजपा के अध्यक्ष पद पर अमित शाह को स्थापित किया। उन पर चल रहे आपराधिक मुकदमें खत्म करवाये।

सत्ता में आते ही मोदी शाह की जोड़ी ने एक तरफ संघ का फासीवादी एजेण्डा और दूसरी तरह नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत अल्पतंत्री क्रोनी कैपिटलिज्म (याराना पूँजीवाद) को आक्रामक तरीके से लागू करना शुरू किया। दरअसल ये दोनों तरह के काम एक दूसरे के पूरक हैं। इस कामों में राज मशीनरी का इस्तेमाल करने के साथ–साथ संघ से सम्बद्ध संगठनों के दमनात्मक कार्रवाइयों की भी मदद ली गयी। राव–मनमोहन सिंह की सरकारों ने चरम शोषण को बढ़ावा देने वाली नवउदारवादी अर्थ नीति और नेहरू युग की लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता के बीच तालमेल बैठाकर चलने का रास्ता अपनाया था। लेकिन मोदी सरकार की स्कीम में उन संस्थाओं को तहस–नहस करना बेहद जरूरी था क्योंकि उनमें पहले से विराजमान अधिकांश व्यक्तियों की उदारतापूर्ण लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष विचारधारा और उनकी कार्यशैली संघ की अलोकतांत्रिक, सर्वसत्तावादी, फासीवादी विचारधारा और कार्यशैली के बीच कोई मेल नहीं। सबसे पहले इस योजनाबद्ध संस्थागत आक्रमण का शिकार योजना आयोग द्वारा जिसे खत्म करने उसकी जगह नीति आयोग के नाम से एक तकनीकीशाही, नौकरशाही संस्था की स्थापना की गयी। 14 अगस्त को मंत्री परिषद की बैठक में प्रस्ताव पारित करके गठित नीति आयोग संक्षिप्त नाम है जिसका पूरा रूप नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफोर्मिंग इण्डिया दरअसल यह केन्द्र और राज्य सरकारों को रणनीतिक–तकनीकी सुझाव देने वाले थिंक टैंक, सलाहकारों का निकाय है। जिस प्रकार योजना आयोग को पंचवर्षीय योजना बनाने और उसके लिए धन आवंटित करने का अधिकार था, ऐसा कुछ भी नीति आयोग के पास नहीं है। जाहिर है कि योजनाबद्ध विकास से सरकार ने पूरी तरह हाथ खींच लिया और विकास की जिम्मेदारी देशी–विदेशी पूँजीपतियों को सौंप दी। यह योजना शब्द को तिलांजलि देना ही था। साथ ही नीति आयोग के थिंक टैंक किन विचारों के वाहक इसका स्पष्ट प्रमाण इसके उपकुलपति अरविन्द पनगड़िया की उक्ति है। 3 सितम्बर को प्रकाशित एक इण्टरव्यू में उन्होंने कहा कि कुछ महत्त्वपूर्ण कानूनों को बदलने के लिए शासनादेश (एक्जीक्यूटिव एक्शन) व्यवहार्य होगा। यानी कानून बदलने के लिए संसद की औपचारिक स्वीकृति भी जरूरी नहीं।

अगले हमले का निशाना न्यायपालिका को बनाया गया। न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए अब तक चली आ रही कॉलेजियम (नियुक्ति मंडल) की जगह नेशनल ज्यूडीसियरी अप्वाइंटमेंट कमिशन की स्थापना करके न्यायपालिका की स्वायत्तता की जगह न्यायधीशों की नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका के हाथों सौंप दिया गया। इस मामले पर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान एटॉर्नी जनरल ने इसके समर्थन में सरकार का पक्ष रखते हुए कहा कि न्यायपालिका की नियुक्ति के मामले में हमें पाकिस्तान, श्रीलंका और आस्ट्रेलिया का अनुसरण करना चाहिए। इस फैसले का खुलकर विरोध करते हुए भाजपा सरकार में कानून मंत्री रहे और राज्य सभा के भाजपा सांसद राम जेठ मलानी ने कहा कि यह फैसला न्याय पालिका की स्वायत्तता को समाप्त कर उसे कार्यपालिका के अधीन ला देगा। यह सही है कि न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार के इक्के–दुक्के मामले सामने आते हैं। लेकिन कार्यपालिका के लोग जो इसे अपने अधीन करना चाहते हैं उनके दामन कितने साफ हैं यह जनता रोज–रोज देख रही है। इसका सीधा मकसद न्यायपालिका को पालतू बनाना और जिस तरह से नौकरशाही के बड़े पदों पर अपने पसंदीदा और विश्वस्त लोगों को चुनचुन कर भरती किया यह सबको पता है। मोदी सरकार पिछले दिनों न्यायपालिका में हस्तक्षेप करने, कई आरोपियों छुड़ाने और केस खारिज करने की घटनाएँ हुर्इं हैं। दूसरी ओर इस काम से सहयोग नहीं करनेवालों को डराने–धमकाने और परेशान करने की घटनाएँ भी सामने आयी हैं। इस फैसले के लागू होने पर जनता को न्याय मिलने की जो क्षीण सी सम्भावना बची रहती है वह भी समाप्त हो जायेगी।

इसी क्रम में सांस्कृतिक संस्थानों और उपक्रमों को हिन्दुत्ववादी ऐजेण्डा लागू करने का उपकरण बनाने के लिए मोदी सरकार ने उनके शीर्ष पर संघ से जुड़े लोगों को स्थापित करने का सिलसिला शुरू किया। फिल्म सेन्सर बोर्ड में एक ऐसे व्यक्ति को नियुक्त किया गया जो मोदी को अपना ‘अभिभावक’ मानते हैं। पिछले संसदीय चुनाव में हर हर मोदी अभियान का वीडियो उनके ही दिमाग की उपज थी। दूरदर्शन और आकाशवाणी का संचालन करने वाली संस्था प्रसार भारती के अध्यक्ष पद पर ए सूर्यप्रकाश को स्थापित किया गया जो आरएसएस के थिंक टैंक विवेकानन्द इन्टरनेशनल फाउण्डेशन से जुड़े रहे हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष पद पर आरएसएस मुखपत्र पाँचजन्य के पूर्व सम्पादक बलदेव शर्मा को नियुक्त किया गया। वैसे तो कई अन्य सांस्कृतिक संस्थानों पर भी संघ के बौद्धिकों को स्थापित किया गया लेकिन मुख्यत: इन तीन संस्थानों को प्रभाव में लेकर सिनेमा, दूरदर्शन आकाशवाणी और प्रकाशन न्यास को उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों से रिक्त करके भाजपा सरकार ने उन्हें अपने रंग में रंगने का रास्ता साफ कर दिया।

मोदी सरकार द्वारा अगला निशाना अकादमिक संस्थाआंे को बनाया गया। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (आइसीएचआर) के अध्यक्ष पद पर आरएसएस की एक स्थानीय इतिहास शोधक संस्था से जुड़े एक ऐसे व्यक्ति को बहाल किया गया जिनकी इतिहासकार के रूप में कोई पहचान नहीं। उनकी इच्छा महाभारत और रामायण जैसे पौराणिक ग्रंथों की ऐतिहासिकता प्रमाणित करना है। भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद (आइसीसीआर) के प्र्रमुख पद पर स्थापित लोकेश चन्द्रा नरेन्द्र मोदी को महात्मा से भी महान नेता और भगवान का अवतार मानते हैं। फिल्म एण्ड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एफटीआईआई) में गजेन्द्र चैहान सहित संघ से जुड़े कई लोगों की नियुक्ति उनकी योग्यता और अहर्ता के कारण सर्वाधिक विवादों में रही। इसके खिलाफ आन्दोलन करनेवाले छात्रों को देश–भर के बुद्धिजीवियों और फिल्म जगत के शीर्षस्थ लोगों ने समर्थन दिया, जिनमें भाजपा से जुड़े अनुपम खेर और शत्रुघन सिन्हा भी शामिल हैं। ऐसे ही विवाद भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम), भारतीय सांख्यिकी संस्थान (आईएसआई), भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (आईआईएएस), टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फण्डामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर), नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, नागपुर और कुछ विश्वविद्यालयों के उपकुलपतियों की नियुक्ति को लेकर सामने आये। प्रतिष्ठित संस्थानों को महत्त्वहीन बनाने का एक उदाहरण नेहरू स्मारक संग्राहलय एवं पुस्तकालय, तीनमूर्ति भवन जो जवाहर लाल नेहरू का निवास स्थान और उनकी याद में बनायी गयी स्मारक है, उसे ‘प्रशासन प्रदर्शनी’ और सरकार की उपलब्ध्िायों की प्रदर्शनी में बदलने का प्रयास हो रहा है। इसके खिलाफ देश के जानेमाने विद्वानों ने विरोध दर्ज कराया है।

अकादमिक संस्थानों के शीर्ष पदों पर नियुक्ति को लेकर विवाद का विषय यह नहीं रहा है कि सरकार अपने मनपसंद लोगों की नियुक्ति कर रही है। ऐसा पहले भी हुआ है। विवाद का मुद्दा उन व्यक्तियों की वांछित योग्यता थी, क्योंकि लगभग सभी पदों पर पहले विश्वविख्यात विद्वान, ज्ञान–विज्ञान के नये क्षितिज खोलने में अपनी अप्रतिम सेवाएँ दे चुके थे। उनका स्थान ग्रहण करनेवाले लोगों में उन खास क्षेत्रों की वांछित विशेषज्ञता या अनुभव में भारी अन्तर था। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि किसी प्रतिष्ठित आकादमिक संस्थान के गरीमामय पद पर नियुक्ति का मानदण्ड क्या केवल किसी पार्टी के साथ प्रतिबद्ध होना ही पर्याप्त है?

दरअसल दक्षिणपंथी खेमे में बुद्धिजीवियों का भारी अभाव है। यह पिछले दिनों काफी चर्चा का विषय रहा कि आखिर क्या कारण है कि लगभग एक सदी के दौरान सावरकर जैसे इक्के–दुक्क अपवादों को छोड़कर वे अपने बीच से एक कोई उच्चकोटि का बुद्धिजीवी तैयार नहीं कर पाये। पिछले दिनों आरएसएस ने 680 बुद्धिजीवियों के चयन के लिए एक कमिटि बनाई, जिसे काफी प्रयास के बाद 160 नाम ही मिल पाये और उनका स्तर उन्हीं जैसा है जिनकी विभिन्न आकादमिक संस्थाओं में नियुक्ति विवाद का कारण बनी। इस समस्या का कारण एकदम स्पष्ट है। धर्म केन्द्रित चिन्तनधारा और मानव केन्द्रित चिन्तर धारा में एक बुनियादी अन्तर है। धर्म केन्द्रित चिन्तनधारा यथास्थिति की पोषक और अतीत के प्रति अंधश्रद्धालु और भावुकतापूर्ण पहुँच अपनाती है। वह सबकुछ अतीत में, प्राचीन काल की श्रेष्ठ संस्कृति में तलाश करती है। यह चिन्तनधारा परम्परागत ज्ञान को महिमामण्डित करने को ही बौद्धिकता का अन्तिम लक्ष्य मानती है। उस ज्ञान को आगे बढ़ाने की भी कोई सम्भावना नहीं, क्योंकि वह युग सदियों पीछे छूट गया है। दूसरी ओर मानव केन्द्रित सांसारिक चिन्तन धारा अतीत के सकारात्मक तत्त्वों को लेकर वर्तमान के गतिरोध को तोड़ने और उसे भविष्य के प्रगतिपथ पर अग्रसर करने में अब तक के समस्त ज्ञान–विज्ञान का उपयोग करता है। वह पुराने मूल्य–मान्यताओं, विधि–निषेधों और परम्पराओं को समय सापेक्ष और नये अनुसंधानों की रोशनी में परिष्कृत करने का प्रयास करता है। जिन संस्थाआंे में संघ के लोगों को बिठाने का विरोध हो रहा है उन सबने अपने–अपने क्षेत्र में भारतीय लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और ज्ञान–विज्ञान के नये क्षितिज खोजने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। चाहे सामाजिक विज्ञान और संस्कृति का क्षेत्र हो या विज्ञान और प्रोद्योगिकी का। संघ की विचारधारा नव उदारवादी विचारों के विपरीत है। जिन संस्थाओं को वे अपने विचारों के अनुरूप ढाल रहे हैं। उनकी गतिविधियों को देखकर ही इसे समझा जा सकता है कि ज्ञान–विज्ञान को लेकर उनकी पहुँच और लक्ष्य क्या हैं।

पिछले दिनों केन्द्रीय राज्य मंत्री श्री प्रसाद यासो नायक ने संसद में बयान दिया था कि विज्ञान एवं औद्योगिक परिषद (सीएसआईआर और आरएसएस की नागपुर स्थित संस्था गो विज्ञान केन्द्र मिलकर गोमूत्र पर शोध कर रहे हैं।) विज्ञान के बारे में हिन्दुत्ववादी समझ स्वयं प्रधानमंत्री के वक्तव्य से ही स्पष्ट होती है। मुम्बई में मुकेश अम्बानी के अस्पताल का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा था कि ‘महाभारत का कहना है कि कर्ण माँ के गर्भ से पैदा नहीं हुआ था। इसका मतलब यह हुआ कि उस समय जेनेटिक साइन्स मौजूद था।––– हम गणेश जी की पूजा करते हैं। कोई तो प्लास्टिक सर्जन होगा उस जमाने में, जिसने मनुष्य के शरीर पर हाथी का सिर रखकर प्लास्टिक सर्जरी का आरम्भ किया होगा।’ इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए इण्डियन साइन्स काँग्रेस में एक वैज्ञानिक ने शोध पत्र प्रस्तुत किया जिसमें दावा किया कि ‘हमने वैदिक काल में ही विमान की खोज कर ली थी। देश में नौ हजार साल पहले ही अन्तरग्रहीय विमान उड़ते थे।’ विज्ञान काँग्रेस में इसी तरह के कुछ अन्य शोध पत्र भी प्रस्तुत किये गये। भाजपा सांसद रमेश पोखरियाल निशंक ने संसद में कहा कि संत कगाद ने दूसरी सदी में परमाणु परीक्षण किया था। इन सारी बातों का स्रोत संघ की इस सोच में है कि दुनिया–भार में जो कुछ आधुनिकता में हुआ या आज हो रहा है, वह सब बहुत पहले प्राचीन भारतीय शास्त्रों में हो चुका है। इतिहास को दुबारा लिखने और गढ़ने का प्रयास भी जोर–शोर से चल रहा है, जिसमें पौराणिक नदी सरस्वती की खुदाई महाभारत, रामायण और अन्य मिथकों को इतिहास सिद्ध करने सम्बन्धी शोध प्रमुख हैं।

दो सौ साल की औपनिवेशिक गुलामी से राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश में सामाजिक और प्राकृतिक विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में विश्व स्तर पर अब तक हासिल किये गये ज्ञान–विज्ञान की ऊँचाइयों को समझने और उसे उन्नत करने के लिए कई संस्थानों की स्थापना की गयी और अपनी सीमा के बावजूद वे काफी सफल भी हुए। इन सबका उद्देश्य वैज्ञानिक और तार्किक आधार पर ज्ञान–विज्ञान को विकसित करना था। 1958 में देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने विज्ञान और प्रोद्योगिक नीति संसद में प्रस्तुत की थी जिसमें न केवल प्रयोगशालाओं में, बल्कि समाज में भी वैज्ञानिक नजरिया और वैज्ञानिक माहौल बनाने पर बल दिया गया था। शिक्षा के क्षेत्र में भी तर्कशीलता और वैज्ञानिकता को बढ़ावा देने पर जोर था। लेकिन आज ज्ञान–विज्ञान को उलटी दिशा में मोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। और अब तक इस काम को आगे बढ़ानेवाले उच्चतर अकादमिक संस्थानों के विनाश की कोशिश हो रही है।

‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा देनेवाली मोदी सरकार असंतोष, असहमति और विरोध को देशद्रोह जैसे संगीन अपराध में बदल देना चाहती है। कॉरपोरेट हित में विकास के नाम पर पर्यावरण विनाश और लोगों के विस्थापन का विरोध करनेवाले लोगों को विकास विरोधी और देशद्रोही बताकर उन्हें गिरफ्तारकर जेल में डालने का काम काँग्रेस सरकार भी करती थी। कुडानकुलम नाभिकीय संयंत्र के विरुद्ध संघर्षरत स्थानीय मछुवारों और आम जनता को देशद्रोह के जुर्म में गिरफ्तार करना इसका एक उदाहरण है। मौजूदा सरकार उसे काफी पीछे छोड़ चुकी है। हाल ही में महाराष्ट्र की भाजपा सरकार के गृह विभाग ने अधिसूचना जारी की है, जिसके अनुसार मौखिक, लिखिल दृश्य अथवा संकेतों द्वारा या किसी अन्य तरह से केन्द्र सराकर, राज्य सरकार, जनसेवक या सरकार के प्रतिनिधि के बारे में ईष्या, उपेक्षा, अपमान, असंतोष, वैरभाव, विद्रोह भावना, बेइमानी की भावना या हिंसा भड़काने की सम्भावना पैदा हेती है, तो ऐसे अपराधों में 124 (अ) अंग्रेजी राज्य में भारतीय नागरिकों की अभिव्यक्ति का गला घोंटने के लिए बनाया गया था। आजादी के बाद भी इसका इस्तेमाल अपने विरोधियों को कुचलने के लिए होता रहा है और इसे खत्म करने की पुरजोर माँग भी होती रही है।

भारतीय संविधान के तहत हमारे यहाँ राजसत्ता सम्प्रभु नहीं, संसद भी सम्प्रभु नहीं। सम्प्रभुता ‘हम भारत के लोग–––’ में निहित है। भारत के संविधान की प्रस्तावना संविधान की आत्मा है और इसमें ‘‘हम भारत के लोग–––’’ को सर्वोपरि और सर्वसत्ता सम्पन्न बताया गया है। न्यायपालिका राज्य और संसद के हर ऐसे कदम की छानबीन करती है जो संविधान और उसकी प्रस्तावना में दर्ज जनता की आकांक्षा के विरुद्ध हो। फासीवादी ताकतें सम्प्रभुता को जनता से छीनकर राज्य के अधीन करने की जी तोड़ कोशिश रच रही है। धर्मनिरपेक्ष शब्द को गालि का पर्याय बना दिया जाना, लोकतंत्र को कागजों तक सीमित क देना और अपने विरोधियों को देशद्रोह करार देना इसी ओर संकेत है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता की सम्प्रभुता होती है जबकि अधिनायक तंत्र या फासीवादी व्यवस्था सारी सम्प्रभुता राज्य के अधीन करने, सभी तरह के अधिकारों को सरकार के आगे समर्पित करने की माँग करती है। आज संघ की फासीवादी चिन्तनधारा के अनुरूप जनता के सभी अधिकारों को एक एक कर छीनने का प्रयास हो रहा है। राज्य की सुरक्षा और देश की आर्थिक सुरक्षा को खतरा बताते हुए राज्य की किसी परियोजना का विरोध करनेवालों को देशद्रोही बता सकती है, चाहे वे जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए लड़नेवाले किसान या अपने अधिकारों के लिए हड़ताल करनेवाले मजदूर। पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले अन्तरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन ग्रीनपीस का विदेशी अनुदान पंजीकरण रद्द करना तथा तिस्ता सीतलवाड़ तथा उनके पति जावेद आनन्द के दफ्तर और निवास पर छापामारी और हिरासत में लेने का प्रयास इसकी ताजा मिसाल है। तिस्ता मामले में मुम्बई उच्च न्यायालय ने अग्रिम जमानत स्वीकार करते हुए कहा कि हिसाब–किताब में गड़बड़ी की जाँच के लिए हिरासत में लेना जरूरी नहीं है न्यायाधीश ने यह भी कहा कि राज्य की आर्थिक सुरक्षा को तिस्ता सीतलवाड़ से कोई खतरा प्रतीत नहीं होता।

आधार कार्ड की अनिवार्यता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान एटोर्नी जनरल ने बयान दिया कि निजता के अधिकार का संविधान में मूल अधिकार के रूप में उल्लेख नहीं है। सच्चाई यह है कि निजता के अधिकार का मूल अधिकारों से कहीं अधिक महत्त्व है। यह मैग्ना कार्टा, मानवाधिकार घोषणापत्र से लेकर भारतीय संविधान में दर्ज सभी मौलिक अधिकारों की आत्मा और उसकी पूर्व शर्त है। निजता के अधिकार के महत्त्व को लोग तभी समझ पाते हैं, जब इसका हनन होना है, जब पुलिस बिना वारेंट के तलाशी लेने आती है। जर्मनी में हिटलर के गेस्टापो किसी के दरवाजे पर आधी रात को दस्तक दे सकते थे और किसी के भी शयन कक्ष में प्रवेश करने के लिए आजाद थे। हमारे यहाँ निजता के हनन की घटनाएँ तो अक्सर ही होती रहती हैं। पुलिस के बड़े अधिकारी द्वारा किसी लड़की की चैबीसों घण्टे निगरानी, विपक्ष के किसी नेता का फोन टेप करवाना, दफ्तर में चिप्स लगवाकर वार्तालाप सुनना, अवैध हिरासत में यंत्रणा देना इत्यादि। मुम्बई में आधी रात को होटल के कमरों की तलाशी और वहाँ ठहरे हुए जोड़ों को पुलिस थाने लाकर पूछताछ करने की घटना काफी चर्चित हुई। लेकिन ऐसे मामलों को मानवाधिकार का प्रश्न बनाकर हल्ला किये जाने और कुछ मामलों में न्यायालयों द्वारा फटकार लगाये जाने से अक्सर सरकार की किरकिसी भी होती रही है। इसलिए अब इसे कानूनी जामा पहनाने और संहिताबद्ध करने का भरपूर प्रयास किया जा रहा है।

लोक अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के पीछे सरकार की मंशा। बिलकुल साफ है। 1991 के बाद से ही सरकारें नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत देशी–विदेशी पूँजीपतियों के हित में पर्यावरण सुरक्षा, वन संरक्षण और लोगों के विस्थापन की परवाह किये बिना प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन की खुली छूट दे रही है। देश में मजदूर वर्ग के लिए सेवा शर्त, न्यूनतम मजदूरी और रोजगार सुरक्षा की कोई गारण्टी नहीं है। किसान लागत की बढ़ती कीमत और फसलों के गिरते भाव से त्रस्त होकर कंगाली–बदहाली और आत्महत्या की ओर धकेले जा रहे हैं। महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार दिनोंदिन बेकाबू होते जा रहे हैं। पिछली काँग्रेस के सरकार के दौरान इन्हीं सवालों पर जनता के गुस्से को भुनाते हुए और हर समस्या से मुक्ति दिलाने के नाम पर मोदी सरकार सत्ता में आई। लेकिन पिछले सवा साल के दौरान इनमें से किसी भी समस्या का समाधान तो दूर, हालत पहले से भी बदतर होती जा रही है। उलटे मनमोहन सरकार जनाक्रोश को देखते हुए जिन तथाकथित सुधारों की ओर फूँक–फँूककर कदम बढ़ा रही थी, मोदी सरकार ने उसे तेजी से आगे बढ़ाया और जनता की बुनियादी जरूरतों में बजट कटौती करके कॉरपोरेट घरानों की तिजोरी भरने में कोई कोताही नहीं की। इस असंतोष और आक्रोश की परिणति प्रतिरोध संघर्ष और जनान्दोलन के रूप में सामने आया तय है। जाहिर है कि मुट्ठी–भर लोगों की कीमत पर बहुसंख्य जनता को बदहाली की गर्त में पहुँचानेवाली नीतियों को लोकतांत्रिक और शान्तिपूर्ण तरीकों से लागू नहीं करवाया जा सकता। अल्पतंत्री, याराना पूँजीवाद अधिनायकवादी राजसत्ता की छत्रछाया में ही फल फूल सकता है। सरकार इसी ओर तेजी से बढ़ रही है। भावी जनसंघर्षों का सामना करने के लिए सराकर अपने को तमाम तरह के काले कानूनों से लैस कर रही है और भारतीय लोकतंत्र के फासीवादी रूपानतरण में सन्नद्ध है तो दूसरी ओर संघ जुड़े संगठन साम्प्रदायिक घृणा, तनाव और हिंसा फैलाने में लगे हैं।

अपने विरोधियों के प्रति मोदी सरकार का रुख किसी से छिपा नहीं है। गुजरात नरसंहार के दौरान शान्ति–व्यवस्था कायम करने और राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा करनेवाले एक दर्जन से भी अधिक प्रशासनिक अधिकारियों को दण्डात्मक तबादले और दूसरे कई तरीकों से इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है। भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी संजीव भट्ट को नौकरी से निकाला जाना इसका चरम रूप है। दूसरी ओर अपने पसन्दीदा पुलिस और प्राशासनिक अधिकारियों को जिनमें से कई लोगों को आपराधिक मुकदमें के कारण जेल की हवा खानी पड़ी थी, सरकार ने भरपूर संरक्षण, प्रोत्साहन और पदोन्नति दी। तिस्ता सीतलवाड़ ने गुजरात नरसंहार के शिकार लोगों के मुकदमों की पैरवी की और कई लोगों को सजा दिलवायी जिसमें एक तत्कालीन सरकार की मंत्री और हिन्दूवादी संगठन के पदाधिकारी भी शामिल हैं। सरकार उनसे बदला जेने के लिए कोई न कोई बहाना तलाश रही थी। एक तरफ आतंकवाद के आरोप में मुस्लिम समुदाय के लोगों को बिना आरोप पत्र दायर किये वर्षों जेलों में रखा जा रहा है, वहीं मालेगाँव और समझौता एक्सप्रेस बम विस्फोट का हिन्दू चरमपंथियों, गुजरात नरसंहार के सजायाफ्ता लोगों की जमानत पर रिहाई और हर तरह से नरमी बरती जा रही है। मालेगाँव विस्फोट मामले में सरकारी वकील रोहिनी सालियान ने कहा था कि उनपर अभियुक्तों के प्रति नरमी बरतने के लिए दबाव डाला गया था। आतंकी घटना से जुड़े 14 आरोपियों में से 2 को भगोड़ा घोषित किया गया है जबकि 4 लोग पैरोल पर बाहर हैं। गुजरात मामलों की जाँच करनेवाली विशेष जाँच दल और विशेष कार्य बल एक एक कर गुजरात मामले के अभियुक्तों को क्लीन चिट देते जा रहे हैं। व्यापामं घोटाले को उजागर करनेवाले डॉ– आनन्द राय इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं जो खुद आरएसएस से जुड़े स्वयंसेवक रहे हैं। पहले उनकी पत्नी को जो एक डॉक्टर हैं, मातृत्व अवकाश लेने के लिए निलम्बित किया गया फिर उनका स्थानान्तरण उज्जैन कर दिया गया जबकि डॉ– आनन्द राय का स्थानान्तरण एक दूरस्थ क्षेत्र में कर दिया गया। इस तरह की दमनात्मक कार्रवाइयों के जरिये सरकार न केवल भ्रष्टाचार का भण्डाफोड़ करने वालों को परेशान करती है बल्कि भविष्य के लिए एक चेतावनी भी देती है कि सरकार के खिलाफ किसी ने दबी जुबान से भी आवाज उठाने की कोशिश की तो इसका अन्जाम क्या होगा। व्यापमं महाघोटाले में सरकार सीबीआई जाँच से इनकार करती रही और इस मामले से जुड़े लगभग 50 लोगों की संदिग्ध अवस्था में मौत के बाद सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बादही सीबीआई जाँच का आदेश दिया।

कुलमिलाकर सराकर और संघ परिवार पिछले सवा साल में लोकतंत्र असहमति, विरोध और न्याय का विनाश करने और पूरे देश में आतंक राज कायम करने की मुहिम चला रहे हैं। इसके खिलाफ विपक्षी पार्टियों के विरोध का स्वर मुखर नहीं है। सबके दामन में दाग हैं, सभी पार्टियों को सीबीआई का भय सता रहा है। किसी ने बोलने का प्रयास भी किया तो जल्दी ही उसकी जुबान बन्द हो गयी। सर से पाँव तक भ्रष्टाचार, परिवारवाद और अवसरवादी राजनीति में लिप्त इन पार्टियों में इतना दम नहीं कि आतंक राज के खिलाफ खड़े हों। इन्हें देश की नहीं अपनी और अपने परिवार की चिन्ता है। मोदी सरकार के खिलाफ विरोध के स्वर विपक्षी पार्टियों से कहीं ज्यादा उनकी पार्टी के भीतर से ही उठ रहे हैं।

हमारे देश और समाज में लोकतांत्रिक चेतना का अभाव और दास मनोवृत्ति का प्रबल प्रभाव है। लोकतंत्र की हिफाजत करने का दावा करनेवाली तमाम पार्टियों के कार्यकर्ता अपने शीर्ष नेतृत्व के प्रति दासता और अंधविश्वास का भाव रखते हैं। यह तानाशाही के लिए मजबूत आधार प्रदान ंकरता है। जहाँ तक संविधान का प्रश्न है वह भी तानाशाही में बाधक नहीं हैं, बशर्ते कोई सरकार अपेन रोजमर्रे के कार्यकारी फैसलों और संविधान के प्रति श्रद्धा के बीच चतुराई से तालमेल बिठाना जानता हो। अरविन्द पनगढ़िया के इस सुझाव को कि कानून बदलने के लिए कार्यकारी फैसले व्यावहारिक होंगे, यदि अमल में लाया कि संविधान और संसद की पवित्रता बनाये रखते हुए भी अधिनायकतंत्र फलफूल सकता है।

इन तत्त्वों की रोशनी में यह समझना कठिन नहीं कि देश किधर जा रहा है। हमारे देश का भविष्य क्या होगा, यह सिलसिला कब तक चलेगा, यह इस बात पर निर्भर है कि एक तरफ देशी–विदेशी पूँजी और उसके पक्ष में मजबूती से खड़ी केन्द्र और राज्य सरकारें और विपक्ष की अधिकांश पार्टियों तथा दूसरी ओर भारत की बहुसंख्य मेहनतकश जनता के बीच का संघर्ष और टकराव किस दिशा में जायेगा। प्रगतिशील, जनपक्षधर बुद्धिजीवी वर्ग जो इस स्थिति से क्षुब्ध और बेचैन है, वह इस संघर्ष में क्या भूमिका निभाएँगे? लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्ष समता मूलक, न्यायपूर्ण भारत के निर्माण का अधूरा सफर में बीच रास्ते में ही दम तोड़ देगा या अपने मुकाम तक पहुँचेगा इसका फैसला देश के मजदूरों, किसानों, छात्रों, नौजवानों और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों की सक्रिय कार्रवाइयों पर निर्भर है।

पिछले दिनों भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ विरोध के परिणामस्वरूप सरकार को अपना कदम वापस लेना पड़ा। 2 सितम्बर को 15 करोड़ सदस्यता वाली 10 यूनियनों के आह्वान पर 1 दिवसीय देशव्यापी हड़ताल एक उम्मीद जगाने वाली घटना है। और सबसे अहम यह कि अब तक सराकर का कोई भी स्वेच्छाचारी और तानाशाही पूर्ण कदम ऐसा नहीं रहा है जिसे जनता के आक्रोश और विरोध का सामना नहीं करना पड़ा हो। आज हमारा देश और दुनिया चेतना के जिस ऊँचे मुकाम तक पहुँच चुकी है वहाँ लोकतंत्र का गला घोंटना और तानाशाही को थोपना आसान नहीं। जनता का प्रबल प्रतिरोध ही इस स्थिति को बदलने में कारगर साबित होगा।